गांधी @ 150: आज के दौर में गांधी की कितनी ज़रूरत?: नज़रिया

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- Author, उर्विश कोठारी
- पदनाम, बीबीसी के लिए
महात्मा गांधी की विरासत कब तक रहेगी? क्या उन्हें याद करने की ज़रूरत है? ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में, जब विभिन्न राजनीतिक दलों में आर्थिक नीतियों को लेकर कोई भिन्नता नहीं रह गई है, तब गांधी के बारे में बातें करना कितना प्रासंगिक रह गया है?
क्या यह हमारी झूठी संतुष्टि और हमारे पाखंड का दिखावा भर नहीं है? ये सवाल बीते कई सालों से पूछे जा रहे हैं. इन दिनों ऐसे सवाल कुछ और तरीक़ों से भी पूछे जा रहे हैं. ऐसा ही एक तरीक़ा है गोडसे का बचाव करना,जो अब एक ट्रेंड बन चुका है.
लेकिन इस सवाल का जवाब क्या है, क्या हो सकता है?
गांधीजी का जीवन किसी नदी की भांति था जिसमें कई धाराएं मौजूद थीं. उनके अपने जीवन में शायद ही ऐसी कोई बात रही हो जिन पर उनका ध्यान नहीं गया हो या फिर उन्होंने उस पर अपने विचारों को प्रकट नहीं किया हो.

गांधी का असर
संघर्ष और उसके साथ सकारात्मक गतिविधियां, उनके जीवन में एक साथ समानान्तर चलती रहीं.
आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ उन्होंने छुआछूत उन्मूलन, हिंदू-मुस्लिम एकता, चरखा और खादी को बढ़ावा, ग्राम स्वराज का प्रसार, प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा और परंपरागत चिकित्सीय ज्ञान के उपयोग सहित तमाम दूसरे उद्देश्यों पर काम करना जारी रखा था. उन्होंने पूरे देश की यात्रा भी की थी.
अपनी लोकप्रियता के साथ उन्होंने लोगों को कड़वी सच्चाई बताने का काम भी जारी रखा, हालांकि ऐसा करते हुए अलोकप्रिय होने का ख़तरा ज़रूर था. उन्होंने सत्य और अहिंसा की महानता को बताने की काफ़ी कोशिशें कीं हालांकि उनके ये दोनों प्रयोग बड़े स्तर पर नाकाम रहे लेकिन इससे कई लोगों के जीवन को नई दिशा मिली.
उन्हें जानने भर से या फिर महज़ एक बार मिलने भर से कई लोगों ने अपनी पूरी ज़िंदगी उनके सिद्धांतों को अपनाने में लगा दी. हर दौर में, इंसान अपनी मूर्खताओं और कमज़ोरियों के साथ जैसा है मोटे तौर पर वैसा ही बना रहता है. लेकिन गांधी जी के दौर में, उनकी प्रेरणा और उनकी क़द्दावर शख्सियत के असर से बड़े पैमाने पर लोग अपने बुरे तत्वों को दूर रखने और अपने अच्छे तत्वों को बाहर निकालने में कामयाब रहे.

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हालांकि बाद में सांप्रदायिकता ने लोगों की अच्छाइयों को अपनी चपेट में ले लिया और बड़े पैमाने पर हिंसा देखने को मिली. असहाय महसूस करने और अकेले में रोने के बजाए गांधी अपने जीवन के अंतिम चरण में आम लोगों के आंसू पोछने उन तक पहुंचे.
जीवन के अंतिम दौर में वे शारीरिक अक्षमता के साथ साथ मानसिक पीड़ा भी झेल रहे थे. लेकिन ऐसी परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने रास्ता दिखाया कि जब अपने सपने ध्वस्त होने लगें तो क्या करना चाहिए.
आज़ादी मिलने पर दिल्ली में हुए जश्न में शरीक होने के बदले वे सांप्रदायिक हिंसा की आग को कम करने के लिए कोलकाता गए.

