'कश्मीर घाटी में अनुच्छेद 370 गया, अपनी इंसानियत को ना जाने दें': नज़रिया

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- Author, अनिकेत आगा और चित्रांगदा चौधुरी
- पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए
बीते शनिवार की दोपहर, श्रीनगर में एक परिवार अपने टीवी सेट से चिपका हुआ था. वे सब यह जानने के लिए बेचैन थे कि क्या सरकार 12 सांसदों के प्रतिनिधिमंडल को उनके शहर आने की इजाज़त देगी.
सरकार का इन सांसदों पर आरोप है कि वे "पाकिस्तान के एजेंडे को बढ़ावा दे रहे हैं" और "नॉर्मलसी (सामान्य हालात)" को बाधित कर रहे हैं. टीवी का एक उत्तेजित न्यूज़ एंकर इन आरोपों को बढ़ावा दे रहा था.
समाचार में आगे दिखाया गया कि सरकार सांसदों के प्रतिनिधिमंडल को वापस दिल्ली भेज रही है. यह देखने के बाद कमरे में मौजूद चेहरे मुरझा गए. इनमें एक लेक्चरर भी थीं. उन्होंने बेसाख़्ता कहा, मानो एंकर को जवाब दे रही हों- "हां, कश्मीर में नॉर्मलसी है, वैसी ही नॉर्मलसी जैसी क़ब्रिस्तान में होती है."
कश्मीर यात्रा के दौरान 'सामान्य हालात' हमें कुछ इस शक़्ल में दिखे- सुनसान मोहल्लों, गलियों और पुलों पर सुरक्षाबलों के जवान तैनात हैं. कर्फ्यू, हड़ताल और डर की वजह से दुकानें और कारोबार बंद पड़े हैं.
स्कूलों में बच्चे नहीं हैं, कॉलेज खाली हैं और पैरामिलिट्री के जवान इनके दरवाज़ों पर खड़े हैं. आवाजाही पर पाबंदियां है. परिवहन, पोस्टल, कुरियर, मोबाइल, इंटरनेट सेवाएं और ज़्यादातर लैंडलाइन फोन बंद हैं.
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दर्द, ग़ुस्सा और अविश्वास
यह घाटी की हमारी निजी यात्रा थी जिसकी योजना हमने महीनों पहले बना ली थी. फिर अगस्त की शुरुआत में कश्मीर में अतिरिक्त पुलिस बल तैनात किए जाने लगे, बंद जैसी स्थिति हुई और सरकार ने अनुच्छेद-370 के प्रावधानों और 35-ए को निरस्त करने का फ़ैसला लिया. जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने का फैसला भी लिया.
दोस्तों और रिश्तेदारों ने हमें अपनी यात्रा रद्द करने की सलाह दी. लेकिन हमें लगा कि जब कश्मीर घाटी लोहे के पर्दे में है, वहां लोगों के बीच जाना और भी अहम है. खासकर इसलिए, कि हम में से एक उत्तर भारत के कश्मीरी पंडित परिवार से है.
जब तक हम वहां रहे, लोगों की बातों में बेहद दर्द, ग़ुस्सा और अविश्वास देखने को मिला. 'विश्वासघात' और 'घुटन'... ये शब्द सबसे ज़्यादा सुनने को मिले. पर हालात से नहीं हारने का जज़्बा भी दिखा और असुरक्षा से निपटने के लिए डार्क ह्यूमर भी.
साथ ही दिखा बहुत सारा डर. हम करीब 50 लोगों से मिले. इनमें से ज़्यादातर लोगों ने अपनी पीड़ा ज़ाहिर करते हुए कहा कि हम उनके नाम ना बताएँ.
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गहरा अंधकार!
दक्षिण कश्मीर में सेब उगाने वाले एक हताश किसान ने कहा, "हमारे दिलो-दिमाग़ में कोई चैन नहीं है. हम परेशान हैं कि आगे क्या होगा. मैं भारत के लोगों से अपील करता हूं कि वे हमारा दर्द समझें. हम भी शांति के लिए तरसते हैं."
करीब घंटे भर चली हमारी इस बातचीत के दौरान उनकी चार साल की बेटी सूनी आंखें लिए चुपचाप बैठी रही.
भारत सरकार के जिस फैसले को 'साहसिक और निर्णायक' बताया जा रहा है, उसका सीधा असर यहां लोगों के जीवन पर पड़ा है. सरकार के कदम और भविष्य की रणनीति के बारे में जवाबदेही और पुख़्ता सूचनाओं का ज़बरदस्त अभाव है.
