नज़रिया: दलितों के मामले में क्या भाजपा की ढाल बन पायेगा संघ?

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- Author, मुकेश शर्मा
- पदनाम, एडिटर, बीबीसी हिन्दी
"संविधान सम्मत आरक्षण को आरएसएस का समर्थन है और रहेगा. आरक्षण कब तक चलेगा? ये जिन्हें दिया गया है, वो जब तक चाहेंगे तब तक चलेगा."
आरक्षण को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख डॉक्टर मोहन भागवत के इस बयान की तुलना बिहार विधानसभा चुनाव से पहले के उनके बयान से करिए.
उन्होंने उस समय आरक्षण की समीक्षा की बात की थी और बाद में उन चुनाव में भाजपा की हार से भी उसे जोड़ दिया गया था.
इन लगभग तीन साल में ऐसा क्या हो गया कि संघ प्रमुख ने यूं खुलकर ये बयान दिया?
जवाब शायद पिछले कुछ समय से जारी दलित आंदोलन और दलितों में कथित असंतोष की ख़बरों में है.
भविष्य के भारत को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना दृष्टिकोण सबके सामने रखने के लिए दिल्ली में तीन दिन का कार्यक्रम आयोजित किया.

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जातिवाद और आरक्षण
इस कार्यक्रम का असली मक़सद संघ के बारे में लोगों को और जानकारी देना था या शायद उन लोगों को अपनी ओर मोड़ना, जो संघ के बारे में स्पष्ट रूप से नकारात्मक सोच नहीं रखते.
अंतिम दिन जब सरसंघचालक डॉक्टर भागवत ने पहले दो दिनों में आये लोगों के सवालों के जवाब देना शुरू किया तो सबसे ज़्यादा सवाल जाति व्यवस्था, दलितों या आरक्षण से जुड़े थे.
पहले ज़रा इस दौरान कही गई उनकी इन बातों को देखिये:
- संघ अंतरजातीय रोटी-बेटी के व्यवहार का समर्थन करता है.
- जाति व्यवस्था नहीं अव्यवस्था है.
- संघ में हम किसी से जाति नहीं पूछते. संघ के शीर्ष पदाधिकारियों में कोई कोटा सिस्टम नहीं हो सकता क्योंकि कोटा सिस्टम से जाति का भान (पता) रहेगा.
- संविधान के अनुसार मिलने वाले आरक्षण का आरएसएस समर्थन करता है और करता रहेगा.
- आरक्षण कब तक रहेगा, ये जिन्हें दिया गया है वो जब तक चाहेंगे तब तक चलेगा.
- आरक्षण समस्या नहीं है, आरक्षण की राजनीति समस्या है.
- देखा जाना चाहिए एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग न हो, उसे ठीक से लागू किया जाना चाहिए.

संघ के स्वयंसेवकों से या उस पर नज़दीक़ी से नज़र रखने वालों से पूछिए तो वे बताएंगे कि इनमें से कोई भी बात उनके लिए नई नहीं है.
मगर आरक्षण को लेकर संघ प्रमुख का बयान इस बार ज़रूर स्पष्टीकरण जैसा है.

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बयानों की राजनीतिक अहमियत
ऐसे समय में जबकि देश में विभिन्न दलित संगठन या नेता केंद्र सरकार पर उन्हें निशाना बनाए जाने का आरोप लगा रहे हों, एससी-एसटी ऐक्ट को लेकर केंद्र सरकार कभी दलितों तो कभी सवर्णों के निशाने पर हो- ये बयान राजनीतिक अहमियत रखते हैं.
संघ सीधे तौर पर देश की राजनीति में तो नहीं है मगर उसके फ़ैसले देश की राजनीति को सीधे तौर पर प्रभावित ज़रूर करते हैं.
तो जब डॉक्टर भागवत अंतरजातीय विवाह का समर्थन करते हैं, जाति व्यवस्था को हटाने की वकालत करते हैं, आरक्षण या एससी-एसटी ऐक्ट को बरक़रार रखने की हामी भरते हैं तो मातृ संगठन का ये कहना देश के आमजन को एक संदेश भी होता है कि उसके राजनीतिक उत्तराधिकारी की भी राय यही है.
महज़ साढ़े चार साल पहले दलितों के एक बड़े हिस्से ने नरेंद्र मोदी में अपना हितैषी देखा था और उनके नाम पर भाजपा को वोट दिया था.


