वीरशैव लिंगायत और लिंगायतों में क्या अंतर है?

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- Author, इमरान कुरैशी
- पदनाम, बेंगलुरु से, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
कर्नाटक सरकार ने फ़ैसला लिया है कि वो लिंगायत समुदाय को एक अलग धर्म के रूप में दर्जा देने की सिफ़ारिश केंद्र सरकार के पास भेजेगी.
सरकार के इस फ़ैसले के अड़तालीस घंटे बाद मेरे मित्र के घर पर काम करने वाली महिला के मन में सवाल उठते हैं.
वो कहती हैं, "मुझे नहीं पता अम्मा मैं हिंदू हूं या लिंगायत. मैं परेशान हूं, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है."
ये सवाल केवल उनके मन में नहीं है जो लोगों के घरों में काम करती हैं और फिर मंदिर या मठ में जाकर ईश्वर से प्रार्थना करती हैं.
उनके जैसे कई लोग हैं जो अब ये सोचने के लिए बाध्य हो गए हैं कि वो वीरशैव लिंगायत हैं या लिंगायत हैं.

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एक सिक्के के दो पहलू
व्यवसायी संतोष केनचंबा ने बीबीसी से कहा, "मेरे लिए वीरशैव लिंगायत और लिंगायत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. हम कर्नाटक के ग्रामीण इलाकों में पले-बढ़े हैं और बचपन से ये मानते आए हैं कि हम वीरशैव और लिंगायत दोनों ही हैं. हम दोनों की संस्कृतियों और आस्थाओं का आदर करते हैं और उनका पालन करते हैं."
केनचंबा कहते हैं, "हमने उनके वचनों (12वीं सदी के जाने-माने दार्शनिक और संत बासवेश्वरा के वचनों) को सुना है. हम इष्ट लिंग की पूजा (आत्मा को ईश्वर मानते हैं) भी करते हैं. हम संक्रांति, उगाड़ी, बासवा जयंती और अन्य त्योहार मनाते हैं. मैं दोनों को एक जैसा ही मानता हूं."
केनचंबा की समस्या ये है कि उन्हें इसमें "कोई संदेह नहीं है कि वो क्या हैं, लेकिन कई लोग उनसे सवाल करते हैं कि वो वीरशैव हैं या लिंगायत."
आख़िर वीरशैव लिंगायत और लिंगायत कौन हैं और ईश्वर की प्रार्थना के संबंध में उनके क्या तरीके हैं?

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शोषण के ख़िलाफ़ दर्शन
डॉक्टर चिन्मया चिगाटेरी कहते हैं, "उस वक्त समाज में जिस तरह का शोषण था बासवेश्वरा का दर्शन उसी के अनुरूप था. उन्होंने कहा था कि मंदिर में जाकर ईश्वर से प्रार्थना करने के लिए आपको किसी पंडित या मध्यस्थ की ज़रूरत नहीं है. आप ख़ुद अपने लिए पूजा करने में सक्षम हैं. पंडित भगवान तक आपकी पहुंच बनाने के लिए होता है."
हालांकि चिगाटेरी कहते हैं, "ये एक अन्य धर्म की तरह शुरू नहीं हुआ था. ये बस एक अलग दृष्टिकोण था. आप कह सकते हैं कि हमलोग कुछ-कुछ प्रोटेस्टैंट हिंदू की तरह हैं. हम रूढ़िवादी व्यवस्था को मानना नहीं चाहते. लेकिन हम किसी धर्म की जगह अन्य धर्म की बात भी नहीं करते."
तो चिन्मया चिगाटेरी ख़ुद को क्या कहते हैं- हिंदू या लिंगायत?

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कर्मकांड पर भरोसा नहीं
चिगाटेरी कहते हैं, "मेरी निजी राय ये है कि हम कोई अलग धर्म नहीं है. हिंदू धर्म में कई मत हैं और ये किसी अन्य धर्म के तौर पर नहीं बना था. पूजा करने के दौरान हम अभिषेक, अगरबत्ती जलाना और लिंग को फूलों से सजाने जैसे काम करते हैं. ये कुछ ऐसे काम हैं जिनकी जड़ें हिंदू धर्म में हैं."
वचन से संबंधित साहित्य के लेखक डीपी प्रकाश करते हैं, "अगर हिंदू एक धर्म है तो एक सच्चा लिंगायत आपसे पूछेगा कि गुरु कौन हैं. लिंगायत ये मानते हैं कि के बासवन्ना यानी बासवेश्वरा ही आध्यात्मिक गुरु हैं. वो मंदिर जाने, अभिषेक करने, घर में हवन या पूजा करने या नामकरण जैसे कर्मकांडों पर यकीन नहीं करते और इनका पालन नहीं करते."

