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क्या मोदी नवीन पटनायक को शिकस्त दे सकते हैं?
- Author, संदीप साहू
- पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए, भुवनेश्वर से
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शनिवार को ओडिशा में अपनी जनसभा में सरकार के चार साल पूरा होने के अवसर पर 'रिपोर्ट कार्ड' पेश किया.
सरकार की चौथी वर्षगाँठ का जश्न मनाने के लिए ओडिशा और कटक का चुना जाना तो राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि जब तक ओडिशा, बंगाल और केरल में भाजपा की सरकार नहीं बन जाती, तब तक पार्टी के 'स्वर्णिम युग' का आरम्भ नहीं होगा.
लेकिन इस समय जिस बात की राजनैतिक गलियारों में सबसे अधिक चर्चा है वह 2019 में मोदी का पुरी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की संभावना है.
हालांकि, इसमें कितनी सच्चाई है इसके बारे में भाजपा नेता खुलकर बोलने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन इतना ज़रूर लग रहा है कि इस सम्भावना पर गंभीरता से विचार हो रहा है.
अगर मोदी पुरी से लड़ते हैं चुनाव
भाजपा के स्थानीय नेता मानते हैं कि अगर सचमुच मोदी पुरी से चुनाव लड़ते हैं तो नवीन पटनायक के ख़िलाफ़ पार्टी की लड़ाई में यह एक 'गमेचेंजर' हो सकता है.
उन्हें उम्मीद है कि 2014 में मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने का जो फायदा भाजपा को उत्तर प्रदेश में मिला था, वही फ़ायदा यहाँ भी मिलेगा.
राज्य की मौजूदा राजनैतिक स्थिति में नवीन पटनायक को शिकश्त देने का यही एक तरीका उन्हें नज़र आ रहा है.
लेकिन एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि मोदी वाकई पुरी से चुनाव लड़ेंगे, तो भी यह ज़रूरी नहीं कि भाजपा नवीन पटनायक को मात दे देगी.
पिछले साल पंचायत चुनाव के झटके के बाद नवीन ने पार्टी और सरकार में सुधार लाने के लिए जो कोशिशें शुरू की हैं उनकी बदौलत उनकी लोकप्रियता आज शिखर पर है.
शिखर पर है नवीन पटनायक की लोकप्रियता
नवीन पटनायक से पहले भी कई नेता लम्बे अरसे तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं.
मिसाल के तौर पर ज्योति बसु और मानिक सरकार. लेकिन हर चुनाव में किसी नेता का जनसमर्थन घटने के बजाय बढ़ता चला जाए, ऐसी मिसालें भारतीय राजनीति में कम ही देखी गई हैं.
अब ज़रा इन आंकड़ों पर गौर करें.
- सन 2000 में जब नवीन पहली बार भाजपा के साथ बनी गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने, तो उनकी अध्यक्षता में बनी बीजू जनता दल (बीजद) की विधान सभा में सीटों की संख्या थी 67 और लोकसभा में 10.
- साल 2009 में भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद बीजद जब पहली बार अपने दम ख़म पर चुनाव लड़ी तो उसे राज्य के 21 लोक सभा सीटों में से 14 सीटें मिलीं और विधान सभा की कुल 147 सीटों में से 103 सीटें.
- 2014 आते आते यह संख्या 20 और 117 तक पहुँच गयी. अभी राज्य में जो स्थिति है, उसमें 2019 में एक साथ होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में नवीन की लगातार पांचवीं जीत लगभग निश्चित मानी जा रही है.
किसी को पूछ नहीं रहे हैं नवीन
अपनी इस बढ़ती लोकप्रियता के कारण नवीन को 2009 से लेकर अब तक किसी दूसरी पार्टी के समर्थन की ज़रुरत नहीं पड़ी.
हाँ, दूसरी पार्टियों ने बीजद के कंधे पर सवार हो कर कुछ सीटें ज़रूर हथिया लीं, जैसे 2009 में एन.सी.पी. और सी.पी.आई.
अब 2019 के चुनाव से पहले दोनों पक्ष - एन.डी.ए और पूरा विपक्ष - उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन नवीन हैं की किसी को घास नहीं डाल रहे हैं.
यही कारण है कि बुधवार को कुमारस्वामी के शपथग्रहण के अवसर पर बेंगलुरु में हुए विपक्षी दलों के जमावड़े में नवीन न खुद नज़र आए न उनकी पार्टी का कोई और नेता.
वैसे प्रेक्षकों का मानना है कि नवीन के बेंगलुरु न जाने का असली कारण यह है कि वे विरोधी खेमे में शरीक हो कर नरेन्द्र मोदी के साथ पंगा लेना नहीं चाहते.
उन्हें पता है कि ऐसा करना उनके लिए महंगा पड़ सकता है, क्योंकि ठंडे बस्ते में चली गयी चिटफंड घोटाले की सी.बी.आई. जांच किसी भी समय दोबारा तेज हो सकती है, जो चुनाव में उनकी पार्टी के लिए घातक सिद्ध हो सकती है. साथ ही 60 हज़ार करोड़ के खनिज घोटाले में सीबीआई जांच के आदेश दिए जाने का डर भी है.
बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी
यही कारण है कि अपनी चौथी इनिंग्स के शुरू से ही नवीन भाजपा और कांग्रेस के साथ 'इक्वी डिस्टेंस' (सामान दूरी) के जुमले को दोहरा रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों के शीर्ष नेताओं के साथ उनके बहुत ही अछे ताल्लुकात हैं.
एक तरफ जहां वे भाजपा से अपना दामन बचा रहें हैं, वहीँ कांग्रेस का दामन थाम कर राज्य में भाजपा के बढ़ते कदम को रोकने की कोशिश में भी जुटे हुए हैं.
राज्य कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेता - पूर्व केन्द्रीय मंत्री भक्तचरण दास और पूर्व मंत्री शरत राउत - खुलेआम यह बयान दे चुके हैं कि भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस बीजद के साथ हाथ मिला सकती है.
महत्वपूर्ण है कि इस बयान का न कांग्रेस ने खंडन किया है और न बीजद ने.
नवीन इस दोहरे खेल के माहिर खिलाड़ी हैं. 2004 से लेकर 2014 तक वे केंद्र सरकार के खिलाफ 'केंद्रीय अवहेलना' का नारा लगाते रहे, लेकिन कांग्रेस आलाकमान के साथ बेहद अच्छे ताल्लुकात बनाये रखे.
अब देखना यह है कि मोदी को पुरी से उतारकर भाजपा उनके इस खेल को बिगाड़ने की कोशिश करती है या नहीं.
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