ग़रीबों की पहुंच से दूर होता जा रहा है पानीः ग्राउंड रिपोर्ट

जल संकट

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    • Author, पूनम कौशल
    • पदनाम, मथुरा, अलीगढ़ से बीबीसी हिंदी के लिए

सात माह की गर्भवती नीतू तेज़ रफ़्तार क़दमों से गांव से दूर जंगल में लगे नल की ओर चली आ रही है. वो अपनी जेठानी के साथ पानी भरने आई हैं.

उन्हें जल्दी-जल्दी दो घड़े पानी भरकर लौटना है ताकि घर का बाकी काम कर सकें.

दिन में तीन बार क़रीब दो किलोमीटर दूर स्थित मीठे पानी के नल से पानी भरना उनका रोज़ का काम है. गर्भावस्था में भी उन्हें इससे फ़ुरसत नहीं मिल सकी है.

उत्तर प्रदेश के मथुरा ज़िले के गोवर्धन इलाक़े के कई गांवों में पीने के पानी की समस्या है. नीम गांव भी इनमें से एक है.

सिर्फ़ गर्भवती नीतू ही नहीं इस गांव की बच्चियां, महिलाएं और बूढ़ी औरतें पानी ढोने के लिए अभिशप्त हैं.

यहां ज़मीन के नीचे का पानी खारा है. इसे न पिया जा सकता है और न ही इससे नहाया धोया जा सकता है.

ममता पंद्रह साल पहले नीम गांव में ब्याही थीं. रोज़ पानी ढोना उनकी भी नियति बन गई है.

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इमेज कैप्शन, मनीम गांव की रहने वाली ममता.

वो कहती हैं, "एक ही नल है, खारो पानी है सबरो. पीने कू, लत्तन कू, कपड़न कू, भैसन कू यहीं ते ले जावें, बहुत दिक्कत है.अपने घर ते काम, बालकन को छोड़ ते यहां आवें. दो-दो किलोमीटूर दूर आनो पड़ै है. यहां पानी भरने के लिए एक-एक, डेढ़-डेढ़ घंटा बैठना पड़ै है. "

''पानी ढोत-ढोत सर के बाल उड़ गए. हम औरतन की न प्रधान सुनै न सरकार सुनै, कोई न सुनै."

गांव में सिंचाई के लिए आई एक संकरी नहर के पास एक कुंआ और एक नल है. कुएं पर गांव के लोग नहाते धोते हैं और नल से महिलाएं घर के लिए भानी भर ले जाती है.

कभी-कभी यहां इतनी भीड़ हो जाती है कि मारपीट की नौबत तक आ जाती है. आठ हज़ार की आबादी के इस गांव में आज तक सरकारी पानी की टंकी नहीं पहुंच सकी है.

वो कहती हैं, "ये नीम गांव है, यहां पानी की प्यासी दुनिया मरती है. परदेसी मरते हैं इस गांव में पानी के प्यासे. यहां की बेटियां पानी ढोते-ढोते मर जाएंगी. लेकिन यहां पानी की सुविधा नहीं दिखेगी."

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इमेज कैप्शन, तसेवीर में दाईं ओर सलमा

सलमा जैसी गांव की लगभग सभी युवतियों को सुबह-शाम पानी ढोना होता है. वो कहती हैं कि कई बार एक ही चक्कर में दो-दो घंटे तक लग जाते हैं क्योंकि पानी भरने का नंबर ही नहीं आ पाता है.

गांव के कुछ संपन्न परिवार पीने के लिए फ़िल्टर का पानी ख़रीद सकते हैं और नहाने धोने के लिए टैंकर से पानी मंगा सकते हैं.

यहां एक टैंकर पानी तीन सौ रुपए का आता है. जिन परिवारों की आर्थिक हालत बहुत बेहतर नहीं है उन्हें भी ये ख़रीदना पड़ता है. पानी ने कई परिवारों का बजट ख़राब कर दिया है.

दोपहर बीतते ही नल पर महिलाओं की भीड़ लगनी शुरू हो जाती है. दो-दो, चार-चार महिलाओं के समूह मीठे पानी के नल की ओर दौड़ते दिखते हैं. पानी ढोने का असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर साफ़ नज़र आता है.

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केंद्र सरकार की कई योजनाएं गांव तक पहुंची हैं. यहां बिजली भी आती है और पक्की सड़क भी गुज़रती है. मुफ़्त में सरकारी गैस सिलेंडर मिलने की योजना के बारे में भी यहां की महिलाओं को जानकारी है.