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गांधी का जीवन और उनका काम काफ़ी विस्तृत है. लिहाज़ा उनसे कई असहमतियां हो सकती हैं. लेकिन केवल असहमतियों को रेखांकित करके हम उनकी विरासत का अपमान करने की मूर्खता ही कर पाएंगे. आज ज़रूरत ख़ुद से सवाल पूछने की है, क्या उन्हें याद करना बुद्धिमता है या फिर उन्हें भुला देना बुद्धिमता होगी? या हमें उनका नाम केवल सरकारी कार्यक्रमों में लेना है और गांधी के हत्यारों को सम्मानित करना है? अगर अभी भी इन सवालों पर विचार करने की गुंजाइश बची हो तो हमें इन मूर्खताओं पर सोचने की ज़रूरत है.
गांधी के आलोचक
सार्वजनिक जीवन वाले किसी भी शख्स का हमलोग जिस तरह से आकलन करते हैं उसी तरह से गांधी के जीवन का भी कठोरता के साथ आकलन होता रहा है.
उनकी ख़ूब आलोचना भी होती रही है. लेकिन अगर पूर्वाग्रह के साथ कोई आलोचना हो या फिर आलोचना करने के लिए ही आलोचना की जा रही हो तो इस अभ्यास का फ़ायदा नहीं होता है. अरुंधति राय जैसे लोग इस कैटेगरी में आते हैं, जिनके पास आलोचना करने के लिए कुछ ठोस दलीलें हैं लेकिन वे गांधी की आलोचना करने के विचार में इतने रमे हुए हैं कि वे इसके लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं.

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विद्वानों की तरह दूसरे आलोचक भी हैं, जिनकी प्रवृति एक पेड़ की आलोचना करते हुए पूरे जंगल की आलोचना करने की होती है. ऐसा करते हुए वे जंगल में मौजूद दूसरे फ़ायदेमंद पेड़ों की उपेक्षा करने लगते हैं. ऐसे आलोचक गांधी को ओवररेटेड और उनके व्यक्तित्व को अनुपयोगी बताते हुए उन्हें पूरी तरह से ख़ारिज करते हैं.
कुछ आलोचक ऐसे भी हैं जो डॉ. आंबेडकर का बहुत सम्मान करते हैं और उनमें गांधीजी की आलोचना की प्रवृति होती है. वे यह मानते हैं कि गांधीजी को विलेन साबित करना उनका दायित्व है.
पूना पैक्ट और जाति व्यवस्था जैसे मुद्दे हैं, जिसे डॉ. आंबेडकर के नज़रिए से देखा जा सकता है और गांधीजी के नज़रिए से भी देखा जा सकता है. दोनों नज़रिए का विश्लेषण करने पर यह संभव है कि आप डॉ. आंबेडकर का नज़रिया स्वीकार कर लें और गांधीजी के नज़रिए की आलोचना करें.

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आलोचना पर सवाल
लेकिन ऐसा आकलन करते हुए दूसरे दलित मुद्दों पर गांधीजी के कामों की उपेक्षा करना सही नहीं होगा. दलित मुद्दों पर उनके कुछ पक्षों की आलोचना करते हुए कुछ दूसरे पक्षों पर किए उनके कामों की उपेक्षा करना सही तरीक़ा नहीं है. यह गांधीजी के साथ अन्याय तो होगा ही साथ में यह आकलन करने वालों की विचार प्रक्रिया पर भी सवाल उत्पन्न करेगा.
गांधीजी की एकदम विरोध स्तर पर आलोचना करने वालों में गोडसे भक्त, मुस्लिमों से घृणा करने वाले और हिंदुत्व की सीमित समझ रखने वाले लोग भी शामिल हैं. ऐसे आलोचक केवल राजनीतिक तौर पर हिंदुत्ववादी संकीर्ण एजेंडे को बढ़ावा देने वाले लोग हैं. इनमें हिंदुत्व के विस्तृत पहलुओं की कोई समझ नहीं होती.
अपनी संकीर्ण और सीमित सोच के चलते वे गांधीजी से घृणा करते हैं. वे अपनी नफ़रत को सही दर्शाने के लिए झूठे और अधकचरे तथ्यों का सहारा लेते हैं. वे अपनी घृणा को धार्मिकता या राष्ट्रवाद से जोड़ देंगे और अपुष्ट स्रोतों से आने वाली जानकारियों का हवाला देंगे.

