उत्तर प्रदेश बजा रहा है मोदी के लिए ख़तरे की घंटी

2019 के लोकसभा चुनाव में एक साल से भी कम वक़्त बचा है और सत्ताधारी बीजेपी को हाल के लगभग सभी उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा है.

ये उपचुनाव चाहे लोकसभा के रहे हों या विधानसभा के. ये हार बीजेपी को परेशान करने वाली हैं और अब सवाल उठ रहा है कि क्या भारत की चुनावी राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के प्रभुत्व के दिन लदने वाले हैं? क्या बीजेपी विपक्ष की एकजुटता की कोई काट निकाल पाएगी?

बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) को लोकसभा की चार सीटों पर हुए उपचुनाव में दो पर कामयाबी मिली है. महाराष्ट्र के पालघर से बीजेपी और नगालैंड की सोल सीट से एनडीपीपी को जीत मिली है.

इसके साथ ही अलग-अलग राज्यों में कुल 10 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में केवल उत्तराखंड की थराली सीट पर बीजेपी को जीत मिली है. महाराष्ट्र की बंडारा-गोंडिया लोकसभा सीट से एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन को जीत मिली है.

कैराना की जीत सबसे अहम

इस उपचुनाव में विपक्ष को सबसे बड़ी जीत उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट पर मिली है. इस सीट से राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को सभी विपक्षी पार्टियों का समर्थन हासिल था.

उत्तर प्रदेश के ही गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी की करारी हार के दो महीने बाद कैराना में मुंह की खानी पड़ी है. गोरखपुर, फूलपुर और कैराना तीनों सीटों पर 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को जीत मिली थी.

कैराना पश्चिम उत्तर प्रदेश में है और 2013 में यह इलाक़ा सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आया था और धार्मिक ध्रुवीकरण भी हुआ था. यह ध्रुवीकरण 2014 के आम चुनाव में भी देखने को मिला था.

झारखंड में बीजेपी सत्ता में है और वहां भी विधानसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्च से हार मिली है. हालांकि पहले भी ये दोनों सीटें जेएमएम के पास ही थी.

बिहार में भी जेडीयू और बीजेपी गठबंधन को जोकीहट विधानसभा सीट के उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल से हार मिली.

जाट और मुसलमान आए साथ?

कैराना लोकसभा सीट पर बीजेपी की हार के बारे में विपक्ष का कहना है कि यह सांप्रदायिकता की हार है और एक बार फिर से जाट और मुसलमान राजनीतिक रूप से साथ आ रहे हैं.

आरएलडी नेता जयंत चौधरी ने इस जीत के बाद कहा कि बीजेपी ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से जिन्ना विवाद खड़ा कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की थी, लेकिन किसानों को यह बात समझ में आ गई थी कि जिन्ना से नहीं बल्कि उन्हें गन्ना से फ़ायदा होना है और किसानों ने जिन्ना जैसे नक़ली मुद्दे का साथ नहीं दिया.

वहीं, बीजेपी प्रमुख अमित शाह का कहना था कि उपचुनाव प्रधानमंत्री तय नहीं करता है इसलिए इसके नतीजे को किसी संकेत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षक इस बात को मानते हैं कि इन नतीजों से बीजेपी की सांस अटक गई है कि जाट और मुसलमान साथ आ गए तो उनका पूरा खेल बिगड़ जाएगा.

बीजेपी इस बात को पूरी तरह से समझती होगी कि उत्तर प्रदेश में दलित 21.2 फ़ीसदी हैं और मुसलमान 19.2 फ़ीसदी. इनके साथ जाट भी आ गए तो उत्तर प्रदेश में जातीय वोटों का अंकगणित बदल जाएगा.

मोदी की रैली भी नहीं आई काम?

कैराना में चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने पास के ही शहर बागपत में चुनावी रैली की तरह ही एक जनसभा को संबोधित किया था, लेकिन इसका भी कोई असर नहीं हुआ.

वहीं दूसरी तरफ़ अमित शाह ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में दावा किया था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को 50 फ़ीसदी वोट मिलेगा.

महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए मिले-जुले नतीजे रहे. पालघर में बीजेपी कांटे की टक्कर में शिव सेना को हराने में कामयाब रही. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में यह जीत मायने रखती हैं. हालांकि बंडारा-गोंदिया में बीजेपी को कांग्रेस समर्थित एनसीपी उम्मीदवार से मात खानी पड़ी.

झारखंड की दोनों सीटों पर झारखंड मुक्ति मोर्चा से हारना मुख्यमंत्री रघुबर दास के लिए भी बड़ा झटका है.

हर राज्य में हार

उत्तर प्रदेश में नूरपुर विधानसभा सीट पर भी समाजवादी पार्टी अपने उम्मीदवार को जिताने में कामयाब रही और बीजेपी को यहां भी मात खानी पड़ी. मेघालय की अंपाती विधानसभा सीट से बीजेपी के सहयोगी दल नेशनल पीपल्स पार्टी को कांग्रेस से हार का सामना करना पड़ा और इस जीत के साथ ही कांग्रेस मेघालय विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है.

पंजाब की शाहकोट विधानसभा सीट भी अकाली दल से कांग्रेस ने छीन ली है. इसके साथ ही केरल में सीपीएम और पश्चिम बंगाल में टीएमसी के दबदबे में कोई कमी आती नहीं दिख रही.

यहां भी एक-एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में दोनों सत्ताधारी पार्टियों को जीत मिली है.

योगी राज में हार

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद जितने उपचुनाव हुए सबमें बीजेपी को हार मिली है. कई राजनीतिक विश्लेषक इस बात को मानते हैं कि अगर 2019 के लोकसभा में भी विपक्ष एकजुट रहा तो बीजेपी को 2014 के आम चुनाव के उलट नतीजे देखने को मिल सकते हैं. उपचुनाव के नतीजों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में आई कमी के तौर पर भी देखा जा रहा है.

विपक्ष के साथ आने से न केवल बीजेपी हार रही है बल्कि उसके वोट शेयर में भी गिरावट आई है. 2014 के आम चुनाव में कैराना में बीजेपी का वोट शेयर 50.6% था और अगर इसे कायम रखती तो बीजेपी को हार का सामना नहीं करना पड़ता. गोरखपुर और फूलपुर में विपक्षी एकजुटता के बाद से कैराना के उपचुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 46.5% हो गया.

पालघर और बंडारा-गोंडिया में भी बीजेपी के वोट शेयर में 9 फ़ीसदी की गिरावट आई है. हालांकि 2014 के आम चुनाव में शिवसेना भी बीजेपी साथ थी. इसके साथ ही महाराष्ट्र में 2014 में एनडीए के साथ दो और पार्टियां थीं. ऐसे में बीजेपी के वोट शेयर में कितने पर्सेंट की गिरावट आई है ठीक-ठीक कहना मुश्किल है.

बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्षी पार्टियों ने 1960 और 70 के दशक की कांग्रेस विरोधी रणनीति की तर्ज़ पर बीजेपी विरोधी गठजोड़ को अपनाया है. 1960 और 70 के दशक में कांग्रेस को रोकने के लिए समाजवादी और जनसंघ एक ही मंच पर आए थे और अब बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस और समाजवादी धड़े एक मंच पर हैं.

2019 के आम चुनाव से पहले उपचुनावों में विपक्ष की यह रणनीति हिट दिख रही है. अब देखना है कि बीजेपी इस रणनीति का क्या काट निकालती है.

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