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रोहित वेमुला का केस, भीमा-कोरेगाँव के आंदोलन के दौरान हिंसा, गौरक्षकों की ओर से कुछ दलितों को निशाना बनाया जाना, एससी-एसटी ऐक्ट में बदलाव के विरोध में हुआ भारत बंद या विभिन्न आरक्षित पदों को न भरे जाने के चलते सुलग रहा ग़ुस्सा.
जिस देश में जातिगत पहचान और उसकी राजनीति इतनी अहम हो वहां इन घटनाओं के चलते केंद्र सरकार का विचलित होना स्वाभाविक है.
पार्टी कितनी भी आत्मविश्वास से भरी दिखाई दे मगर उसे भी एहसास है कि दलित विरोधी या उनकी परवाह न करने वाली छवि बनने से उसे बड़े पैमाने पर नुक़सान होगा.
वैसे उसे न सिर्फ़ दलितों के बीच छवि की चिंता है, उसे अपने परंपरागत सवर्ण वोट बैंक का भी ध्यान रखना है. शायद यही वजह है कि संघ प्रमुख ने एससी-एसटी ऐक्ट का समर्थन करते हुए भी ज़ोर इस बात पर दिया कि इस क़ानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए.


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भाजपा और संघ का रिश्ता
संघ के सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन होने के दावे के बीच ये सवाल उठ सकता है कि आख़िर संघ भाजपा की इतनी चिंता क्यों करेगा?
इसका सहज उत्तर भी संघ प्रमुख के बयानों में ही मिलता है. उन्होंने कहा कि संघ का काम सिर्फ़ शाखाएँ लगाना है और वहां से निकले स्वयंसेवक आगे जाकर समाज में काम करते हैं.
समाज के जिन हिस्सों में संघ के स्वयंसेवक काम कर रहे हैं उनमें राजनीतिक इकाई भी है और वहां संघ के स्वयंसेवक भारतीय जनता पार्टी से ही जुड़े हैं.
डॉक्टर भागवत से जब ये पूछा गया कि संघ अपना प्रतिनिधि संगठन मंत्री के रूप में भाजपा में भेजता है और इस तरह संघ और भाजपा का संबंध स्थापित होता है तो उन्होंने मज़ाकिया अंदाज़ में उत्तर दिया, "हमसे जो माँगता है हम उसे संगठन मंत्री देते हैं. जब कोई और माँगेगा तब हम देखेंगे. हम पार्टी का नहीं नीतियों का समर्थन करते हैं."
भाजपा की नीतियाँ संघ के अनुकूल हैं या संघ के स्वयंसेवक ही भाजपा को बुनियादी स्वरूप देते हैं इसलिए संघ की नीतियाँ ही भाजपा की नीतियाँ हैं, इस सोच-विचार में उलझाने वाला उत्तर था ये.
मगर इसमें किसी को भी शक़ नहीं कि शाखाओं के माध्यम से घर-घर तक संघ की जो पहुँच है उसका लाभ भाजपा को मिलता रहा है और उसके सत्ता में होने से संघ को अपनी नीतियों को व्यापक बनाने में मदद मिलती है.
ऐसे में आवश्यक है कि संघ के स्वयंसेवकों में भाजपा के प्रति किसी भी संभावित मोहभंग पर लगाम लगाई जाए.
जातिवाद और आरक्षण को लेकर संघ प्रमुख के इन बयानों से न सिर्फ़ ये संदेश देने की कोशिश हुई है कि संघ दलितों के साथ है बल्कि सरकार को भी एक संदेश दिया गया है कि उसकी नीतियाँ या बयान इन बातों से बहुत अलग नहीं हो सकते.
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