नज़रिया: आंबेडकरवाद ने कभी नहीं खोया अपना स्वरूप

इमेज स्रोत, Keystone/Hulton Archive/Getty Images
- Author, चंद्र भान प्रसाद
- पदनाम, दलित चिंतक
भारतीय गणतंत्र जिस किताब को सबसे ऊंचा दर्जा देता है वो है देश के संविधान की किताब है जिसे सही मायनों में महान माना जाता है.
इस किताब की खूबसूरती इस बात में है कि देश में अलग-अलग तरह के विचारों, मान्यताओं, वर्गों के लोग रहते हैं लेकिन ये उन्हें एक बनाती है.
डॉ आंबेडकर ने इस किताब को अकेले ही लिखा था और कहा जाए तो इसमें भी समझौते किए गए. आंबेडकर को कई तरह के लोगों के हितों को देखना, उन्हें समझना, चर्चा करना और उन्हें इसमें जगह देनी थी.
लेकिन जिस नींव को आधार बना कर उन्होंने देश का संविधान लिखा वो ये था कि उन्हें पता था कि भारत एक स्वतंत्र गणतंत्र होगा जहां संसदीय सरकार होगी.
इसे लिखते वक्त आंबेडकर को इतिहास में रही बुराईयों को भी ख़त्म करना था और मुख्यधारा से दूर रहे दलित और आदिवासियों को इसमें शामिल करना था.

इमेज स्रोत, DIBYANGSHU SARKAR/AFP/Getty Images
सरकारी समाजवाद का विचार
जब तक अक्तूबर 2003 में आंबेडकर की 1946 में लिखी किताब 'स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़' का 17वं संस्करण आया, तब तक सूट-बूट और कभी-कभी हैट में दिखने वाले इस व्यक्ति के बारे में जानकार समझते थे कि यही उनकी महानतम रचना है और यहीं से राष्ट्र और समाजवाद का विचार आया है.
और ये किताब केवल संविधान सभा के लिए एक ज्ञापन की तरह ही थी क्योंकि बाबा साहेब को नहीं पता था संविधान सभा में उन्हें लिया जाएगा या नहीं.
इस किताब में 'सोशियलिज़म यानी समाजवाद' शब्द का उल्लेख है, जो उनका गढ़ा शब्द नहीं था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'समाजवाद' काफ़ी जाना माना शब्द था और इस कारण सरकारी समाजवाद का विचार वाक़ई में आंबेडकर का नहीं था.
देश में लोकसभा के लिए पहले चुनावों की घोषणा अक्तूबर 1951 में हुई थी और इसके लिए मतदान 1952 में हुआ. इस दौर में डॉ आंबेडकर ने अनुसूचित जाति संघ के लिए घोषणापत्र लिखा था. वो इस राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व करते थे.
इस घोषणापत्र को एक नज़र देखने पर वो एक योजनाकर्ता के रूप में दिखते हैं जिन्होंने लिखा था कि ब्रितानी शासन ख़त्म होने के बाद के भारत को फिर नए सिरे से कैसे गढ़ा जाना चाहिए.
घोषणापत्र में दलितों के लिए उच्च शिक्षा में व्यवस्था की बात की गई थी ताकि वो नागरिक और सैन्य सेवाओं में प्रवेश ले सकें. इसमें समाज के ऊंचे और निम्न वर्ग के बीच की खाई को पाटने की बात भी की गई थी.

इमेज स्रोत, SAM PANTHAKY/AFP/Getty Images
भारत को अमरीका बनाना चाहते थे
19 पन्ने के इस दस्तावेज़ में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के लिए मात्र एक ही पन्ना था. बाकी पन्नों में भारत को यूरोप और अमरीका की तर्ज पर औद्योगिक और आधुनिक बनाने की योजना थी.
ये वो दौर था जब आधा विश्व कम्युनिस्ट झंडे के लाल रंग से रंगा था. कुछ साल पहले पड़ोसी चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हुई थी और ऐसे में आंबेडकर ने घोषणापत्र में (1) खेती के आधुनिकीकरण (2) छोटे खेतों की जगह बड़े खेत बनाने (3) स्वस्थ्य बीजों की सप्लाई की बातें लिखी थीं.
घोषणापत्र मतदाताओं को ये आश्वासन देता है कि उनकी पार्टी "औद्योगिक उत्पादन को लेकर किसी रुढ़ि या प्रक्रिया से बंधकर नहीं चलेगी."
दूसरे शब्दों में, डॉक्टर आंबेडकर मार्क्सवाद और सामाजिक व्यवस्था को ख़ारिज करते हैं, लेकिन वे पूंजीवाद का भी समर्थन नहीं करते. हालांकि निजी क्षेत्र की भूमिका को लेकर भी कोई सैद्धांतिक विचार व्यक्त नहीं करते.
घोषणापत्र में कहा गया है, "जब किसी उद्योग को सार्वजनिक उपक्रम बनाने की संभावना हो और वो ज़रूरी हो, तब अनुसूचित जाति संघ उसका समर्थन करेगा. वहीं जहां निजी क्षेत्र की संभावना हो और सार्वजनिक उपक्रम ज़रूरी न हो, वहां निजी उद्यम की अनुमति दी जाएगी."

