बालाकोट हमले पर भरोसे को लेकर उठते ये सवाल

    • Author, फ़ैसल मोहम्मद अली
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

पुलवामा में चरमपंथी हमले और उसके बाद की घटनाओं पर विपक्षी दलों की आवाज़ भले ही दबी-दबी सी रही हो लेकिन बहुजनों में इस पर कई सवाल सुने जा सकते हैं.

दिल्ली के कीर्ति नगर के अवधेश कुमार पाकिस्तान पर भारतीय कार्रवाई को "झूठा, झूठा, झूठा" बताते हैं तो वहीं फुटपाथ के पास काले रंग की मोटरसाइकल पर बैठे जितेंद्र पिप्पल सरकारी दावे को फर्ज़ी क़रार देने में रत्ती भर भी नहीं हिचकते.

"पाकिस्तान को कुछ सबक़ नहीं सिखाया, कोई सबक़ नहीं सिखाया जनाब," 30-35 साल के दिहाड़ी मज़दूर अवधेश कुमार पाकिस्तान को घर में घुसकर सबक़ सिखाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे पर कहते हैं.

अवधेश कुमार, जितेंद्र पिप्पल और उनके दूसरे कई साथी मंगलवार को दिल्ली में आरक्षण, दलितों, मुसलमानों पर लगातार हो रहे कथित हमलों और आदिवासियों को जंगल से बेदख़ल करने की कथित कोशिशों के ख़िलाफ़ हुई रैली का हिस्सा थे.

युद्ध से अलग बातें भी हो रहीं

कई लोगों की राय है कि एक जब नेता और मीडिया भारत-पाकिस्तान तनाव और दोनों तरफ़ के दावों-प्रतिदावों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, दलितों और आदिवासियों की तरफ़ से रोज़गार, जल, जंगल और ज़मीन जैसे मुद्दे का उठना इस बात को इंगित करता है कि पूरा देश युद्धोन्माद में नहीं फंसा है.

हालांकि, बहुजनों के इस कार्यक्रम को कुछ सियासी जमातों जैसे राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी का सर्मथन भी हासिल था लेकिन रैलियों में शामिल अधिकांश लोग सामाजिक संगठनों की कोशिशों या प्रभाव की वजह से आए थे.

"जहां एक पिन लेकर आदमी नहीं जा सकता वहां 250 किलो आरडीएक्स कहां से आ गया? किसकी शह पर आ गया? कौन लेकर आया? और उसको कैसे पता था कि यही गाड़ी बिना बुलेट-प्रूफ़ है और इसी से टकराना है?" दलित कार्यकर्ता बीएस आज़ाद एक ही सांस में सवालों की झड़ी लगा देते हैं.

ये कुछ उसी किस्म के सवाल हैं जैसे कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने भी उठाए हैं और जिसकी वजह से वो भारतीय जनता पार्टी नेताओं, उसके समर्थकों और मीडिया के एक वर्ग के निशाने पर हैं.

पूर्व सेनाध्यक्ष और नरेंद्र मोदी सरकार में विदेश राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने ट्वीट कर लिखा, "रात 3.30 बजे मच्छर बहुत थे, तो मैंने HIT मारा. अब मच्छर कितने मारे, ये गिनने बैठूँ, या आराम से सो जाऊँ?"

सरकार का आश्वासन

वीके सिंह का ये व्यंग्यात्मक जुमला शायद उन विपक्षी नेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए था जिन्होंने भारत की तरफ़ से पाकिस्तान के बालाकोट पर किए हमले में मारे गए लोगों की तादाद पर सरकार से जुड़े लोगों के बदलते बयानों को लेकर सवाल उठाए हैं.

मगर वीके सिंह और मोदी सरकार के दूसरे मंत्रियों के लिए जितेंद्र, आज़ाद, अवधेश, संजीव और उन जैसे बहुजन समाज (राजनीतिक दल नहीं) से जुड़े लोगों के सवालों को हवा में उड़ा देना इतना आसान नहीं होगा.

मंगलवार की रैली के पहले ही केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर का आनन-फ़ानन में बयान आया कि वो दो दिनों में शिक्षण संस्थानों और यूनिवर्सिटियों की नौकरियों में आरक्षण के लिए लागू किए गए नए 13 प्वांइट रोस्टर में बदलाव करने जा रहे हैं.

नए फ़ार्मूले में विश्वविद्यालय या संस्था के बजाय आरक्षण का आधार डिपार्टमेंट्स को मान लिया गया है. चूंकि किसी विभाग की निकलने वाली नौकरियों की तादाद कम होती है, ऐसे में उसमें रिज़र्वेशन लागू करने का चांस ही ख़त्म सा हो गया है.

ख़बर है कि सरकार 13 पॉइंट रोस्टर में बदलाव के लिए अध्यादेश ला सकती है.

ये पहली बार नहीं है कि बहुजन समाज की ओर से हुए विरोध के बाद मोदी सरकार ने पीछे हटकर उनकी मांगों को माना है.

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी उत्पीड़न क़ानून में बदलाव कर दिया था जिसके बाद दो अप्रैल को देश भर में व्यापक आंदोलन हुआ था. इसके बाद सरकार ने इस मामले पर नया क़ानून लाकर अदालत के फ़ैसले को पलट दिया था.

जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में हिंदी की प्रोफ़ेसर हेमलता माहेश्वर पूछती हैं, "प्रोटेस्ट की बात सुनकर क्यों फ़ैसला किया जाता है? क्या सरकार में इस तरह की जनतांत्रिक चेतना नहीं है कि वो लोगों की परेशानियों को पहले ही देख-समझ ले? सरकार का मतलब सिर्फ़ अंबानी-अडाणी हैं या सरकार का मतलब है- देश में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति?"

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