एक महिला कहती है, "सरकार हमें सिलेंडर दे न दे फ़र्क नहीं पड़ेगा. पानी दे दे बहुत फ़र्क पड़ेगा. पानी की ज़रूरत तो मुर्दों को भी होती है. जब इंसान मरता है तो उसके मुंह में सिलेंडर या गैस नहीं डालते. पानी ही डालते हैं. हम पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे हैं."

गांव में पानी के संकट का सबसे ज़्यादा बोझ भी महिलाओं पर ही पड़ा है. ये पूछने पर कि पुरुष पानी भरने क्यों नहीं आते एक महिला कहती है, "अगर आदमी पानी भरने आएंगे तो परिवार का पेट भरने के लिए काम कौन करेगा."

नीम गांव की महिलाएँ

नीम गांव की मीना ने इस बार बारहवीं के इम्तिहान दिए हैं. वो कहती हैं, "पानी भरने के लिए कई चक्कर लगाने पड़ते हैं. स्कूल को देर हो जाती है. घर पर भी पढ़ाई का पूरा समय नहीं मिल पाता है. बच्चियों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है."

नीम गांव के लोगों को युवा प्रधान योगेश से बहुत उम्मीदें हैं. योगेश कहते हैं कि गांव में टंकी लगाने में ढाई करोड़ से कुछ अधिक का ख़र्च आ रहा है जो ग्राम प्रधान के बजट से बाहर है.

वो कहते हैं, "हमने प्रस्ताव मंज़ूर करके टंकी के लिए जगह दे दी है. ज़िलाधिकारी और स्थानीय नेताओं ने जल्द टंकी लगवाने का भरोसा दिया है. लेकिन हमें कई साल से सिर्फ़ भरोसा ही मिल रहा है. उम्मीद है सरकार हमारे गांव की महिलाओं का दर्द समझेगी."

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इमेज कैप्शन, गांव के प्रधान योगेश

आसपास के गांवों में भी पानी की ऐसी ही किल्लत है लेकिन वहां टंकी लग जाने या निजी पाइपलाइन बिछ जाने की वजह से लोगों की ज़िंदगी कुछ आसान हुई है. इसी क्षेत्र के सहार गांव में पंद्रह दिनों तक पानी नहीं आया तो लोगों को सड़क पर उतरकर पानी के लिए प्रदर्शन करना पड़ा. अब यहां पानी आया है. लेकिन पानी बचाने की जागरुकता नहीं आई है.

इस गांव में कई लोग सरकारी नल से आ रहे पानी से बाइक धोते और भैंसों को नहलाते हुए दिखाई दिए. जो गांव चार दिन पहले ही पानी की बूंद बूंद के लिए तरसा है वहां भी पानी बचाने के प्रति जागरुकता नहीं है.

मथुरा के स्थानीय पत्रकार सुरेश सैनी कहते हैं, "बृज क्षेत्र में खारे पानी की बहुत बड़ी समस्या है. ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं को कई-कई किलोमीटर से सर पर ढोकर पानी लाना पड़ता ह. ज़िला प्रशासन ने इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम अभी नहीं उठाया है. सांसद हेमा मालिनी ने इस पर कई बार चिंता ज़रूर ज़ाहिर की है लेकिन कोई ठोस काम उन्होंने भी नहीं किया है. जनता हर साल की तरह इस साल भी बेहाल है."

मथुरा के इन गांवों की ये समस्या प्राकृतिक है. यहां मीठा पानी ज़मीन के नीचे कम ही जगहों पर उपलब्ध है.

लेकिन यहां से क़रीब सत्तर किलोमीटर दूर अलीगढ़ की दलित बस्ती डोरी नगर में भी विकट जल संकट है. लेकिन यहां वजह प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित है.

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गंगा और यमुना के बीच दोआब क्षेत्र का इस इलाक़े में कभी जल संकट नहीं रहा है. लेकिन अब यहां भी पानी की किल्लत होने लगी है.

यहां लगे सरकारी हैंडपंप सूख गए हैं. भूमि जल दोहन के लिए जो निजी सबमर्सिबल पंप लोगों ने लगाए थे उनसे भी पानी नहीं आ रहा है.

डोरी नगर की रहने वाली मीना के परिवार ने बीस हज़ार रुपए क़र्ज़ लेकर घर में सबमर्सिबल पंप लगवाया था ताकि पानी सहजता से उपलब्ध हो सके.

लेकिन जलस्तर नीचे गया तो अब उनके और आसपास के घरों के सबमर्सिबल ने पानी छोड़ दिया है. यहां के लोग बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं.