श्रीनगर के डाउनटाउन में एक नौजवान महिला ने हमसे पूछा, "हमारे सभी लीडरों को घरों में नज़रबंद कर दिया गया है या फिर उन्हें जेल भेज दिया गया है. अवाम कहां जाएगी? हम अपना दर्द किसे बताएं?" और एक महिला ने कहा, "हमें जैसे गहरे अंधकार में छोड़ दिया गया है."
जैसी ख़बरें बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स और द क्विंट ने दी हैं, सरकार ने बड़े स्तर पर बच्चों समेत लोगों को हिरासत में लिया है. लोगों में डर है कि अगला नंबर किसका होगा. कई स्थानीय पत्रकारों ने अधिकारियों और अपने कश्मीर से बाहर स्थित न्यूज़रूम्स की ओर से सेंसरशिप और धमकियों की कहानियां सुनाईं. नतीजा यह है कि जो वे देख रहे हैं, उसे पूरी तरह से रिपोर्ट नहीं कर रहे हैं. मीडिया के लिए कर्फ्यू पासेस के आंकड़े इस हकीकत को छिपाते हैं.
सरकार के इस फैसले पर लोगों के मन में एक नाइंसाफ़ी का भाव है. ऊपर से उनका गुस्सा है कि बंदूक की नोक पर उन्हें चुप करा दिया है. सरकार ने जिस समय यह फ़ैसला लिया है, उसको लेकर भी कटुता है.
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रोजगार और बाज़ार में छाया सन्नाटा
यह पर्यटन का सबसे अच्छा समय था. पर्यटकों को वापस भेज दिए जाने से स्थानीय लोगों की आमदनी बुरी तरह से प्रभावित हुई है. ईद के लिए बेकरियों ने लाखों रुपये के सामान तैयार किये, जो ऐसे ही पड़े हैं.
घाटी में शादी का मौसम है लेकिन शादियां स्थगित हो रही हैं. कश्मीर के वाज़े (ख़ानसामे) और उनके कारीगर साल के उन महीनों में ख़ाली हैं, जिनमें उनकी सबसे ज़्यादा कमाई होती है.
नाशपाती और सेब उगाने के लिए मशहूर शोपियां ज़िले के बाज़ारों और फलों से लदे बागों में हमने सन्नाटा देखा. इस मौसम में व्यस्त रहने वाले इस इलाक़े को हर रोज़ करोड़ों का नुकसान हो रहा है. नोटबंदी की तरह, लगता नहीं कि यहां की अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान का कोई हिसाब बताया जाएगा.
कई लोग भारत सरकार ही नहीं, भारतीयों से भी विश्वासघात महसूस कर रहे हैं. श्रीनगर डाउनटाउन में कुछ लोगों ने हमसे पूछा, "इतने दिन हो गए हैं. इतने सारे हिंदुस्तानी अब तक चुप क्यों हैं? क्या उन्हें इस झूठ से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता?'
और एक व्यक्ति ने कहा, "यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को भी हमारी परवाह नहीं है." उम्र के छठे दशक में चल रहे एक मैनेजर ने दुखी मन से कहा, "ज़िंदगी भर मैं भारत के साथ रहा, हमेशा भारतीय लोकतंत्र के पक्ष में दोस्तों से बहस करता रहा. लेकिन अब नहीं." कई ने ये चिंता भी ज़ाहिर की कि भारतीय लोकतंत्र कहां जा रहा है.
पूरे इलाक़े में संचार साधनों पर रोक लगने से लोगों के जीवन पर व्यावहारिक और भावनात्मक असर पड़ा है, जिसकी परवाह न सरकार कर रही है और न ही हम आम लोगों का ध्यान उस ओर जा रहा है.
कल्पना कीजिए कि आपके परिजनों से आपका संपर्क कट जाए और आप उनके हवाले से बेहद परेशान हों. या फिर बिना फोन और इन्टरनेट एक हफ्ता काटने की कोशिश कीजिए.
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अकेलापन
बीते 26 दिनों से जम्मू-कश्मीर के लाखों लोगों का यही हाल है और उन्हें किसी राहत की उम्मीद नज़र नहीं आती. एक नौजवान ने हमें सौ रुपये देते हुए निवेदन किया कि हम यह पैसा बैंक खाते में डाल दें ताकि उसका भाई परीक्षा की फ़ीस जमा कर पाए.
एक और नौजवान ने कहा, "आने वाले दिनों को लेकर डर बढ़ता जा रहा है. दिन काटना मुश्किल हो रहा है. हर चीज़ बंद है और इंतजार करने के सिवा कोई चारा नहीं है."
अपनी बेटी और नवासे से 20 दिनों से बातचीत नहीं कर सकी एक महिला ने कहा, "सरकार ने दुनिया से हमारा संपर्क काट दिया है. कितना अकेला बनाकर रख दिया है हमें."