इमेज स्रोत, SANDY HUFFAKER/AFP/Getty Images
जातिवाद मिटाने के लिए औद्योगिकरण
अपने घोषणापत्र में आंबेडकर जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए कोई सीधा कदम उठाने के लिए नहीं कहते लेकिन वो जानते थे कि औद्योगिकरण और शहरीकरण के ज़रिए इसे हासिल किया जा सकता है.
अगर यूरोप में औद्योगिकरण दासप्रथा को ख़त्म कर सकता है तो शहरीकरण के साथ औद्योगिकरण से भारत में जाति व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी. हालांकि ज़ाहिर तौर पर राष्ट्र को इसके लिए कुछ सकारात्मक और सीधे कदम उठाने पड़ेंगे.
आंबेडकर के अनुयायी उनके विचारों के इस हिस्से को याद नहीं रख पाए. आंबेडकर के अनुयायी ये समझ नहीं पाए कि कृषि व्यवस्था में जो जाति व्यवस्था जन्म लेती है और फलती-फूलती है वो औद्योगिक सभ्यता में ज़िंदा नहीं रह पाती.
अपने घोषणापत्र में आंबेडकर एक योजनाकर्ता के रूप में दिखते हैं लेकिन अपने कैरियर के अधिकतर समय में वो एक सामाजिक क्रांतिकारी की तरह ही दिखते हैं जिन्होंने हमेशा जाति व्यवस्था को चुनौती दी.

इमेज स्रोत, INDRANIL MUKHERJEE/AFP/Getty Images
ऐसा नहीं है कि ऐसे और हालात या और नेता नहीं थे जिन्होंने जाति व्यवस्था का विरोध किया लेकिन आंबेडकर सबसे अलग थे.
आंबेडकर से पहले सामाजिक बदलाव की मुहिमों में उच्च वर्ग के नेतृत्व का विरोध किया गया. डॉ आंबेडकर ने जाति व्यवस्था विरोधी मुहिम की शुरूआत की और उन्होंने हिन्दुत्व को ब्राह्मणों के धर्म के रूप में चुनौती दी जो जाति व्यवस्था को बढ़ावा देती है.
लेकिन भारत के लिए आंबेडकर का प्यार हमेशा रहस्य ही रहा.
कृषि से चलेगी बदलाव की बयार
उनकी सबसे महानतम किताब थी 'स्मॉल होल्डिंग इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़' जो उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने दिनों के दौरान लिखा थी. ये किताब 1918 में प्रकशित हुई थी. इसमें उन्होंने कृषि को एक उद्योग बताया है.

इमेज स्रोत, NOAH SEELAM/AFP/Getty Images
वो पूछते ही कि ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर बड़े परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते हैं, वो नफे-नुकसान का कोई हिसाब नहीं करते और अपने जीवन में ही उलझे रहते हैं. आंबेडकर अमरीकी खेती के तरीकों का उल्लेख करते हैं और भारत में उसे दोहराने की बात करते हैं.
हालांकि डॉ आंबेडकर चाहते थे कि वो भारत को अमरीका की तरह औदयोगिक और शहरी सभ्यता बनाएं, उनके अनुयायी उनके इन विचारों के बारे में कुछ जानते ही नहीं.
1918 के दौर में कोलंबिया विश्वविद्यालय में आंबेडकर की जो विचारधारा थी वो उनके आख़िरी वक्त तक उनके साथ रही. बौद्ध धर्म अपनाकर उन्होंने सभी भारतीयों को करुणा और भाईचारे का संदेश दिया.
आंबेडकरवाद से मैं समझता हूं कि- संविधान और पूंजीवाद से जाति व्यवस्था का विनाश होगा और भारत एक औद्योगिक सभ्यता बनेगी.
आंबेडकर ने पूंजीवाद को संविधान के साथ एक सूत्र में पिरो दिया था और मैं मानता हूं कि यही आंबेडकरवाद है.












