अमित शाह और उद्धव ठाकरे की मुलाक़ात का राज़

अमित शाह और उद्धव ठाकरे

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    • Author, प्रकाश आकोलकर
    • पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार

शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी, महाराष्ट्र की सत्ता में भागीदार इन दो पार्टियों में पिछले दो-तीन सालों से जारी तू तू-मैं-मैं का अंत शिवराज्याभिषेक के दिन हुआ, जब भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह शिवसेना के गढ़ मातोश्री पहुंचे.

शाह ने मातोश्री में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से बंद कमरे में चर्चा की. लेकिन इस चर्चा की विस्तृत जानकारी बाहर नहीं आने के कारण बातचीत को लेकर रहस्य बना हुआ है.

इतना ही नहीं, शिवसेना और भाजपा, इन दो तथाकथित दोस्तों के बीच की उलझनें सुलझने की बजाए और बढ़ ही रही हैं. हालांकि ये उलझन ख़ुद शिवसेना की ही बनाई हुई है.

साल 2014 में लोकसभा चुनाव के वक़्त दोनों पक्के दोस्त थे और गठबंधन धर्म का पालन करते हुए चुनाव लड़े थे.

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शिवसेना की टीस

लेकिन उस वक़्त नरेंद्र मोदी की ऐसी हवा थी कि भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और उन्होंने 'शत प्रतिशत महाराष्ट्र' के सपने बुनने शुरू कर दिए.

जब बात सीटों के बंटवारे की आई तो शिवसेना को धोखे में रखा गया. इससे ऐन चुनाव के वक़्त शिवसेना अलग-थलग पड़ गई और उन्हें अकेले ही चुनाव लड़ना पड़ा.

शिवसैनिक और उद्धव ठाकरे के मन से ये दर्द अभी भी गया नहीं है. हालांकि शिवसेना ने हार नहीं मानी और उद्धव ठाकरे ने अकेले अपने दम पर ही थोड़ी बहुत नहीं बल्कि 63 सीटें हासिल कीं.

मगर भाजपा के सपनों ने शिवसेना को विपक्ष की कतार में ला खड़ा किया. हालांकि ये काम भी काफ़ी बड़ा था.

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शिवसेना की सबसे बड़ी भूल

शिवसेना ने सत्ता के साथ जाने के बजाय विपक्ष में रहने का फ़ैसला किया होता तो भाजपा के ख़िलाफ़ लहर तैयार करना उसके लिए आसान होता.

लेकिन शिवसेना के एक गुट का लालच जाग उठा. पूरे 15 साल सत्ता से बाहर रहने के कारण बहुत से लोगों की दुकानदारी बंद हो चुकी थी.

इसी गुट के दबाव में शिवसेना झुकी और सरकार में शामिल हो गई. पिछले 5 सालों में शिवसेना की ये सबसे बड़ी भूल थी.

हालांकि पार्टी टूटने के डर से उन्हें ये फ़ैसला करना पड़ा था. लेकिन मोदी के करिश्में से भाजपा का रथ ज़मीन से चार इंच ऊपर, हवा में दौड़ रहा था.

इस वजह से शिवसेना को हर क़दम पर अपमान झेलना पड़ा.

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मुंबई पर निशाना

सत्ता में होने पर भी उन्हें नीचा दिखाया जा रहा था और फिर दोनों के बीच की तू-तू-मैं-मैं खुलकर बाहर आई.

इस लड़ाई के दो कारण थे और उसमें दोनों पार्टियों की माली हालत की भी अहम भूमिका थी.

शिवसेना के हाथ में पिछले अनेक वर्षों से मुंबई नगरनिगम रहा है और इसी सत्ता के ज़ोर पर शिवसेना की अर्थनीति खड़ी है.

लेकिन गठबंधन तोड़कर, विधानसभा अकेले लड़कर भी भाजपा ने मुंबई में शिवसेना के मुक़ाबले एक सीट ज़्यादा ही जीती.

इसके साथ ही भाजपा में मुंबई पर कब्ज़ा करने की इच्छा भी जागृत हुई. और इसके पीछे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की प्रेरणा थी.

मुंबई बीजेपी

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...लेकिन जीती शिवसेना

बहुत से पुराने शिवसैनिकों का मानना है कि शाह और मोदी, इन दो गुजराती नेताओं के मन से सूरत की लूट का दर्द अभी भी गया नही है.

साथ ही संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन के बाद मुंबई भी उनके हाथ से फिसल गई.

