नज़रिया: मौजूदा दलित उभार का सोशल मीडिया कनेक्शन क्या है?

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- Author, दिलीप मंडल
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
भारत में पिछले कुछ साल से दलित बेहद आंदोलित हैं. उनकी नाराजगी कई कारणों से है. यह नाराजगी अब सड़कों पर नजर आ रही है और शहरी जीवन को प्रभावित करने लगी है. मुंबई के तमाम लोगों ने हाल ही में इसे महसूस किया.
हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या, जिसे सांस्थानिक हत्या भी कहा जा रहा है, के बाद से पूरे देश में आंदोलन खड़ा हो गया और लोग सड़कों पर आ गए.
नई दलित चेतना से देश के साक्षात्कार का यह पहला बड़ा मौका था. इस आंदोलन की आख़िरी परिणति केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की मंत्रालय से विदाई के रूप में हुई.

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दलित आंदोलनों की बाढ़
इसके बाद से तो मानो दलितों के आंदोलनों की बाढ़ सी आ गई. राजस्थान की दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल की लाश जब राजस्थान के बीकानेर में हॉस्टल के पानी के टैंक में तैरती पाई गई, तो ऐसा ही एक और आंदोलन खड़ा हो गया. सरकार को आख़िरकार सीबीआई जांच का आदेश देना पड़ा.
इसके बाद ऊना में मरी गाय की खाल उतार रहे दलितों की पिटाई का वीडियो जब वायरल हुआ तो इसकी प्रतिक्रिया में गुजरात और पूरे देश में प्रदर्शन हुए. आखिरकार गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को जाना पड़ा.
और अब ताजा घटना भीमा कोरेगांव के सालाना जलसे पर उपद्रवियों के हमले के बाद प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ दलित आंदोलन है.
क्या यह मिलियन म्युटिनीज़ का समय है?
इस बीच दलित उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सहारनपुर में भीम आर्मी का उभार भी देश देख चुका है. इसके अलावा छिटपुट आंदोलनों की तो कोई गिनती ही नहीं है. क्या यह सचमुच 'मिलियन म्युटिनीज़' यानी लाखों विद्रोह का समय है?
शायद हां, या शायद नहीं. लेकिन इतना तय है कि भारत के दलित नाराज हैं और वे अपनी नाराजगी का इजहार भी कर रहे हैं.
इन तमाम आंदोलनों में एक बात गौर करने लायक है. इनमें से हर आंदोलन उत्पीड़न की किसी घटना के बाद स्वत:स्फूर्त तरीके से उभरा. इनमें से किसी के पीछे कोई योजना नहीं थी और न कोई ऐसा संगठन था, जो इन आंदोलनों को राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय रूप देता.
क्या है आंदोलनों का कारण?
ये आंदोलन किसी राजनीतिक दल के चलाए हुए नहीं थे और किसी बड़े जमे-जमाए नेता की सरपरस्ती इन आंदोलनों को हासिल नहीं थी.
फिर ऐसा क्या हुआ कि रोहित वेमुला की लाश मिलने के अगले दिन दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हड़ताल हो जाती है और सैकड़ों छात्र मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आगे प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हो जाते हैं?
या ऐसा कौन सा सूत्र है जिसके आधार पर यह समझा जा सके कि राजस्थान में डेल्टा मेघवाल की लाश मिलने के अगले दिन बेंगलुरु के टाउन हॉल पर लोग क्यों इकट्ठा हो जाते हैं और दोषियों को गिरफ़्तार करने की मांग करते हैं.
यही सब ऊना कांड के बाद हुआ और भीमा कोरेगांव की घटना के बाद भी. हर चिनगारी जंगल में आग लगा रही है. इन तमाम घटनाओं में यह देखा जा रहा है कि दलित आक्रोश को अखिल भारतीयता हासिल होने में अब देर नहीं लगती. कई बार यह चंद घंटों में हो जा रहा है.
सवाल उठता है कि जब इन आंदोलनों के पीछे को राष्ट्रीय या राज्य स्तर का संगठन नहीं है, तो किसके कहने या करने से ये आंदोलन इस तरह का विस्तार हासिल कर ले रहे हैं?
दलित उत्पीड़न नई बात नहीं
दलित उत्पीड़न इस देश के लिए कोई नई बात नहीं है. दलितों के बड़े-बड़े नरसंहार इस देश में हुए हैं. दलितों को मार कर फेंक देने या उनके साथ बलात्कार जैसी घटनाएं होती रही हैं.
अब जो नई चीज हुई है, वह है दलितों की ओर से हो रहा प्रतिकार. इन आंदोलनों के ज़रिए दलित यह कह रहे हैं कि सब कुछ अब पहले की तरह नहीं चलेगा. यह दलितों के अंदर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का मामला है. यह उनके नागरिक बनने का मामला है.
सवाल यह है कि प्रतिकार की ये चेतना लोगों के बीच फैल कैसे रही हैं? खासकर तब, जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया आम तौर पर दलितों की ख़बरों की अनदेखी करता है, या फिर उनके नज़रिए से खबरें नहीं देता.
सोशल मीडिया का दौर
दरअसल, सूचना टेक्नोलॉजी ने इन सबमें अनजाने में एक बड़ी भूमिका निभाई है. पिछले दस साल में लगभग हर गांव-कस्बे तक और कई जगह तो हर हाथ में मोबाइल फ़ोन पहुंच गया है. यानी लोगों के पास सूचना-दुख-दर्द-खुशी आदि को बांटने का एक ज़रिया आ गया है.