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कब से दिखने लगा अंतर?
प्रकाश कहते हैं, "वो व्यक्ति जो बासवन्ना का अनुसरण करता है, इन रिवाज़ों का पालन नहीं करता और वो शैवों से अलग होता है. वीरशैव पर शैवों का प्रभाव अधिक दिखता है. वो शिव और अन्य देवी-देवताओं में विश्वास करते हैं और हिंदू त्योहारों का पालन करते हैं."
"वीरशैव स्थावर लिंग (यानी एक ही जगह पर स्थिर लिंग) की पूजा करते हैं, लेकिन इष्ट लिंग को गले में पहना जा सकता है और ये एक जगह पर स्थिर नहीं होता. जब भी किसी लिंगायत को पूजा करनी होती है वो अपने गले के इस शिवलिंग को अपनी हथेली पर रख कर प्रार्थना करता है. वीरशैव और लिंगायतों के बीच ये सबसे प्रमुख और सबसे बड़ा फ़र्क हैं. आपके और ईश्वर के बीच कोई और नहीं होता."
दोनों आस्थाओं के बीच अंतर उल्लेखनीय रूप से तब दिखना शुरू हुआ जब युवा शिक्षित हुए और सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ-साथ बासवेश्वरा के वचनों में उनकी रूचि बढ़ने लगी.

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शरीर ही मंदिर
बासवा समिति के अध्यक्ष अरविंद जत्ती कहते हैं, "पहले, मेरे जैसे लोग मंदिर और मठ जाते थे. मंदिर जाकर प्रार्थना करने की संस्कृति हमारे जीवन का हिस्सा बन गई थी. मैं मंदिर जाता था, लेकिन आज से लगभग तीन दशक पहले बासवेश्वर के वचनों को प्रकाशित किया गया, जिसके बाद युवाओं ने बासवन्ना के दर्शन को पढ़ा और समझा. इससे पहले जो लोग इसके बारे में कम जानते थे उन्हें वीरशैव मठ ही इस धर्म की जानकरी देते थे."
वो कहते हैं, "आज के युवाओं ने बासवन्ना के वचनों को पढ़ा है और वो विश्वास करने लगे हैं कि आपका शरीर ही आपका मंदिर है, जो बासवन्ना का दिया सिद्धांत है."
अरविंद जत्ती कहते हैं, "वीरशैव वैदिक संप्रदाय या सनातन धर्म की पद्धति का पालन करते हैं. हम एक दूसरे की नकल करने वाली भेड़ों की तरह मंदिर की संस्कृति का पालन करते थे, लेकिन अब ज्ञान प्राप्त करने के बाद इससे दूर हो रहे हैं."

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कितना बड़ा है मुद्दा?
अरविंद जत्ती के अनुसार इस बढ़ती दूरी के कारण ही कर्नाटक सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ा है कि वो लिंगायत को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने के लिए केंद्र सरकार से सिफ़ारिश करे.
वो कहते हैं कि इस मुद्दे को लेकर राजनीति अपने आप में एक अलग मुद्दा हो सकती है, लेकिन युवओं में इस तरह की प्रवृत्ति बढ़ रही है और ये निश्चित है कि इस मुद्दे पर अब गंभीर रूप से चर्चा छिड़ गई है.
जत्ती कहते हैं, "30 से 40 साल की उम्र के युवाओं में ये ट्रेंड तेज़ी से बढ़ रहा है."
संतोष केनचंबा भी इस बात पर सहमत हैं कि युवाओं में इस तरह की "भावना" मौजूद है, लेकिन वो कहते हैं कि ये इतना बड़ा मुद्दा नहीं जितना कि बनाया जा रहा है.
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