इसीलिए मुंबई पर कब्ज़ा जमाने की कोशिश पिछले साल हुए मुंबई नगरनिगम चुनाव से शुरू हुई. इसी वजह से उद्धव ठाकरे और देवेंद्र फडणवीस, इन दो नेताओं में जमकर रस्साकशी हुई.

इस चुनाव में भाजपा ने बड़ी क़ामयाबी हासिल तो की लेकिन जैसे-तैसे मुंबई नगरनिगम का चुनाव शिवसेना ने ही जीता.

इस जीत के साथ ही उद्धव ठाकरे ने अपनी आवाज़ ऊंची कर ली. सत्ता से बाहर जाने की और इस्तीफ़े की बातें भी होने लगीं. हालांकि इस बीच उनके नेता सत्ता के फल भी बराबर चखते रहे.

ठाकरे

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दोस्ती में अनबन

आख़िरकार सत्ता ठुकराने की बातों का सिलसिलेवार मज़ाक उड़ाया जाने लगा.

ये बात मानने की है कि अगर शिवसेना ने सत्ता से बाहर जाने का निर्णय किया तो वो शिवसेना की एक बड़ी भूल होगी.

साथ ही शिवसेना फिर से टूटने की कग़ार पर भी जाकर खड़ी हो सकती है. शिवसेना की इस हालत से भाजपा अच्छी तरह से वाकिफ़ है.

वहीं, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पालघर उप-चुनाव में देवेंद्र फडणवीस पर लगातार हल्ला बोले जाने पर भी भाजपा सब चुपचाप झेल रही है.

ज़ाहिर है कि सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को भी शिवसेना की ज़रूरत है. पालघर उप-चुनाव की तू-तू-मैं-मैं ने तो हदें ही पार कर दीं.

फडणवीस के विरोध में एक क्लिप भी वायरल की गई. उनके भाषण पर आपत्ति जताते हुए शिक़ायत दर्ज की गई. और आख़िरकार अमित शाह को मातोश्री के दरवाज़े पर जाने को मजबूर होना पड़ा.

ये बातचीत अच्छी खासी दो घंटे तक चली. माना जा रहा है कि अब याराना नए सिरे से शुरू हो गया है. लेकिन ऐसा करना एक बड़ी भूल होगी.

देवेंद्र फडणवीस

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कौन हटेगा पीछे?

उद्धव ठाकरे ने पिछले कुछ महीनों में शिवसेना को सीमारेखा के पार ले जाकर खड़ा किया है.

साथ ही उद्धव ठाकरे ने ये प्रस्ताव भी पारित किया है कि किसी हाल में भाजपा के साथ कोई गठजोड़ नहीं होगा.

इसीलिए अब अगर गठजोड़ करना पड़े तो शिवसेना के शेर को कितने क़दम पीछे आना पड़ेगा, ये बताना ज़रा मुश्किल है.

वहीं भाजपा दुम दबाते हुए शिवसेना के पीछे आए, ऐसा होता दिख नहीं रहा. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि आगे क्या होगा?

जिस वक़्त उद्धव ठाकरे और अमित शाह के बीच बातचीत हो रही थी, उस वक़्त भाजपा प्रवक्ता टीवी चैनलों पर ऊंची आवाज़ में राग अलाप रहे थे कि वो अगला विधानसभा चुनाव अलग-अलग ही लड़ेंगे.

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मुलाक़ात का राज़

ऐसे में बंद क़मरे में हुई ये बातचीत अलग-अलग लड़कर अपनी सीटें बढ़ाने को लेकर तो कतई नहीं हुई होगी?

ऐेसा करने पर सत्ता और उसके साथ आनेवाले धन के लिए फिर से साथ आना भी तो मुमकिन है.

बहरहाल आगे क्या होगा, ये तो आज किसी को नहीं पता. ना उद्धव ठाकरे को और ना ही अमित शाह को. और इसीलिए इस मुलाक़ात का राज़ गहराता जा रहा है.

पर एक बात तो तय है कि विधानसभा चुनाव के वक़्त धोखे में रहने की वजह से हुई किरकिरी से शिवसेना ने सबक तो सीखा है.

इसीलिए इससे आगे की उनकी चाल बहुत सावधानी भरी होगी. या वो ऐसी होनी चाहिए.

(मुंबई से छपने वाले अख़बार सकाल टाइम्स के राजनीतिक संपादक प्रकाश आकोलकर ने ये लेख बीबीसी की मराठी सेवा के लिए लिखा है. ये लेखक के निजी विचार है. मराठी में इस लेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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