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इंदिरा गाँधी को गेंदे के फूल से चिढ़ क्यों थी- विवेचना
- Author, रेहान फ़ज़ल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
भारतीय राजनीति में गेंदे के फूल का अपना महत्व है. कोई भी राजनीतिक आयोजन या स्वागत समारोह गेंदे के फूल के बिना अब भी संपन्न नहीं होता.
लेकिन भारत की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को गेंदे के फूल से 'एलर्जी' थी और उनके स्टाफ़ को निर्देश थे कि उनका कोई भी प्रशंसक उनके पास गेंदे के फूल ले कर न आ पाए.
बहुचर्चित किताब 'द मेरीगोल्ड स्टोरी- इंदिरा गाँधी एंड अदर्स' की लेखिका और वरिष्ठ पत्रकार कुमकुम चड्ढा बताती हैं, "इंदिरा की पूरी ज़िंदगी में उनके स्टाफ़ की सबसे बड़ी जद्दोजहद होती थी कि गेंदे का फूल इंदिरा गाँधी के नज़दीक न पहुंच जाए. वजह ये थी कि उन्हें गेंदे के फूल पसंद नहीं थे."
वो कहती हैं, "अगर कोई उनके पास गेंदे का फूल ले जाने में सफल हो भी जाता था तो उनकी त्योरियाँ चढ़ जाती थीं."
"लेकिन उनका ये गुस्सा उन लोगों के लिए नहीं होता था जो उनके लिए फूल ले कर आते थे, बल्कि अपने स्टाफ़ के लिए होता था कि उनके रहते ये कैसे संभव हो सका."
गेंदे से ही लिपटा इंदिरा का पार्थिव शरीर
विडंबना है कि जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके पार्थिव शरीर को तीन मूर्ति भवन में लोगों के दर्शनों के लिए रखा गया तो उनके चारों तरफ़ गेंदे के ही फूल थे.
एक समय तो कुमकुम का जी भी चाहा कि वो उठ कर उन फूलों को हटा दें.
वो याद करती हैं, "अगर मेरा बस चलता तो मैं उठ कर उनके पास से गेंदे का हर फूल उठा देती. लेकिन मौक़ा इतना औपचारिक था कि मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाई."
"मैंने धवन की तरफ़ देखा, लेकिन वो भी इतने टूटे हुए थे और बदहवास थे कि उनका भी इस तरफ़ ध्यान नहीं गया. लेकिन अगर इंदिरा गाँधी जीवित होतीं और किसी और के साथ ऐसा हुआ होता वो ज़रूर उठ कर गेंदे के फूल हटवातीं."
इंदिरा गाँधी का 'दर्शन दरबार'
जवाहरलाल नेहरू की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इंदिरा गाँधी भी रोज़ सुबह आठ बज कर बीस मिनट पर आम लोगों से मिला करती थीं. इसे उनका 'दर्शन दरबार' कहा जाता था.
हफ़्ते में कम से कम तीन बार कुमकुम चड्ढा इस 'दर्शन दरबार' में मौजूद रहा करती थीं.
कुमकुम बताती हैं कि नत्थू इंदिरा के पीछे छाता लिए खड़े रहते थे, क्योंकि उन्हें धूप से भी 'एलर्जी' थी.
वो कहती हैं, "इंदिरा इस मौके का इस्तेमाल भारत के आम लोगों से मिलने के लिए करती थीं. कभी कभी जब भीड़ अनियंत्रित हो जाती थी, तो उन लोगों को तरजीह दी जाती थी, जो दिल्ली से बाहर से आते थे."
"इस दरबार में दो तरह के लोग आते थे. एक तो वो जो सिर्फ़ इंदिरा गांधी को देखना भर चाहते थे. दूसरे वो जिन्हें छोटे मोटे काम करवाने होते थे, जैसे सरकारी अस्पताल में किसी का इलाज करवाना."
"बहुत से लोग इंदिराजी के पैर छूने की कोशिश करते थे, हाँलाकि उन्हें अपने पैर छुवाना बिल्कुल पसंद नहीं था. एक बुज़ुर्ग शख़्स रोज़ उनके लिए कच्चा नारियल ले कर आते थे. लोग तिरुपति का लड्डू भी लाते थे. उन्हीं के घर पर पहली बार मैंने तिरुपति का प्रसाद खाया था."