एक बुज़ुर्ग वकील ने बताया कि उनके एक चहेते रिश्तेदार गुज़र गए और ये ख़बर उन्हें चार दिन बाद मिली. कई घरों में हमें टीवी पर दो उर्दू चैनल चलते दिखाई दिए. दिन भर टिकर पर वे संदेश चलाते रहते हैं जो कश्मीर से बाहर रहने वाले बच्चे और परिवार के दूसरे लोग भेजते हैं.
ज़्यादातर संदेशों में लिखा था: "हम लोग ठीक हैं. आप हमारी चिंता ना करें. अल्लाह आपको सुरक्षित रखे."
भविष्य को लेकर हमने किसी में उम्मीद या खुशी का भाव नहीं देखा, नौजवानों में भी नहीं. शोपियां ज़िले के एक नौजवान ने डर ज़ाहिर किया कि सरकार के फैसले से आम कश्मीरी हाशिए पर चले जाएंगे और चरमपंथियों की "बंपर फसल तैयार होगी", जिससे इलाके में संघर्ष और रक्तपात का नया दौर शुरू होगा.
शहर के एक कविता प्रेमी शिक्षक ने कहा, "हमारे जैसे लोग चुप रहेंगे. यह सोचकर कि क्या पता, कौन हमारी बात सुन रहा हो. और उसका क्या नतीजा हो, चरमपंथियों की तरफ से या फिर सुरक्षा बलों की तरफ से."
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एहसास और उम्मीद
श्रीनगर के एक बुज़ुर्ग कश्मीरी पंडित स्कूली शिक्षक का कहना था, "कश्मीर को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं है. ना कभी रही है. हम कश्मीरियों को लगातार इसका नतीजा भुगतना पड़ा है."
कश्मीरियों से गरिमा, सम्मान और स्वायत्तता की अपील सुनते हुए, हमें यही एहसास हुआ कि वे लोग भारतीयों को अभी भी अपने जैसा इंसान समझते हैं. भले ही मौजूदा स्थिति में भारतीयों से ऐसा एहसास नहीं आ रहा हो.
सरकार का "ज़ुल्म" और भारतीय टीवी चैनलों पर कश्मीर की घृणास्पद कवरेज- इनसे भड़के हुए लोगों ने भी हमें चाय का न्योता दिया. कई मौक़ों पर जब उन्हें मालूम हुआ कि हममें से एक कश्मीरी है, तो मेहमाननवाज़ी और बढ़ गई.
जितने लोगों से हम मिले, अधिकांश ने अलविदा कहते वक़्त अपनेपन से हाथ मिलाया, या फिर प्यार से गले मिले. कुछ मौक़ों पर सुरक्षाबलों के लिए भी सहानुभूति देखने को मिली. श्रीनगर में एक नौजवान ने सुरक्षा बल के जवानों की ओर इशारा करते हुए कहा, "उनके तनाव से खिंचे हुए चेहरे देखिए. हम जेल में हैं और वो भी."

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घाटी छोड़ते वक़्त हमने लोकतंत्र को बनाने वाले संस्थानों की स्थिति से खुद को व्यथित महसूस किया. और यह भी सोचा कि कितनी आसानी से हम लोगों ने जम्मू कश्मीर के लोगों और उनके उत्पीड़ित इतिहास को एक 'मस्क्युलर नैरेटिव' से जोड़ दिया है. वो नैरेटिव जो भारत सरकार और भारत के अधिकतर न्यूज़ चैनलों ने बनाया है. हमारी वापसी ने हमें याद दिलाया कि हमारा नज़रिया बदनाम है.
सरकार अपने हर क़दम को फ़ायदेमंद बता रही है. बातचीत और असहमति को कोई महत्व नहीं दे रही. हमें बताया जा रहा है कि संचार के ठप रहने से स्थिति के सामान्य होने में मदद मिल रही है.
घाटी में हर सात आम लोगों पर सुरक्षा बल का एक जवान तैनात है, और उनकी मौजूदगी चरमपंथ से लड़ने के लिए ज़रूरी बताई जा रही है. टीवी चैनल इसे राष्ट्र की जीत बता रहे हैं. बड़ी संख्या में भारतीय इस चित्र को स्वीकार कर रहे हैं, या तो उत्साह के साथ, या फिर बिना किसी सवाल के.
इस सब में, शायद हमें इस बात की परवाह नहीं है कि 'एकीकरण' के नाम पर, सैन्य घेराबंदी करके, आम कश्मीरी की आवाज़ ख़ामोश कर उनके दर्द को नज़रअंदाज़ करके, हम अपनी इंसानियत की तिलांजलि दे रहे हैं.
(अनिकेत आगा अध्यापक हैं. चित्रांगदा चौधुरी एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं)
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