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भारत में बोहरा मुसलमान औरतों के खतने का काला सच
- Author, सिन्धुवासिनी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
अगर कोई आपके शरीर का एक हिस्सा जबरन काट दे तो? क्या इसे किसी भी तरह से सही ठहराया जा सकता है? नहीं न?
लेकिन ऐसा किया जा रहा है, ऐसा हो रहा है. भारत समेत दुनिया के कई देशों में. पुणे में रहने वाली निशरीन सैफ़ के साथ ऐसा ही कुछ हुआ था.
वो याद करती हैं, "तब मैं तक़रीबन सात साल की रही होऊंगी. मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन उस घटना की एक धुंधली सी तस्वीर मेरे जहन में आज भी मौजूद है."
निशरीन ने बीबीसी को बताया, "मां मुझे अपने साथ लेकर घर से निकलीं और हम एक छोटे से कमरे में पहुंचे जहां एक औरत पहले से बैठी थी. उसने मुझे लिटाया और मेरी पैंटी उतार दी."
भारत में खतना प्रथा
वो आगे बताती हैं, "उस वक़्त तो ज़्यादा दर्द नहीं हुआ, बस ऐसा लगा जैसे कोई सुई चुभो रहा है. असली दर्द सब कुछ होने के बाद महसूस हुआ. बहुत दिनों तक पेशाब करने में बेहद तकलीफ़ होती थी. मैं दर्द से रो पड़ती थी."
निशरीन जब बड़ी हुईं तो उन्हें पता चला कि उनका खतना किया गया था.
आम तौर पुरुषों का खतना किया जाता है लेकिन दुनिया के कई देशों में महिलाओँ को भी इस दर्दनाक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है.
भारत भी इनमें से एक है. यहां इस प्रथा का चलन बोहरा मुस्लिम समुदाय (दाऊदी बोहरा और सुलेमानी बोहरा) में है.
भारत में बोहरा आबादी आम तौर पर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में रहती है.
10 लाख से अधिक आबादी वाला यह समाज काफी समृद्ध है और दाऊदी बोहरा समुदाय भारत के सबसे ज्यादा शिक्षित समुदायों में से एक है.
निशरीन सैफ़ भी बोहरा मुस्लिम समुदाय से हैं और यही वजह है कि बचपन में उनका खतना किया गया.
क्या है महिलाओं का खतना?
इसे 'ख़फ़्ज़' या 'फ़ीमेल जेनाइटल म्युटिलेशन' (एफ़जीएम) भी कहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के मुताबिक, "एफ़जीएम की प्रक्रिया में लड़की के जननांग के बाहरी हिस्से को काट दिया जाता है या इसकी बाहरी त्वचा निकाल दी जाती है."
यूएन इसे 'मानवाधिकारों का उल्लंघन' मानता है.
दिसंबर 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें एफ़जीएम को दुनिया भर से ख़त्म करने का संकल्प लिया गया था.
महिला खतना के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इसे रोकने के मकसद से यूएन ने साल की 6 फ़रवरी तारीख़ को 'इंटरनेशनल डे ऑफ़ ज़ीरो टॉलरेंस फ़ॉर एफ़जीएम' घोषित किया है.
पूरे होश में दर्द से चीखती बच्चियां...
लड़कियों का खतना किशोरावस्था से पहले यानी छह-सात साल की छोटी उम्र में ही करा दिया जाता है. इसके कई तरीके हैं.
जैसे क्लिटरिस के बाहरी हिस्से में कट लगाना, या इसके बाहरी हिस्से की त्वचा निकाल देना.
खतना से पहले एनीस्थीसिया भी नहीं दिया जाता. बच्चियां पूरे होशोहवास में रहती हैं और दर्द से चीखती हैं.
पारंपरिक तौर पर इसके लिए ब्लेड या चाकू का इस्तेमाल करते हैं और खतना के बाद हल्दी, गर्म पानी और छोटे-मोटे मरहम लगाकर दर्द कम करने की कोशिश की जाती है.
बोहरा मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाली इंसिया दरीवाला के मुताबिक 'क्लिटरिस' को बोहरा समाज में 'हराम की बोटी' कहा जाता है.
बोहरा मुस्लिम मानते हैं कि इसकी मौजूदगी से लड़की की यौन इच्छा बढ़ती है.
इंसिया दरीवाला ने कहा, "माना जाता है कि क्लिटरिस हटा देने से लड़की की यौन इच्छा कम हो जाएगी और वो शादी से पहले यौन संबंध नहीं बनाएगी."
'ये बाल शोषण है'
इंसिया ख़ुशकिस्मत हैं क्योंकि उनकी मां ने उन्हें ये दर्द झेलने से बचा लिया था.
वो बताती हैं, "मेरी मां ने मुझे तो बचा लिया लेकिन वो मेरी बड़ी बहन को नहीं बचा पाईं. परिवार की ही एक महिला ने उसे फ़िल्म दिखाने के बहाने उसका ख़तना करवा दिया था."
उनकी बड़ी बेटी का खतना धोखे से कराया गया और जब उन्होंने उसे दर्द में तड़पते देखा तो ठान लिया कि अपनी छोटी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने देंगी.
इंसिया कहती हैं, मैं अपने समुदाय की औरतों की तकलीफ़ से वाकिफ़ हूं इसलिए आज इस क्रूर प्रथा के ख़िलाफ़ खुलकर आवाज़ उठा रही हूं."
40 साल की निशरीन भी दो बच्चियों की मां हैं और उन्होंने तय किया है कि वो उनका खतना नहीं करवाएंगी.
