नज़रिया: प्रधानमंत्री मोदी का दावोस में भाषण कितना ऐतिहासिक?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को स्विट्ज़रलैंड के दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम के उद्घाटन सत्र को संबोधित किया. उन्होंने वहां जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद को दुनिया की सबसे बड़ी चिंता बताया.

प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन को कितन सफ़ल माना जाए?

इसका आकलन करने के लिए बीबीसी संवाददाता मोहम्मद शाहिद ने वरिष्ठ पत्रकार एवं इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी से बात की.

पढ़िए उनका नज़रिया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण का आकलन कई तरीके से किया जा सकता है. प्रधानमंत्री से क्या अपेक्षा थी और वह किस पर बोले? क्योंकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम 1991 भूमंडलीकरण के बाद बना सबसे बड़ा मंच है.

प्रधानमंत्री का भाषण सामान्य रूप से जैसा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर होता है, वैसा ही था. उन्होंने कई विषयों को छूने की कोशिश की. मुख्य स्वर यह था कि भारत सबसे जुड़कर और मिलकर चलने वाला देश है और भारत की संस्कृति का जुड़ाव पूरी दुनिया के प्रति है.

जलवायु परिवर्तन उनकी पसंदीदा थीम है. विश्व व्यापार और भूमंडलीकरण पर उनके भाषण में थोड़ा संदर्भ था. इससे ज़्यादा उनसे सुनने की अपेक्षा थी. डेटा मैनेजमेंट और अपनी सरकार पर भी उन्होंने बात की.

अगर इसको विश्लेषण की दृष्टि से समझने की कोशिश करें तो प्रधानमंत्री के पास ठोस ढंग से संकेत देने का मौका था. 2008 के बाद मंदी को पूरे 10 साल हो गए हैं लेकिन पिछले साल से दुनिया की अर्थव्यवस्था में वृद्धि के संकेत दिख रहे हैं.

ऐसे मौके पर दुनिया के अधिकतर देश भारत से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं. भारत के साथ अमरीका, कनाडा, यूरोपियन यूनियन, इसराइल और ब्रिटेन का फ़्री ट्रेड इन्वेस्टमेंट (एफ़टीए) पाइपलाइन में है. इसको देखते हुए प्रधानमंत्री से अपेक्षा थी कि वह इस मंच का प्रयोग भारत की उदार और भूमंडलीकरण की छवि को और पुख़्ता करने का संकेत देंगे.

हालांकि, वह दिखा नहीं लेकिन उन्होंने व्यापक चीज़ों को स्पष्ट किया. मगर बहुत से लोग इस उम्मीद से दावोस का भाषण सुन रहे हों कि भारत भूमंडलीकरण और उदारीकरण के नए दौर की घोषणा करेगा तो उससे निराशा हुई.

व्यापार के लिहाज़ से कितना लुभा पाया भारत?

प्रधानमंत्री मोदी को भारत को व्यापार के लिए प्रस्तुत करने की कोई चिंता नहीं है. 1991 से भारत वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम पर 1991-92 के बाद से सक्रिय है. दुनिया में जब भी कभी आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण से जुड़ने की बात होती है तो भारत को अलग रखकर सोचा ही नहीं जा सकता है.

दुनिया का ऐसा कौन-सा मंच है जहां भारत की संभावनाओं पर चर्चा नहीं होती. भारत के प्रधानमंत्री उन मंचों पर जाएं न जाएं लेकिन भारतीय प्रतिनिधि वहां शामिल होते रहे हैं.

दुनिया के व्यापारिक संदर्भों को भारत से काटकर नहीं देखा जा सकता है. भूमंडलीकरण की प्रतियोगिता भारत को देखकर होती रही है. 1991 के बाद यह स्थापित भी हो चुका है.

लेकिन भारत से दुनिया की अब यह अपेक्षा है कि वह भूमंडलीकरण और उदारीकरण के अगले दौर में कब छलांग लगाने जा रहा है.

दुनिया में जिस तरह का आर्थिक ध्रुवीकरण हो रहा है, उसमें भारत अमरीका के साथ है या चीन के साथ यह सब जानना चाहते हैं. साथ ही भारत सरकार से इन पर स्पष्ट संकेतों की चर्चा थी लेकिन इस मंच से ऐसे कोई संकेत नहीं मिले.

वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम ऐतिहासिक होगा?

किसी भी फ़ोरम में कंपनियां कोई निवेश के फ़ैसले नहीं करती और न ही सरकारें एफ़टीए की योजना बनाती हैं.

ऐसे फ़ोरम अधिकतर लोगों को एक जगह लाते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि दुनिया का ट्रेंड क्या है. इस फ़ोरम को दूसरे परिपेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है. 2008 की मंदी के पहले से यह फ़ोरम चैंपियन संगठन था और इसे दुनिया के अमीर उद्योगपतियों ने बनाया था.

लेकिन 2008 के बाद इसे अपने संवाद की प्रक्रिया में परिवर्तन करना पड़ा. इसकी बातें अब संयुक्त राष्ट्र या किसी समाजवादी अर्थव्यवस्था के मॉडल की हैं. 2008 की मंदी से पहले यह फ़ोरम जिस तरह से था वैसा अब नहीं है.

यहां से कोई निवेश आएगा तो यह भूल होगी. प्रधानमंत्री ने इस मंच पर जाकर दुनिया की भारत को लेकर उत्सुकता बढ़ाने की कोशिश की है.

हमें समझना होगा कि इस समय हम दुनिया के आर्थिक उदारीकरण की दूसरी पीढ़ी में खड़े हैं. 2018 में दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं जब मंदी से निकलेंगी तो वह नए तरीके से वैश्विक आर्थिक रिश्तों को लिखेंगी जिसमें नए तरीके के समझौते होंगे.

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