You’re viewing a text-only version of this website that uses less data. View the main version of the website including all images and videos.
ब्लॉग: दलितों और आदिवासियों को सुरक्षा चाहिए या ब्राह्मण को?
- Author, राजेश जोशी
- पदनाम, रेडियो एडिटर, बीबीसी हिंदी
अब तक जो काम चोरी-छिपे, दबी ज़बान में और पीठ पीछे होता था अब वो ऊँची आवाज़ में, खुलेआम जाँघ ठोककर होगा और अगर जाँघ ठोकने वाले की किसी मजबूरी में गिरफ़्तारी करनी ही पड़ी तो पहले पुलिस लिखित अर्जी देगी - हुज़ूर की इजाज़त हो तो गिरफ़्तारी डाली जाए.
दलितों को गाली दीजिए, उन्हें तरह-तरह के अपमानजनक विशेषणों से पुकारिए, उनके साथ भेदभाव कीजिए, उनको बताइए कि हमारे सभ्य समाज में उनकी जगह कहाँ पर है - आपका कौन क्या बिगाड़ लेगा?
आदिवासियों पर रौब गाँठिए, उन्हें मजूरी मत दीजिए, उनकी मुर्ग़ी और बकरी उठा लाइए - आपका कौन क्या बिगाड़ लेगा?
ज़्यादा से ज़्यादा 'ये लोग' पुलिस के पास शिकायत लेकर जाएंगे. तो क्या पुलिस आपको तुरंत गिरफ़्तार करने आएगी?
जी नहीं. क्योंकि क़ानून अब उनके साथ है जो मानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू की विरासत ने दलितों और आदिवासियों को ज़रूरत से ज़्यादा सिर पर चढ़ा रखा है.
'मेरिट के तरफ़दार'
जो मानते हैं कि रिज़र्व्ड सीट वाले 'ये लोग' आरक्षण के ज़रिए डॉक्टर बन जाते हैं और फिर ग़लत ऑपरेशन करके मरीज़ को मार डालते हैं.
जो ख़ुद लाखों रुपये डोनेशन देकर अपने बेटे-बेटियों को मेडिकल कॉलेज पहुँचाने में कभी हिचक महसूस नहीं करते मगर जब बहस आरक्षण पर हो रही हो तो मेरिट के तरफ़दार बन जाते हैं.
जो किसी उराँव, कोल, भील, गोंड, पासी, कोइरी, निषाद, धोबी, दुसाध, तेली, कुम्हार, कुँजड़े या केवट को कलेक्टर और डिप्टी कलेक्टर की कुर्सी पर बैठा देखकर मन ही मन कुढ़ते रहते हैं और आपसी हँसी मज़ाक में उन्हें 'सरकारी दामाद' जैसे विशेषणों से अलंकृत करते हैं.
अगर किसी दलित ने ऐसे 'हँसी-मज़ाक' की पुलिस में शिकायत कर भी दी तो घबराने की कोई बात नहीं है.
'पूरी तहक़ीक़ात करनी होगी...'
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यूयू ललित ने 20 मार्च को स्पष्ट कर दिया है कि अब किसी दलित या आदिवासी की शिकायत पर तुरंत गिरफ़्तारी नहीं की जा सकती.
किसी भी सरकारी अधिकारी या नागरिक को अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति क़ानून के तहत गिरफ़्तार करने से पहले पुलिस को पूरी तहक़ीक़ात करनी होगी.
पुलिस में डीएसपी रैंक का अधिकारी पहले इस बात की जाँच करेगा कि आरोपों में दम है या शिकायत सिर्फ़ 'सतही' है.
अगर शिकायत किसी सरकारी अधिकारी के ख़िलाफ़ है तो गिरफ़्तारी से पहले उसे नियुक्त करने वाले अफ़सर से लिखित में इजाज़त लेनी होगी.
अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो उसकी गिरफ़्तारी के लिए पुलिस के एसएसपी से लिखित इजाज़त लेनी होगी.
ज़मानत का इंतज़ाम
और अगर गिरफ़्तारी करनी ही पड़ी तो ज़मानत की भी व्यवस्था कर दी गई है.
यानी दलितों और आदिवासियों को समाज की अगड़ी और समर्थ जातियों के प्रकोप से बचाने के लिए आज से लगभग तीस साल पहले जो क़ानून बनाया गया था, आज ये मान लिया गया है कि दलित अपने सवर्ण अफ़सरों को झूठे आरोपों में फँसाने के लिए या निजी दुश्मनी के कारण कई बार इस क़ानून का दुरुपयोग करते हैं.
संरक्षण की ज़रूरत दलितों को थी पर सुरक्षा सवर्णों को मिल रही है.
और ये तब हो रहा है जब गुजरात के उना में गाय का चमड़ा खींचने वाले दलित नौजवानों को सरेआम डंडों से पीटा जाता है.
