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क्या भारत में औरतों को पीरियड्स के दिनों में छुट्टी मिलेगी?
- Author, सिन्धुवासिनी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
क्या औरतों को पीरियड्स के दौरान ऑफ़िस के काम से छुट्टी मिलनी चाहिए? क्या ये उनका अधिकार नहीं है? क्यों अब तक भारतीय कंपनियां इस दिशा में नहीं सोच रहीं? क्या हमें इसके लिए क़ानून लाना होगा?
ऐसे कई सवाल काफ़ी वक़्त से पूछे जा रहे हैं और इन दिनों इस पर चर्चा ज़ोर पकड़ रही है. वजह है मेन्स्ट्रुएशन बेनिफ़िट बिल, 2017.
इसका प्रस्ताव अरुणाचल प्रदेश से सांसद निनॉन्ग एरिंग ने रखा है. कांग्रेस पार्टी के नेता निनॉन्ग लोकसभा में पूर्वी अरुणाचल का प्रतिनिधित्व करते हैं.
भारत में यह पहली बार है जब मासिक धर्म से जुड़ा इस तरह का कोई बिल संसद के सामने रखा गया है.
इसमें कहा गया है कि सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करने वाली महिलाओं को दो दिन के लिए 'पेड पीरियड लीव' यानी पीरियड्स के दौरान दो दिन के लिए छुट्टी दी जानी चाहिए और इन छुट्टियों के बदले उनके पैसे नहीं काटे जाने चाहिए.
मेन्स्ट्रुएशन बिल को लेकर लोगों की अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. कइयों ने इस पर ख़ुशी जताई है तो बहुत से लोग 'पेड पीरियड लीव' के प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं.
निनॉन्ग एरिंग ने बीबीसी से बातचीत में बताया कि उन्होंने अपने आस-पास के अनुभवों को देखकर लाने का ये बिल लाने का फ़ैसला किया.
उन्होंने कहा, "मेरे परिवार में मेरी पत्नी और दो बेटियां हैं. मेरी पत्नी पीरियड्स में भयानक दर्द से गुज़रती है. मेरी बेटियां भी मुझसे माहवारी से जुड़ी दिक्कतों के बारे में बात करती हैं.''
''इसलिए ये बात हमेशा मेरे दिमाग में थी. एक दिन मैंने ख़बर पढ़ी कि मुंबई की एक प्राइवेट कंपनी ने महिलाओं को पीरियड के पहले दिन छुट्टी देने का फ़ैसला किया है और यहीं से मेरे मन में बिल का विचार आया."
निनॉन्ग को अंदाज़ा है कि एक बड़ा तबका ऐसा है जो विधेयक के प्रावधानों का विरोध करेगा.
उन्होंने कहा, "कुछ लोगों ने मुझसे यहां तक पूछा कि मैं महिलाओं का इतने पर्सलन मुद्दा उठाने वाला कौन होता हूं. क्या एक पुरुष औरतों की तकलीफ़ नहीं समझ सकता?"
निनॉन्ग कहते हैं कि उन्होंने ये प्रस्ताव एक आदिवासी के तौर पर रखा है.
उन्होंने कहा, "मैं उत्तर-पूर्व का एक आदिवासी हूं. हमारे यहां आदिवासी समाज में मासिक धर्म को बड़े ही सामान्य तरीके से लिया जाता है. यहां न तो इसे शर्मिंदगी का विषय समझा जाता है और न ही कोई इस बारे में बातचीत से कतराता है.''
''भारत के बाकी हिस्सों में ख़ासकर उत्तर भारत में हालात बिल्कुल उलट हैं जहां मासिक धर्म के बारे में आज भी इशारों में और कानाफूसी करके बात की जाती है."
उनके इस प्रस्ताव को पुरुष कैसे लेंगे? क्या इसे लागू करना इतना आसान होगा?
निनॉन्ग ने कहा, "मैं जानता हूं कि एक बड़ा तबका शिक़ायत करेगा कि औरतें जब बराबर हैं तो फिर उन्हें ये ख़ास सुविधा क्यों. मेरा सवाल है कि अगर पुरुषों को भी हर महीने पीरियड्स होते तो भी इस प्रस्ताव पर इतना वाद-विवाद होता? पुरुष ख़ुद इस अनुभव से नहीं गुज़रते शायद इसीलिए उन्हें औरतों के दर्द का अंदाज़ा नहीं है."
इस बारे में निनॉन्ग एक और उदाहरण देते हैं.
उन्होंने कहा, "पुरुषों की शिक़ायत रहती है कि बच्चा होने के बाद औरतों को महीनों छुट्टी मिलती है जबकि पुरुषों को सिर्फ 15 दिन. क्या पुरुष भी नौ महीने तक बच्चे को पेट में रखते हैं? क्या वो भी बच्चे को जन्म देते हैं? क्या वो भी बच्चों को दूध पिलाते हैं और उनका उसी तरह ख़याल रखते हैं जैसे औरतें?"
पहले ही नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी कम है. क्या 'पेड पीरियड लीव' पॉलिसी से कंपनियां औरतों को हायर करने में कतराएंगी नहीं?
इसके जवाब में उन्होंने कहा, "ऐसा नहीं है. जापान, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में ये पॉलिसी काफ़ी पहले से है और वहां औरतों की काम में भागीदारी कम नहीं है. अगर चीजों को बड़े दायरे में रखकर देखा जाए तो इस पॉलिसी के फ़ायदे ही होंगे, नुक़सान नहीं."
निनॉन्ग एरिंग ने पिछले हफ़्ते सरकार से पूछा था कि क्या सरकार के पास ऐसी कोई नीति या योजना है जिसके तहत नौकरीशुदा महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान छुट्टी दी जा सके.
इस पर महिला और बाल कल्याण मंत्रालय की तरफ़ से आए जवाब में कहा गया कि फ़िलहाल ऐसी कोई योजना या प्रस्ताव नहीं है.
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में रिप्रोडक्टिव हेल्थ के प्रोफ़ेसर जॉन गिलबॉड ने एक रिसर्च में पाया था कि कई मौकों पर पीरियड का दर्द हार्ट अटैक जैसा तकलीफ़देह भी हो सकता है.
कई एशियाई देशों जैसे दक्षिण कोरिया, जापान, इंडोशनिया और ताइवन में महिलाओँ को 'पेड पीरियड लीव' दी जाती है. यूरोपीय देशों में भी कई कंपनियों ने महिला कर्मचारियों के लिए यह नीति लागू की है.
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