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प्रधानमंत्री मोदी की बायोपिक की कहानी कितनी सच्ची
- Author, केविन पोन्नईया
- पदनाम, बीबीसी न्यूज, दिल्ली
"हिंदुस्तान आतंक से नहीं, आतंक हिंदुस्तान से डरेगा."
कश्मीर के बर्फीले इलाक़े में सैनिकों की टुकड़ी के साथ पुल पर सबसे आगे एक व्यक्ति हाथ में तिरंगा उठाए चल रहा है, यह संवाद बोलने से ठीक पहले उस व्यक्ति पर चरमपंथी गोलियों की बौछार करते हैं. सैनिक उनपर जवाबी कार्रवाई करते हैं और वह व्यक्ति घुटनों के बल बैठ जाता है मगर तिरंगे को झुकने नहीं देता है.
यह ढाई मिनट के फ़िल्मी ट्रेलर का सबसे दमदार सीन है और हाथ में झंडा उठाए वह व्यक्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. आम चुनावों से पहले इस फ़िल्म ने देश में राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है.
लोकसभा चुनावों के पहले चरण की वोटिंग से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक 'पीएम नरेंद्र मोदी' को सिनेमाघरों में रिलीज करने की योजना है.
05 अप्रैल को इसकी रिलीज डेट रखी गई है लेकिन इससे पहले विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने इस फ़िल्म की रिलीज पर कड़ी आपत्ति जताई है. पार्टी का आरोप है कि इसका निर्माण भाजपा ने करवाया है और वो इसे पार्टी की ओछी राजनीति करार दे रही है.
हालांकि फ़िल्म से भारतीय जनता पार्टी से किसी तरह से जुड़ी नहीं है लेकिन इसके मोदी का किरदार निभा रहे विवेक ओबेरॉय बीजेपी समर्थक रहे हैं. इस महीने की शुरुआत में ट्रेलर लॉन्च के मौके पर एक सवाल के जवाब में उन्होंने पार्टी के एक चुनावी नारे, "मोदी है तो मुमकिन है" को दोहराया था.
फ़िल्म प्रोमोशन से जुड़े कई कार्यक्रमों में भाजपा के वरिष्ठ नेता शिरकत करते नज़र आए हैं.
निर्वाचन आयोग इस बात की जांच कर रहा है कि फ़िल्म रिलीज से आचार संहिता का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है. फ़िल्म के प्रोड्यूसर ने आयोग से कहा है कि इसके निर्माण में उनका पैसा लगा है.
लेखक और निर्माता संदीप सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा कि वो "एक महान व्यक्तित्व" की कहानी देश को बताना चाहते हैं ताकि लोग "इससे प्रेरणा ले सकें."
उन्होंने बीबीसी से कहा, "मुझे राजनीति, राजनेताओं या फिर किसी भी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है. अगर वो (विपक्षी राजनेता) एक फ़िल्म से डरते हैं तो क्या वो अपने काम के प्रति आश्वस्त नहीं हैं जो उन्होंने अपने देश और अपने राज्यों के लिए किया है."
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प्रोपेगेंडा मूवी
अभी तो फ़िल्म का ट्रेलर ही लॉन्च हुआ है, सिनेमाघरों में फ़िल्म का रिलीज होना बाकी है, इससे पहले ही कुछ आलोचक इसे प्रोपेगेंडा मूवी करार दे रहे हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स के फ़िल्म आलोचक राजा सेन ने बीबीसी से कहा, "फ़िल्म रिलीज की टाइमिंग इसे संदिग्ध बनाती है. जनवरी में इसकी शूटिंग शुरू हुई और अप्रैल में यह रिलीज हो रही है. चुनावों से पहले इसे रिलीज़ करना (मोदी की) छवि को भुनाने की कोशिश है और फ़िल्म की यह भी कोशिश होगी कि वो उस छवि का प्रचार करे जो वो चाहती है."
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में दावा किया जाता है कि वो बचपन में रेल गाड़ियों में चाय बेचते थे और वहां से उन्होंने देश के प्रधानमंत्री पद तक की यात्रा की है.
वो दक्षिणपंथी हिंदू संगठन आरएसएस से भी जुड़े रहे हैं और 13 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री भी रहे. उनकी व्यक्तिगत अपील और सख़्त हिंदू राष्ट्रवादी नेता की छवि ने पार्टी को लोकप्रियता दिलाई है.
कई आलोचकों को ट्रेलर का वो सीन चौकाता है जिसमें नरेंद्र मोदी 2002 में हुए गुजरात के दंगों के बाद परेशान और दुखी दिख रहे हैं. दंगों में मारे गए अधिकतर मुसलमान थे.
दंगों के वक़्त नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे और उन पर आरोप है कि उन्होंने इसे रोकने के लिए उचित कदम नहीं उठाए थे.
इसके बाद अमरीका ने उन्हें वीज़ा भी देने से इनकार कर दिया था. हालांकि 68 साल के मोदी हमेशा इन आरोपों को ग़लत बताते रहे हैं.
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काल्पनिक घटनाक्रम
पत्रकार और 2013 में मोदी की जीवनी लिखने वाले नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "यह मोदी के जीवन की एक काल्पनिक कहानी है."
नीलांजन मुखोपाध्याय ने मोदी पर जो किताब लिखी है उसका नाम है 'नरेंद्र मोदीः द मैन, द टाइम्स.'