जब ख़बरों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार मुज़फ़्फ़रनगर में दंगा करने वालों से मुक़दमें वापिस ले रही है, मगर दलित नौजवान चंद्रशेखर आज़ाद 'रावण' को कई मामलों में ज़मानत मिलने के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाकर जेल से रिहा नहीं होने दिया गया है.
दलित और आदिवासी
अनुसूचित जाति-जनजाति क़ानून को और मज़बूत करने की माँग के लिए बनाए गए दलित संगठनों के एक राष्ट्रीय गठबंधन का कहना है कि देश में औसतन हर 15 मिनट में चार दलितों और आदिवासियों के साथ ज़्यादती की जाती है.
रोज़ाना तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है, 11 दलितों की पिटाई होती है. हर हफ़्ते 13 दलितों की हत्या की जाती है, पाँच दलित घरों को आग लगा दी जाती है, छह दलितों का अपहरण कर लिया जाता है.
इस संगठन के मुताबिक़ पिछले 15 बरसों में दलितों के ख़िलाफ़ ज़्यादती के साढ़े पाँच लाख से ज़्यादा मामले दर्ज किए गए.
कुल मिलाकर डेढ़ करोड़ दलित और आदिवासी प्रभावित हुए हैं.
सन 2013 में दलितों पर ज़्यादती के 39,346 मुक़द्दमे दर्ज हुए थे. अगले साल ये आँकड़ा बढ़कर 40,300 तक पहुँचा. फिर 2015 में दलितों के ख़िलाफ़ ज़्यादती के 38,000 से ज़्यादा मुक़दमे दर्ज हुए.
दलित-आदिवासियों पर अत्याचार
दलितों और आदिवासियों पर ज़्यादती का ये रिकॉर्डेड आँकड़ा अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण क़ानून बनाए जाने के बाद का है.
यानी समाज की समर्थ जातियों के लोग तब भी दलित-आदिवासियों पर अत्याचार करते रहे थे जब ये क़ानून काफ़ी कड़ा था और ज़्यादती करने वाले को ज़मानत तक न मिलने का डर रहता था.
आज सुप्रीम कोर्ट ने उस डर को भी दूर कर दिया है और सुप्रीम कोर्ट पुलिस के एसपी से उम्मीद कर रहा है कि वो किसी ग़रीब आदिवासी की शिकायत पर इलाक़े के दबंग छवि वाले सवर्ण व्यक्ति की गिरफ़्तारी की इजाज़त लिखित में देगा.
या किसी दलित कर्मचारी की शिकायत पर किसी ब्राह्मण या ठाकुर अफ़सर की गिरफ़्तारी की अनुमति आसानी से दे दी जाएगी.
भारत का सुप्रीम कोर्ट
इस बात को भी याद रखना ज़रूरी है कि बीच-बीच में आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने का सुझाव उस संगठन की ओर से आता है जिसके स्वयंसेवक केंद्र और राज्यों में सरकार चला रहे हैं.
आख़िर में सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह के एक ट्वीट को पढ़ें.
उन्होंने लिखा, "भारतीय सुप्रीम कोर्ट के दो ऊँची जाति के जजों ने अनुसूचित जाति-जनजाति क़ानून को दलितों और आदिवासियों की हिफ़ाजत की बजाए ब्राह्मणों की हिफ़ाज़त के क़ानून में बदल दिया है. फिर आश्चर्य की क्या बात है कि सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति और जनजाति का कोई जज है ही नहीं."
'ब्राह्मण सुरक्षा क़ानून'
सती प्रथा के ख़िलाफ़ 1829 में क़ानून न बनता तो इस बात की पूरी आशंका है कि अब भी कई युवा विधवाओं को उनके पति की चिता में जलाकर मार दिया जाता और परंपरा के नाम पर ऐसी हत्याओं का जश्न मनाया जाता.
क़ानून बनने के बावजूद तीस साल पहले राजस्थान के देवराला गाँव में 18 बरस की विधवा रूपकुँवर को उसके पति की चिता में जल जाने दिया गया और बहुत से नेताओं ने बाक़ायदा मूँछों पर ताव देकर इस हत्या का महिमामंडन किया.
इसी तरह दलितों और आदिवासियों को रोज़ाना होने वाले सार्वजनिक अपमान और मारपीट से बचाने के लिए 1989 में बनाए गए क़ानून से उनके ख़िलाफ़ होने वाली ज़्यादतियाँ भले ही ख़त्म नहीं हुई हों पर इस क़ानून का डर ज़रूर बना हुआ था.
अब सुप्रीम कोर्ट को ये सुनिश्चित करना है कि उसके फ़ैसले से दलित-आदिवासी अत्याचार विरोधी क़ानून कहीं 'ब्राह्मण सुरक्षा क़ानून' में न बदल जाए - जैसा अंदेशा इंदिरा जयसिंह ने ज़ाहिर किया है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)