अपने कैबिनेट मंत्री से नाराज़गी
इंदिरा गाँधी हमेशा इस बात का ध्यान रखती थीं कि वो दिखती कैसी हैं. एक बार वो अपने एक कैबिनेट मंत्री से इस बात पर नाराज़ हो गई थीं कि उन्होंने इंदिरा गाँधी के हुस्न की तारीफ़ करने की जुर्रत की थी.
कुमकुम चड्ढा याद करती हैं, "श्रीमति गाँधी के साथ एक 'पर्सनल लाइन' पार करने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था. मैंने उनकी उपस्थिति में लोगों को हँसते हुए भी नहीं देखा. लोग बोलते भी तभी थे, जब वो उन्हें बोलने का 'क्यू' देती थी. मध्यप्रदेश के उनके एक मंत्री ने कैबिनेट बैठक के दौरान उनके सौंदर्य की तारीफ़ कर दी थी. उन्होंने उन्हें तुरंत बाहर का रास्ता दिखाया. बाद में जब उन साहब ने उनके दर्शन दरबार में जा कर अपने किए पर अफ़सोस जताने की कोशिश की, तो इंदिरा गाँधी ने उनकी तरफ़ देखा भी नहीं."
डॉम मोरेस पर गुस्सा
इसी तरह उनके गुस्से का शिकार मशहूर अंग्रेज़ी लेखक डॉम मोरेस को भी बनना पड़ा था. उन्होंने इंदिरा गाँधी की जीवनी लिखी थी, 'मिसेज़ गांधी,' जिसके कुछ अंश उनको पसंद नहीं आए थे.
मशहूर प्रकाशक, पत्रकार और लेखक अशोक चोपड़ा एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार मैं इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी के दफ़्तर में बैठा हुआ था. तभी मैने देखा कि बहहवास से डॉम मोरेस कमरे में घुसे. ऐसा लग रहा था कि उन्हें सांप सूंघ गया हो. वो इंदिरा गाँधी के घर से आ रहे थे. उनके हाथ में इंदिरा गाँधी पर लिखी उनकी ताज़ा किताब थी, जो 'गिफ़्टरैप्ड' थी. वो इंदिरा गाँधी को अपनी किताब 'गिफ़्ट' करने गए थे. उन्होंने सोचा था कि वहाँ राष्ट्रीय प्रेस मौजूद होगी. लेकिन वहाँ सन्नाटा था. उन्हें एक कोने में बैठा दिया गया."
वो कहते हैं, "थोड़ी देर में उनके स्टाफ़ ने कहा कि इंदिराजी तो दफ़्तर जाने के लिए अपनी कार में बैठने जा रही है. आप वहीं जा कर उनसे मिल लीजिए. डॉम दौड़ते हुए वहाँ पहुंचे. डॉम ने इंदिराजी का अभिवादन किया. उन्होंने कहा 'कहिए'. डॉम बोले,' मैं आपको ये किताब देने आया हूँ.' इंदिरा गाँधी ने कहा, 'बुक? व्हाट बुक? मैं कूड़ा-कर्कट नहीं पढ़ती. आप ये किताब वापस ले जाइए.' इतना कह कर इंदिरा अपनी कार में बैठ गईं."
वो बताते हैं, "सारा सीन 10 सेकेंड में ख़त्म हो गया. डॉम ने ये किस्सा खुद हमें सुनाया. अरुण शौरी ने कहा, 'इंदिरा ने आपकी ये किताब लेने से इंकार कर दिया है. आप ये किताब मुझे क्यों नहीं भेंट दे देते.' जब हमने किताब खोली तो उसके पहले पन्ने पर लिखा था, 'टू सब्जेक्ट ऑफ़ दिस बुक, डॉम.' वो किताब अब भी अरुण शौरी के पास होगी."
तिरछी तस्वीर बर्दाश्त नहीं थी इंदिरा को
इंदिरा गाँधी बहुत सफ़ाई और व्यवस्था पसंद थीं. दीवार पर लगी कोई तिरछी तस्वीर उनकी नज़रों से बच नहीं सकती थी.