वो कहते हैं कि जिस सीन में नरेंद्र मोदी सैनिकों के साथ हाथों में तिरंगा लिए चरमपंथियों का मुकाबला कर रहे हैं, वो पार्टी की मौजूदा राजनीतिक भावना से उनके अतीत को जोड़ने की कोशिश कर रहा है.
वो कहते हैं, "इसके विपरीत उन पर आरोप लगे हैं कि दंगों के दौरान मुख्यमंत्री कार्यालय ने मुश्किल घड़ी में सही कदम नहीं उठाए."
1992 में मोदी बतौर बीजेपी कार्यकर्ता तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के साथ उस दक्षिण से उत्तर तक चली उस यात्रा में शामिल हुए थे जिसका समापन कश्मीर घाटी में तिरंगा फ़हराने के साथ हुआ था.
मुखोपाध्याय ने कहा कि इस काफ़िले पर फ़ायरिंग भी हुई थी मगर पंजाब में सिख चरमपंथियों की ओर से.
वो कहते हैं कि पाकिस्तान विरोधी भावना और कठोर कश्मीर नीति मोदी और बीजेपी के चुनाव अभियान के केंद्र में है. ऐसे में प्रधानमंत्री को कश्मीर में चरमपंथ के ख़िलाफ़ जंग में आगे खड़ा दिखाने से देश में काफ़ी लोगों पर असर पड़ेगा.
"वर्तमान के हिसाब से ढालने के लिए उनके इतिहास को बदला जा रहा है."
निर्माता संदीप सिंह ने माना कि भले ही इस फ़िल्म के घटनाक्रम सत्य घटनाओं पर आधारित हैं मगर उन्हें "थोड़ा सा काल्पनिक रूप दिया गया है."
उन्होंने कहा, "हमें यह सुनिश्चित करना था कि दर्शकों को परिस्थिति, दृश्य, फ़िल्म और कैरक्टर सब पसंद आएं."
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राष्ट्रवादी छवि में इज़ाफ़ा
कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने तर्क दिया है कि फ़िल्म को चुनाव के दौरान रिलीज़ नहीं किया जाना चाहिए.
इस फ़िल्म के अलावा 10 एपिसोडों वाली 'मोदी: जर्नी ऑफ़ अ कॉमन मैन' स्ट्रीमिंग प्लैटफ़ॉर्म इरोज़ नाऊ पर अप्रैल में रिलीज़ होने वाली है.
वेब सिरीज़ और फ़िल्म पीएम नरेंद्र मोदी इस तरह की अकेली कृतियां नहीं हैं. ऐसी कई फ़िल्में बनी हैं जो स्पष्ट तौर पर राजनीतिक हैं और वोटों पर असर डाल सकती हैं.
मोदी से पहले प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह के जीवन पर आधारित "दि ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर" इसी साल जनवरी में रिलीज़ हुई थी और इसकी कड़ी आलोचना भी हुई थी. इसे कुछ लोगों ने कांग्रेस की छवि पर प्रहार के तौर पर देखा.
एक और फ़िल्म- उरी- दि सर्जिकल स्ट्राइक में भारत के 2016 के उस कथित सैन्य अभियान का नाट्य रूपांतरण दिखाया था जिसे आर्मी बेस पर हमले के बाद पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में अंजाम दिया गया था.
इस देशभक्ति वाली फ़िल्म का मकसद भी मोदी की राष्ट्रवादी छवि में इज़ाफ़ा करना था. इस फ़िल्म के जारी होने के छह हफ़्ते बाद भारत ने कश्मीर के पुलवामा में सुरक्षाबलों पर एक और हमला होने के बाद पाकिस्तान में हवाई हमले किए थे.
अब बीजेपी के समर्थकों के बीच 'सर्जिकल स्ट्राइक' एक नारा बन गया है. बीते गुरुवार को अपनी एक रैली में प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके अंदर ही "ज़मीन, हवा और अंतरिक्ष में सर्जिकल स्ट्राइक करने की हिम्मत थी."
मगर फ़िल्म निर्माता सत्ताधारी सरकार की ही ख़ुशामद में नहीं जुटे हैं. 'माई नेम इज़ रागा' एक ऐसी फ़िल्म है जो मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के जीवन के बारे में है. फ़िल्म के निर्देशक इसे एक 'कमबैक' यानी शानदार वापसी की प्रेरक कहानी के रूप में प्रचारित कर रहे हैं. ताकतवर क्षेत्रीय राजनेताओं पर भी इस साल कई फ़िल्में आईं.
दशकों तक भारत की फ़िल्म इंडस्ट्री पर सेंसर बोर्ड का नियंत्रण रहा था और अति राजनीतिक फ़िल्में कम ही बना करती थीं. मगर सेन कहते हैं कि हाल के महीनों में जिस तरह से अचानक ऐसी फ़िल्में आई हैं यह बात 'बेहद अनोखी' है.
सेन बताते हैं कि उनकी नज़र में पीएम नरेंद्र मोदी जैसी फ़िल्मों का भले ही शहरी लोग मज़ाक उड़ा लें और मीडिया उनकी आलोचना कर ले मगर "ट्विटर पर वो ही अकेले नहीं हैं जो वोट देते हैं."
वह कहते हैं, "मुख्य बात यह है कि शहरों से बाहर के या फिर देश के कम शिक्षा वाले हिस्सों में रहने वाले लोग अतिश्योक्ति भरे फ़िल्मी नज़ारे से प्रभावित हो सकते हैं."
"क्योंकि लोगों के बीच यह धारणा है कि जो बात सच न हो, वह फ़िल्मों ने नहीं दिखाई जा सकती."
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