उन्होंने कहा, "ये चाइल्ड अब्यूज़ जैसा है. मेरा खतना हुआ लेकिन मैं अपनी बेटियों का खतना नहीं होने दूंगी."
'ख़तना करने की वजह बदल-बदलकर बताते हैं'
निशरीन को बताया गया था कि खतना 'हाइजीन' यानी साफ़-सफ़ाई के मक़सद से किया जाता है लेकिन अब वो जानती हैं कि इसका हाइजीन से कोई लेना-देना नहीं है.
इंसिया कहती हैं, "हमारे समुदाय के लोग खतना की वजहें बदल-बदलकर बताते रहते हैं. पहले वो कहते थे ये सफ़ाई के लिए है, फिर कहा कि लड़कियों की यौन इच्छा काबू में करने के लिए है और जब इसका विरोध हो रहा है तो कहते हैं यौन इच्छा बढ़ाने के लिए है."
वो पूछती हैं, "अगर ये वाक़ई यौन इच्छा बढ़ाने के लिए है तो सात साल की लड़की का खतना कराके वो क्या हासिल करना चाहते हैं? छोटी बच्ची को सेक्स और यौन इच्छा से क्या मतलब? ज़ाहिर है, वो हमें बेवकूफ़ बना रहे हैं."
भारत में एफ़जीएम के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू करने वाली मासूमा रानालवी कहती हैं कि इनमें से एक भी दावों में सच्चाई नहीं है और खतना का औरतों की ज़िंदगी पर बुरा असर ही पड़ता है.
'ज़िंदगी भर रहता है ख़तने का दर्द'
उन्होंने कहा, "खतना से औरतों को शारीरिक तकलीफ़ तो उठानी ही पड़ती है. इसके अलावा तरह-तरह की मानसिक परेशानियां भी होती हैं. उनकी सेक्स लाइफ़ पर भी असर पड़ता है और वो सेक्स एंजॉय नहीं कर पातीं."
निशरीन मानती हैं कि बचपन में खतना होने के बाद लड़कियों के लिए किसी पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि अक्सर घर के लोग ही उन्हें बहला-फुसलाकर खतना कराने ले जाते हैं.
उन्होंने कहा, "बचपन से पैदा हुआ ये अविश्वास लंबे वक़्त तक बना रहता है और किसी न किसी तरह औरतों की ज़िंदगियों पर असर डालता है."
'सहियो' और 'वी स्पीक आउट' जैसी संस्थाएं भारत में एफ़जीएम को अपराध घोषित करने और इस पर बैन लगाने की मांग कर रही हैं.
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, बेल्जियम, यूके, अमरीका, स्वीडन, डेनमार्क और स्पेन जैसे कई देश इसे पहले ही अपराध घोषित कर चुके हैं.
भारत में रोक क्यों नहीं?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक एफ़जीएम पर रोक लगाने की मांग करने वाली एक याचिका पर संज्ञान लेते हुए महिला और बाल कल्याण मंत्रालय से जवाब मांगा था.
मंत्रालय ने अपने जवाब कहा था कि भारत में एनसीआआरबी (नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) में एफ़जीएम से सम्बन्धित कोई आधिकारिक आंकड़ा है ही नहीं. इसलिए सरकार इस बारे में कोई फ़ैसला नहीं ले सकती.
'वी स्पीक आउट' की फ़ाउंडर मासूमा रानालवी कहती हैं, "सरकार ये क्यों नहीं समझती कि जब एफ़जीएम को देश में अपराध माना ही नहीं जाता तो एनसीआरबी में इसके आंकड़े कहां से आएंगे?"
मासूमा आगे कहती हैं, "दूसरी बात ये कि बच्चियों का खतना बहुत छोटी उम्र में कराया जाता है. उस वक़्त उन्हें कुछ पता ही नहीं होता, फिर वो पुलिस को कैसे बताएंगी? और फिर खतना कराते ही घरवाले हैं, तो बात बाहर कैसे आएगी?"
इंसिया की सलाह है कि सरकार बोहरा समुदाय और एफ़जीएम पर हुई रिसर्च स्टडी पढ़े, इस बारे में काम करने वालों से बात करे और फिर कोई फ़ैसला ले.
डॉक्टर भी इसमें शामिल हैं
उन्होंने कहा, "इसके साथ ही सरकार को बोहरा समुदाय के धार्मिक नेताओं से भी बात करनी चाहिए, उनके दख़ल के बिना इस अमानवीय परम्परा को ख़त्म करना बहुत मुश्किल है."
मासूमा बताती हैं कि इन दिनों एक नया चलन देखने को मिल रहा है.
पढ़े-लिखे और हाई-प्रोफ़ाइल बोहरा परिवार अपनी बच्चियों का खतना कराने के लिए डॉक्टरों के यहां ले जाते हैं.
उन्होंने कहा, "चूंकि खतना मेडिकल प्रैक्टिस है ही नहीं इसलिए डॉक्टरों को भी इस बारे में कुछ पता नहीं होता फिर भी पैसों के लिए वो भी इसमें शामिल हो जाते हैं. ये सब बिल्कुल गुपचुप तरीके से होता है और कोई इस बारे में बात नहीं करता."
मासूमा ने इस बारे में मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया को चिट्ठी भी लिखी है लेकिन उन्हें अब तक कोई जवाब नहीं मिला है.
वो कहती हैं, "एफ़जीएम रोकने के लिए हमें डॉक्टरों के मदद लेनी होगी. जैसे जन्म से पहले लिंग की जांच को गैरक़ानूनी घोषित किया गया, वैसे ही खतना को भी ग़ैरकानूनी करार दिया जाना चाहिए."
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