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ऐसे आलोचक तथ्यों की बहुत परवाह नहीं करते और केवल उन सूचनाओं का इस्तेमाल करते हैं जो उनके उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले होते हैं.
गांधी की आलोचना करने वाले तीसरी तरह के लोग भी हैं जो उतने हानिकारक नहीं हैं. ये वे लोग हैं जिन्हें संदिग्ध स्रोतों से गांधी के बारे में जानकारी मिलती है. वे उन झूठी जानकारियों पर विश्वास करने लगते हैं और उसके आधार पर गांधी के बारे में विचार बनाते हैं. ऐसी झूठी जानकारियां अब सोशल मीडिया में थोक स्तर पर उपलब्ध हैं.
ऐसे आलोचकों के अलावा हमें उन लोगों से भी सावधान रहने की ज़रूरत है जो गांधी को केवल मार्केटिंग गुरु और ग्रेट कम्यूनिकेटर के तौर पर पेश करना चाहते हैं और उनकी मूल्यवान विरासत में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
सत्य, अहिंसा, सभी के लिए समानता, सभी धर्मों के प्रति सम्मान भाव, छुआछूत का उन्मूलन और ऐसे दूसरे उच्च मूल्यों के लिए उनके संघर्षों को एक तरफ़ रखकर हमलोग केवल स्वच्छता और संचार क्षमता को गांधी की विरासत का संकेत मान लेंगे तो यह वैसे पेड़ की कल्पना होगी जिससे लकड़ी ग़ायब हो. यह काफ़ी सतही नज़रिया होगा, जिसमें मूल तत्वों का अभाव होगा.

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गांधीजी का क्या होगा ?
गांधीजी के साथ जो होना था वह 30 जनवरी, 1948 की शाम को ही हो चुका है. इसलिए हमें गांधीजी की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है.
हमें अपने लिए गांधीजी की चिंता करने की ज़रूरत है और हमें उनकी विरासत में दिलचस्पी लेनी चाहिए.
गांधीजी ने हम लोगों के सामने कुछ आदर्श विचार रखे थे. सार्वजनिक जीवन के लिए भी उन्होंने हमें ख़राब लोगों के लिए ख़राब होना नहीं सिखाया बल्कि ख़राब लोगों के प्रति ईमानदार होना सिखाया था.
सार्वजनिक जीवन में किसी नेता, किसी राजनीतिक दल या फिर किसी संस्थान के प्रति हम पूरी तरह समर्पण कर दें यह हमारा लक्ष्य, आदर्श या उपलब्धि नहीं होनी चाहिए.
गांधीजी के आदर्शों को मानना काफ़ी मुश्किल है, लेकिन इसलिए तो वे आदर्श हैं, नहीं? गांधीजी ख़ुद अपने आदर्शों को सौ प्रतिशत नहीं अपना सकते थे.
संभवत: यही वजह है कि गांधीजी जीवन भर ख़ुद को बेहतर बनाते रहे. वे हमेशा उच्च स्तर को हासिल करने की कोशिश करते रहे. अगर हमने ख़ुद को किसी राजनीतिक या फिर धार्मिक नेता की सेवा में समर्पित कर दिया तो हम केवल नाम के लिए स्वतंत्र रह जाते हैं.