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इमेज कैप्शन, तस्वीर में मध्य में मीना

मीना ने सौ रुपए महीना शुल्क वाला नगर पालिका का नल भी लगवाया है लेकिन उससे भी पानी नहीं आता है.

वो कहती हैं, "दो सौ फीट वाले बोरिंग पर अब अस्सी हज़ार रुपए ख़र्च होंगे. न हमपे अस्सी हज़ार रुपए होंगे और न ही घर में पानी आएगा."

यहां रहने वाली लगभग सब औरतों की कहानी ऐसी ही है. आसपास की गलियों में दर्जनों सरकारी हैंडपंप लगे हैं लेकिन पानी किसी से नहीं आ रहा है.

सुनिता कहती हैं, "हमने सरकारी टंकी लगवा रखी है, खामखां का बिल आता है हर महीने लेकिन पानी नहीं आता. सरकारी हैंडपंप भी सूख गए हैं. घर में सबमर्सिबल है लेकिन उसमें भी पानी नहीं. बूंद-बूंद पानी के लिए चारों ओर डोलते हैं. कहीं पानी नहीं मिलता. पीने के लिए तक पानी नहीं है. हम क्या करें, यहां से कहां जाएं?"

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डोरी नगर में ही रहने वाली प्रेमवती कहती हैं, "न बच्चों के नहाने के लिए पानी है, न पीने के लिए. पानी बिना तो कुछ भी नहीं है. लेकिन हमारी समस्या कोई समझे तो."

प्रेमवती की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए एक और महिला कहती हैं, "इतनी गर्मी पड़ रही है, न नहाने को पानी है न कपड़े धोने को. तीन-चार दिनों तक गंदे कपड़े पहने रहते हैं. क्या करें, जानवरों की तरह नाली में डूब जाएं?"

''हमें कुछ और नहीं चाहिए बस पानी चाहिए. पहले हाथ के नल थे. उनका पानी चला गया. फिर सबमर्सिबल लगाए अब उनका भी पानी चला गया. सबसे ज़्यादा ज़रूरत पानी की ही है. आटा पानी से ही गुथेगा. सब्ज़ी पानी से ही बनेगी. सूखा आटा खा लें क्या. सूखी रोटी खाएं तो बिना पानी के वो भी गले में अटक जाए.''

डोरी नगर के इस इलाक़े में हमेशा से हालात ऐसे नहीं थे. पिछले साल तक यहां सबमर्सिबल पानी दे रहे थे और लोगों को जल संकट का आभास तक नहीं था.

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इसी बस्ती में रहने वाले धर्मवीर सिंह बताते हैं कि पहले हाथ के नल पानी दिया करते थे. वो कहते हैं, "हम यहां 90 के दशक से रह रहे हैं. पहले यहां पचास फ़ीट पर पानी था. फिर सौ फ़ीट पहुंचा और अब तक सबमर्सिबल ने भी पानी देना बंद कर दिया. पता नहीं पानी कहां चला गया है. कुछ समझ नहीं आ रहा."

यहीं के रहने वाले और गुजरात में सरकारी सेवा में कार्यरत मनोज कुमार सूखा पड़ा एक हैंडपंप दिखाते हुए कहते हैं, "ये नल अब चालू हालत में नहीं है. लेकिन आज से दस बरस पहले यहां साठ फ़ीट पर पानी था और लोग यहां से पानी भरते थे. लेकिन अब स्थिति ये है कि पानी दो सौ फ़ीट पहुंच गया है और हैंडपंप से पानी निकालना संभव नहीं है. अब सबमर्सिबल से ही पानी लिया जा सकता है. लेकिन सबमर्सिबल लगाना गरीबों के बजट के बाहर है."

वो कहते हैं, "पानी ज़मीन के बहुत नीचे जा चुका है. ये अब आम आदमी, गरीब आदमी, मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से दूर जा चुका है. जैसे और विलासिता की चीज़ें आम आदमी की पहुंच से दूर हैं वैसे ही पानी भी अब विलासिता की वस्तु बनता जा रहा है. पानी ग़रीब आदमी की पहुंच से दूर हो रहा है."

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इमेज कैप्शन, अरविंद कुमार

डोरी नगर एक घनी आबादी की बस्ती है जहां जल के अत्यधिक दोहन से पानी नीचे चला गया है. यहीं से कुछ ही दूर स्थित भदेस गांव में सबमर्सिबल पंप अभी पानी दे रहे हैं.