कुमकुम चड्ढा बताती हैं, "इंदिरा जब अक़बर रोड के अपने ऑफ़िस में जाती थीं, तो चलते-चलते पाँच छह चीज़ें अपने हाथों से ठीक करती जाती थीं. कुर्सी अगर टेढ़ी रखी हो तो उसे भी सीधा करती थीं. उन्हें दीवार पर लगीं तिरछी तस्वीरों से बहुत चिढ़ थी. तस्वीर अगर एक सेंटीमीटर भी तिरछी हो, उनकी नज़रों से नहीं बच सकती थी."
लाइट ऑफ़ करने की सनक
इंदिरा गाँधी की एक सनक और थी. किसी कमरे से निकलने से पहले वो उस कमरे की लाइट ज़रूर ऑफ़ करती थीं और वो भी अपने हाथों से.
एक बार वो बाराबंकी की यात्रा पर थीं. वो वॉशरूम में थी, तभी राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद का उनके लिए फ़ोन आया. उनके साथ गई मोहसिना किदवई ने दरवाज़ा खटखटा कर कहा कि उनके लिए ऱाष्ट्रपति का फ़ोन है.
इंदिरा गाँधी बाहर आईं. लेकिन फ़ोन लेने से पहले उन्होंने मोहसिना से कहा कि जा कर पहले वॉशरूम की लाइट बंद करें, जिसे वो जल्दी में बंद करना भूल गई हैं.
मोहसिना कहती हैं कि मैं ये सुन कर स्तब्ध रह गईं. एक तरफ़ भारत का राष्ट्रपति टेलिफ़ोन पर है और इंदिरा को चिंता थी, वॉशरूम की लाइट ऑफ़ करने की.
आज़मगढ़ का गेस्ट हाउस
इंदिरा गाँधी एक जननेता थीं और आम लोगों से उनका 'क्नेक्ट' ग़ज़ब का था. कांग्रेस नेता मोहसिना क़िदवाई एक किस्सा सुनाती हैं जब 1978 में आज़मगढ़ उप-चुनाव में उनका चुनाव प्रचार करने इंदिरा गाँधी वहाँ गई थीं.
वो कहती हैं, "उस ज़माने में आज़मगढ़ बहुत पिछड़ी हुई जगह थी. आज भी है. न कोई रेस्तराँ, न कोई खाने की जगह. मैंने इंदिराजी के लिए सरकारी गेस्ट हाउस में एक कमरा बुक कराया था. जब हम वहाँ पहुंचे, तो अटेंडेंट कमरा खोलने के लिए तैयार ही नहीं हुआ. उसने कहा, यहाँ मिनिस्टर साहब ठहरेंगे. उनका हुकुम है कि कमरा किसी के लिए न खोला जाए."
वो कहती हैं, "जब कमरा खुलवाने की मेरी सारी कोशिश नाकामयाब हो गई मैंने कहा, तुम्हें मालूम है को आवा है? वो बोला, नहीं. जब मैंने कहा कि कार में इंदिरा गाँधी बैठी हैं. जैसे ही उसने ये सुना, उसने लपक कर कमरे का दरवाज़ा खोला, मंत्री को एक भद्दी सी गाली दी और बोला, 'नौकरी जाए तो जाए...' इस तरह का प्यार था लोगों का इंदिरा गांधी के लिए."
नौ बालिकाओं के पैर धो कर पिया
1977 का चुनाव हारने के बाद इंदिरा गाँधी बहुत धार्मिक हो गई थीं. वरिष्ठ कांग्रेस नेता कमलापति त्रिपाठी के कहने पर विदेश में पढ़ने वालीं इंदिरा गाँधी ने नौ बालिकाओं के पैर धो कर उसका पानी पिया था.
कुमकुम चड्ढ़ा बताती हैं, "कमलापति त्रिपाठी के साथ इंदिरा गाँधी के संबंधों में राजनीतिक रूप से बहुत उतार-चढ़ाव आए, लेकिन निजी तौर पर वो कमलापतिजी की बहुत इज्ज़त करती थी औप उन्हें पंडितजी कह कर पुकारती थीं. 1977 की हार के बाद धार्मिक कार्यों में उनका विश्वास बढ़ गया था और इस मामले में उनके सबसे बड़े सलाहकार थे कमलापति त्रिपाठी."