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ऐसी स्थिति में हमारा दिमाग़ और हमारी सोच प्रक्रिया दोनों स्वतंत्र नहीं रह पाती है. हमारा दिमाग़ और हमारे विचार किसी और से संचालित होने लगते हैं.
गांधीजी कभी नहीं चाहते थे कि लोग इस तरह से समर्पण करें. उनके अपने प्रिय रिश्तेदार, उनके नज़दीकी दोस्त और उनके अनुयायियों, सबने उनसे कई बार असहमतियां जताईं. गांधीजी के आदर्श किसी भरी हुई टोकरी की तरह नहीं हैं, जहां या तो पूरी टोकरी लेने या नहीं लेने का ही विकल्प हो.
अगर आप गांधीजी को संपूर्णता से समझना चाहते हैं हमें ब्रह्मचर्य पर उनके विचार को समझना चाहिए. हमें उसे अपनाने की ज़रूरत नहीं है.
गांधी ने क्या सिखाया?
हम ब्रह्मचर्य पर उनके विचार को पसंद नहीं कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम उनके दूसरे आदर्शों को भी नापसंद ही करें. वे शुद्धता हासिल करने की जगह शांतिपूर्ण अस्तित्व को तरजीह देते थे, यह एक तरह से धोखा देने जैसा भी माना जा सकता है.

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गांधी को मानने के लिए हमें टोपी या धोती पहनने की ज़रूरत नहीं है और ना ही ब्रह्मचर्य को अपनाने की ज़रूरत होगी. लेकिन हमें किसी से घृणा की ज़रूरत नहीं है. अगर हम घृणा से भरे हों और गांधीजी को मानते हों तो हमारे अंदर से घृणा ग़ायब होने लगेगी और शांति महसूस करने लगेंगे.
आज की राजनीति एकदम अलग तरीक़े की हो गई है जहां घृणा और असुरक्षा की भावना को बढ़ावा देकर उसे जीने का रास्ता बना दिया गया है.
गांधीजी जिस तरह हृदय से डर निकालने में कामयाब रहे, उस हद तक कायमाब शायद ही कोई दूसरा होगा. जो नेता ख़ुद ही कई सुरक्षाकर्मियों से घिरा हो वह लोगों को कैसे निडर बना सकता है? ऐसे नेता केवल डर का भाव सिखा सकते हैं.
गांधीजी को मौत से कभी डर नहीं लगा और ना ही उनमें सत्ता की भूख थी. भारत के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया भर के लिए उन्होंने लोगों को घृणा नहीं करना सिखाया. उन्होंने प्यार से संघर्ष करना और निराश हुए बिना संघर्ष करना सिखाया.

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गांधी की राह
गांधीजी की अहिंसा ने हमें बिना किसी हिंसा के बहादुरी से लड़ना सिखाया. अगर यह संभव नहीं हो तो उन्होंने हाथ उठाने की सलाह भी दी थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लोग भीड़ बनकर किसी पर हमला कर दें. वे गायों को भी ख़ूब प्यार करते थे लेकिन उनका प्यार गायों की देखभाल करना था. इसका मतलब यह कभी नहीं था कि गायों की सुरक्षा के नाम पर आप किसी की हत्या कर दें.
उनके अपने जीवन काल में ही भूख हड़ताल और सत्याग्रह जैसे विरोध के तरीक़े बहुत प्रभावी नहीं रह गए थे. बावजूद इसके इन्हें आज भी गांधीजी की सबसे अहम विरासत के तौर पर देखा जा सकता है. अन्याय के ख़िलाफ़ अहिंसक संघर्ष के तौर पर इसे अपनाया जा सकता है.
हमें यह मानने की ज़रूरत भी नहीं है कि गांधीजी के पास दुनिया की सभी समस्याओं के हल थे. उनका प्रेम, त्याग, दूसरों पर भरोसा और सहअस्तित्व का संदेश आज के असुरक्षित समय और कलह से भरी दुनिया में प्रासंगिक हैं.
उनकी राह मानवता, सहअस्तित्व, दृढ़ मनोबल और शांति की राह है. इन्हीं रास्तों पर चलने वाले कई लोग ऐसे भी होंगे जिन्होंने न तो गांधीजी को पढ़ा होगा और न ही उनके बारे में सुना होगा.
ऐसा भी नहीं है कि गांधीजी ने ये रास्ते बनाए हैं. ये पहले से मौजूद थे लेकिन उन्होंने इसे फिर से चलन में लाकर हमें बताया है कि ये रास्ते हैं. इन्हें अपनाना ज्यादा महत्वपूर्ण है. हम इसके लिए गांधीजी को श्रेय दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते हैं लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि हम उस राह को अपनाएं.
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