यहां दुकान पर बैठे अरविंद कुमार कहते हैं, "हमारे यहां पानी की अभी कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन यहां लोग पानी बहुत बर्बाद करते हैं. बाइक धोने में ही कई सौ लीटर पानी बहा देते हैं. भैंसें धोते रहते हैं. नहाने में सैकड़ों लीटर पानी बहा देते हैं. सबमर्सिबल चलते रहते हैं. नाली में पानी बहता रहता है. किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता."

उत्तर प्रदेश भू-जल विभाग में आगरा मंडल के वरिष्ठ जियोफ़िजिसिस्ट धर्मवीर सिंह राठौर कहते हैं, "जल संकट से निबटने के लिए सरकार को ठोस क़दम उठाने होंगे. सिर्फ जागरुकता ही अब इसका समाधान नहीं है."

वो कहते हैं, "जनसंख्या लगातार बढ़ रही है जिससे भारत में जल का दोहन भी बढ़ रहा है. जब तक जनसंख्या नियंत्रित नहीं होगी जल संकट और बढ़ता रहेगा."

वो कहते हैं, "भारत अमरीका और चीन से पांच गुणा अधिक भू-जल का दोहन करता है. अमरीका और चीन के पास भारत से ज़्यादा तकनीक है लेकिन तकनीकी रूप से विकसित ये देश भी बहुत सोच-समझकर अपने भू-जल का इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन हम बस लगातार दोहन ही करते जा रहे हैं."

राठौर कहते हैं, "बारिश के जल को संरक्षित करना इसका समाधान हो सकता है. इसराइल बारिश की एक-एक बूंद को संरक्षित करता है. हमें भी ऐसा ही करना होगा. ये सुनिश्चित करना होगा कि हम बारिश के पानी को अत्याधिक संरक्षित कर सकें. घरों की छतों पर पड़ने वाले पानी को, सड़कों पर पड़ने वाले पानी को, बड़ी इमारतों पर पड़ने वाले पानी को पिट बनाकर सीधे ज़मीन के नीचे भेजना होगा."

अलीगढ़ और मथुरा के जल संकट के बारे में वो कहते हैं, "यहां भूजल के अत्याधिक दोहन से संकट पैदा हो रहा है. लेकिन अभी भू जल दोहन पर कोई क़ानून नहीं है. अंडरग्राउंट वॉटर विधेयक पर काम चल रहा है. इस विधेयक में पानी बचाने और संरक्षित करने को लेकर कई प्रावधान हैं जो कारगर साबित हो सकते हैं."

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राठौर कहते हैं, "बहुत से लोग अभी के जल संकट से डर रहे होंगे. लेकिन जिस दिशा में हम बढ़ रहे हैं, इससे भी भीषण जल संकट आने वाला है. अलीगढ़ जैसे क्षेत्र में पानी दो सौ से अधिक फ़ीट नीचे चला गया है. अभी पेड़ों को ज़मीन से पानी मिल पा रहा है. ज़रा कल्पना कीजिए कि हालात अगर ऐसे ही बदतर होते रहे और पेड़ों को भी जड़ों से पानी नहीं मिला तो क्या होगा? तब हम क्या करेंगे. इंसान अपने पानी का इंतज़ाम कर सकता है. लेकिन पेड़ कैसे करेंगे. और जब इंसान के पास अपने पीने के लिए पानी नहीं होगा तो वो पेड़ पौधों को पानी पिला पाएगा क्या?

गांव गांव में जल ही जीवन है और जल है तो कल है जैसे नारे दीवारों पर पुते नज़र आते हैं. राठौर कहते हैं कि सिर्फ़ नारे देने से जल संकट हल नहीं होगा.

वो कहते हैं, "रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में लगे आम आदमी से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो जल को बचाने के बारे में सोचेगा. जल बचाने का बजट सरकार को बचाना होगा. जिस तरह सड़कों के लिए, शिक्षा के लिए बजट निर्धारित होता है उसी तरह जल संरक्षित करने के लिए भी बजट निर्धारित होना चाहिए."

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मथुरा के नीम गांव और अलीगढ़ के डोरी नगर से भी भयावह जल संकट इस समय देश के कई बड़े हिस्सों में है. भीषण गर्मी में आधी से ज़्यादा आबादी बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रही है.

लेकिन इन दो इलाक़ों का जल संकट ये स्पष्ट संकेत मिलता है कि जैसे-जैसे ये संकट बढ़ेगा, पानी ग़रीबों से और दूर होता जाएगा. जिनके पास पैसा होगा वो पानी ख़रीद लेंगे लेकिन जिनके पास नहीं होगा वो क्या करेंगे, कहां जाएंगे?

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