वो कहती हैं, "एक बार उनके कहने पर जब उन्होंने उनसे कुछ बालिकाओं के पैर धो कर पीने के लिए कहा, तो इंदिरा बोलीं, अगर मैं बीमार पड़ गई तो? लेकिन कमलापति त्रिपाठी के ज़ोर देने पर उन्होंने उन बालिकाओं के पैर धो कर उसका पानी पिया."
खाने में क्या पसंद था इंदिरा गाँधी को?
इंदिरा गाँधी हमेशा पुरुषों की घड़ी पहनती थीं. सुबह तड़के उठती थीं और चाहे जितना जाड़ा हो, हमेशा ठंडे पानी से नहाती थीं. उनको खाने का क्या शौक था?
उनके निजी चिकित्सक रहे डॉक्टर केपी माथुर बताते हैं, "इंदिरा गाँधी कभी 'बेड टी' नहीं पीती थीं. वो सीधे नाश्ता ही करती थीं. दो टोस्ट, जिन पर हल्का मक्खन लगा होता था, आधा उबला अंडा, 'मिल्की कॉफ़ी' और एक मौसमी फल, जिसमें ज़्यादातर सेब होता था- ये उनका नाश्ता होता था."
वो बताते हैं, "वो 'वेजेटेरियन' खाना ज़्यादा पसंद करती थीं. दिन में एक सब्ज़ी दाल, दही और दो रोटियाँ खाती थीं. रात में कभी-कभी ही 'नॉन वेजेटेरियन' खाना खाती थीं. रमज़ान के दिनों में कुछ मुस्लिम दोस्त उनके लिए कबाब वगैरह भेज देते थे."
ड्राइवर को अपने हाथ से बिस्किट खिलाए
इंदिरा गाँधी का मानवीय पक्ष बहुत मज़बूत था. वो अपने साथ काम करने वाले छोटे से छोटे कार्यकर्ता का बहुत ध्यान रखती थीं.
कुमकुम चड्ढा एक दिलचस्प किस्सा सुनाती हैं जब इंदिरा गाँधी उत्तराखंड में एक चुनाव सभा करके वापस आ रही थीं.
वो कहती हैं, "मोहसिना क़िदवई ने मुझे ये किस्सा सुनाया था. उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा कि हमें रास्ते में कहीं रुकना पड़ेगा, ताकि ड्राइवर कुछ खा ले. इंदिरा गांधी ने तुरंत अपना झोला टटोला और अपने पसंदीदा 'मारी' बिस्किट का एक पैकेट निकाला. उन्होंने एक बिस्किट के चार टुकड़े किए और अपनी हथेली पर रख कर ड्राइवर से बोलीं, 'पहाड़ी रास्ता है... तुम गाड़ी चलाते रहो... और एक एक टुकड़ा खाते रहो.''
संजय की मौत
इंदिरा गाँधी को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उनके पुत्र संजय गाँधी एक विमान दुर्धटना में मारे गए थे.
जब विलिंगटन अस्पताल में डॉक्टर संजय गाँधी के क्षत-विक्षत शरीर को लोगों के सामने लाने योग्य बनाने की कोशिश कर रहे थे. इंदिरा गाँधी भी काला चश्मा पहने वहाँ खड़ी थीं.
कुमकुम चड्ढा याद करती हैं, "वहाँ मेनका गांधी, मैं और इंदिरा गाँधी खड़े थे. उस वक्त मुझे लग रहा था कि किसी तरह मैं आगे बढ़ कर इंदिराजी का हाथ पकड़ लूँ. लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी. संजय की 'बॉडी' को एक ट्रक पर चढ़ाया जा रहा था. उस पर एक सीढ़ी लगाई गई ताकि इंदिराजी भी उस पर चढ़ सकें."
वो बताती हैं, "मैं नीचे खड़ी थी. इंदिरा तीन चार सीढ़ियाँ चढ़ीं, फिर एक दम से मुड़ी और मुझे एक घड़ी देते हुए बोलीं, देखो ये किसी ने अपनी घड़ी गिरा दी है. हो सके तो इसको वहाँ तक पहुंचा दो, जिसकी है. मैं समझ ही नहीं पाई कि मैं क्या सुन रही हूँ. एक तरफ़ उनके बेटे का मृत शरीर पड़ा हुआ था और उनको किसी की घड़ी के बारे में चिंता हो रही थीं."
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