भारत में मोबाइल कनेक्शन की संख्या 100 करोड़ को पार कर चुकी है. मोबाइल फ़ोन ने लाखों गांवों और हजारों शहरों में बिखरे दलितों के दर्द को साझा मंच दे दिया है.
इसका अगला पड़ाव सोशल मीडिया की वजह से आया. पिछले दस साल के अंदर भारत में स्मार्ट फ़ोन का चलन तेजी से बढ़ा है और इसके साथ ही करोड़ों लोग फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप से जुड़ गए हैं. भारत में इस साल की शुरुआत में 42.9 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन थे. यह संख्या बढ़ रही है.
इन लोगों का काफ़ी बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया से जुड़ा है. भारत में ज़्यादातर लोग स्मार्ट फ़ोन पर इंटरनेट एक्सेस करते हैं. इसलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में लगभग 30 करोड़ स्मार्ट फ़ोन हैं. जाहिर है कि यह संख्या भी बढ़ने ही वाली है.
दुनिया के विकसित देशों में सोशल मीडिया छोटे स्तर पर कम्युनिटी बिल्डिंग और आपसी बातें शेयर करने का ज़रिया है. लेकिन विकासशील और ग़रीब देशों में सोशल मीडिया ने राजनीतिक विचारों और राजनीतिक सवालों में हस्तक्षेप किया है.
सोशल मीडिया और इंटरनेट पर पाबंदी
अरब से लेकर म्यांमार और ईरान से लेकर चीन तक में सोशल मीडिया का एक सामाजिक-राजनैतिक संदर्भ है. भारत भी इस प्रक्रिया से अछूता नहीं है.
इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि इन देशों में जब कोई आंदोलन बड़ा होता दिखता है तो सरकार सबसे पहले सोशल मीडिया और इंटरनेट पर पाबंदी लगाती है. यह भारत में भी होने लगा है.
अगर इतिहास को देखें तो दलितों को पढ़ने और लिखने का मौका बहुत देर से मिला है. अपनी बात बहुत लोगों तक पहुंचाने के लिए जिन माध्यमों और जिस कौशल की जरूरत होती है, वह उनके पास कुछ दशक पहले तक नहीं था. लेकिन मोबाइल फ़ोन और सोशल मीडिया ने उनके सामने एक मौका खोल दिया है और उनके बीच हो रहे आपसी संवाद की लहर अब बाढ़ का रूप ले चुकी है.
सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं दलित
दलितों के हज़ारों व्हाट्सऐप ग्रुप लगातार तमाम तरह की जानकारियां शेयर कर रहे हैं. ये जानकारियां सही भी हो सकती हैं और ग़लत भी. लेकिन जानकारियों का ग़लत होना वर्चुअल मीडिया की समस्या है और दलितों के ग्रुप्स के साथ भी अगर यह समस्या है, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं है.
फ़ेसबुक पर दलितों और बहुजनों के सैकड़ों ग्रुप है, जिनकी सदस्य संख्या एक लाख से ऊपर है, कई दलित एक्टिविस्ट के हजारों और लाखों फोलोवर्स हैं.
दलितों के सोशल मीडिया में सक्रिय होने से उनके अंदर ग्रुप बनने की प्रक्रिया शुरू हुई है. जो दुख पहले किसी के लिए अकेला दुख होता था, अब उन्हें पता चला कि यह तो हज़ारों और शायद लाखों लोगों का दुख है.
उसी तरह उन्हें पता चला कि वे जिन समाज सुधारकों की जयंती का जश्न अकेले मनाते हैं, वह जश्न तो लाखों लोग मनाते हैं. साझा दुख और साझा सुख और साझा सपनों ने उस समूह को आपस में जोड़ दिया है, जिनके पास पहले एकजुट होने के अपने माध्यम नहीं थे.
सोशल मीडिया समूह मज़बूत होंगे
आने वाले दिनों में यह प्रक्रिया और तेज़ होगी. हालांकि इस बारे में कोई शोध नहीं हुआ है, लेकिन यह माना जा सकता है कि पहले चरण में शहरी, इलीट और भारतीय समाज के आगे बढ़े हुए हिस्से ने मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट को अपनाया.
अब इस समूह का सूचना टेक्नोलॉजी से जुड़ना काफ़ी हद तक पूरा हो चुका है. आने वाले समय में अगर इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का विस्तार होता है, तो यह विस्तार गांवों और कस्बों में और साथ ही वंचित समूहों के बीच होगा.
बाजार का हित इनफॉर्मेशन टेकनोलॉजी के विस्तार में है, इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि ढेर सारे लोग आने वाले दिनों में मोबाइल और इंटरनेट से जुड़ेंगे और सोशल मीडिया का बेस तेज़ी से बढ़ेगा.
बाजार और परंपरा की इस जंग में बाजार को बढ़त हासिल है. बाजार में यूं भी लचीलापन है और जरूरत पड़ने पर वह परंपरा को पटा लेगा या ख़रीद लेगा.
ऐसे समय में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले समूह मज़बूत होंगे और उनकी चेतना को भी नया और मज़बूत स्वर मिलेगा. हाल के घटनाओं में इसके ही लक्षण दिख रहे हैं.




















