पोलियो और लकवे के बाद भी मिस्टर इंडिया बने

इमेज स्रोत, Joginder Saluja
- Author, प्रज्ञा मानव
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
जोगिंदर दस महीने के थे जब उन्हें पोलियो हुआ. जल्दी ही शरीर के ऊपरी हिस्से को भी लकवा मार गया.
13 साल तक आते-आते 14 ऑपरेशन हो चुके थे. असलियत के साथ तालमेल बैठाना आसान नहीं था, कई बार ख़ुदक़ुशी का ख़्याल भी आया.
लेकिन फिर एक दिन, जोगिंदर ने तय किया कि अपनी ज़िंदग़ी को ज़ाया नहीं होने देंगे.
''डीमोटिवेशन ने ही मेरे अंदर चिंगारी जलाई थी कि मैं आगे बढ़ूं और दुनिया को प्रूव करूं कि एक डिसएबल पर्सन, अगर उसकी इच्छाशक्ति मज़बूत हो तो वो कुछ भी कर सकता है.''

इमेज स्रोत, Joginder Saluja
बॉडी बिल्डर बनने का फ़ैसला
14 साल की उम्र में जोगिंदर ने जिम जॉइन करने की ठानी. कोई जिम राज़ी नहीं हुआ. डॉक्टर ने भी ऐसा न करने की सलाह दी लेकिन जोगिंदर नहीं माने. आख़िरकार एक जिम में दाख़िला मिला, लेकिन वहां भी इंस्ट्रक्टर को पता नहीं था कि जोगिंदर की मदद कैसे करें.
''हर कोई कहता था तुमसे नहीं हो पाएगा. शुरुआत में मैं दो किलो का डंबल भी नहीं उठा पाता था. लेकिन एक-दो महीने में सब ठीक होने लगा. मैंने डिसएबिलिटी को कभी आगे नहीं आने दिया. मेरी हीन भावना ने ही मुझे इतना मज़बूत बना दिया कि मैंने कभी पलटकर नहीं देखा.''

इमेज स्रोत, Joginder Saluja
सारे मुक़ाबले जीते
16 साल की उम्र में जोगिंदर बॉडीबिल्डिंग के मुक़ाबले में मिस्टर दिल्ली बने. इसके बाद इसी कैटिगरी में मिस्टर नॉर्थ इंडिया और फिर मिस्टर इंडिया का ख़िताब जीता. फिर अपने क़दम खेल की तरफ़ बढ़ा दिए.
''2006 में मैंने पहला कॉम्पिटिशन खेला. अपने पहले ही इवेंट में पैरा पावर लिफ़्टिंग की सीनियर श्रेणी में कांस्य पदक मिला और जूनियर में स्ट्रॉन्गमेन बना. तबसे लेकर अब तक मैं पैरा पावर लिफ़्टिंग में चैंपियन हूं. मैंने कई इंटरनेशनल इवेंट्स में भी देश को रिप्रेज़ेंट किया है.''

इमेज स्रोत, Joginder Saluja
जिम बनाया, विकलांग ट्रेनर रखे
2007-08 में जोगिंदर ने एक जिम बनाया जिसमें विकलांग समेत सभी लोग साथ कसरत कर सकें.
''मैं अपने जिम में ख़ुद भी विकलांग को ट्रेनिंग कराता हूं. मेरे जिम के मैनेजर, अकाउंटेंट और कई ट्रेनर विकलांग हैं.''

इमेज स्रोत, Joginder Saluja
कामयाबी की कहानियां
'सत्यमेव जयते' समेत कई टीवी कार्यक्रमों में आ चुके जोगिंदर ऐसे अकेले नहीं हैं, जिन्होंने विकलांगता को अपनी ज़िंदगी की कहानी लिखने नहीं दिया.
गैरसरकारी संगठन अमर ज्योति के ज़रिए विकलांग बच्चों के लिए काम कर रहीं डॉक्टर उमा तूली के पास ऐसे कई क़िस्से हैं.
''हमारे एक बच्चे ने व्हील चेयर पर स्पिनिंग के लिए गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया. आज उसका अपना थिएटर है. हमारी एक बच्ची आईएएस बनी. एक बच्ची है जिसके दोनों हाथ नहीं हैं, उसने चीन में कंप्यूटर ऑपरेशन का सुपर चैलेंजर मुक़ाबला जीता.''
उन्होंने कहा, ''एक बच्चा एक पांव से टेबल टेनिस खेलता है. हमारे स्किल कॉम्पिटिशन एबिलंपिक्स में एक बच्चा फ़ोटोग्राफ़ी में फ़र्स्ट आया, इनाम में मिले पैसे से उसने अपना स्टूडियो खोल लिया. मतलब ये है कि मौक़ा मिले तो ये बच्चे ज़िंदगी में बहुत बढ़िया करते हैं.''

इमेज स्रोत, Amar Jyoti Charitable Trust
लेकिन कितना आसान है मौक़ा मिलना?
NCPEDP (नेशनल सेंटर फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ एंप्लॉयमेंट फ़ॉर डिसएबल्ड पीपल) के निदेशक जावेद आबिदी की मानें तो देश के कई बड़े विश्वविद्यालयों में विकलांगों के लिए आरक्षित सीटें भी नहीं भरतीं.
''हमारे हालिया सर्वे में हमने 50 नामी-गिरामी यूनिवर्सिटी से संपर्क किया. 32 का जवाब मिला. मैं यह देखकर हैरान रह गया कि इतनी बड़ी 32 यूनिवर्सिटी की कुल सीटों का .05 प्रतिशत भी विकलांग जनों को नहीं जाता.''
उन्होंने कहा, ''ये यूनिवर्सिटी के दिए हुए आंकड़े हैं यानी इनमें विवाद की कोई गुंज़ाइश नहीं है. ऐसा नहीं है कि ये बच्चे होनहार नहीं होते. हमें सोचना चाहिए कि बच्चे आख़िर क्यों सामने नहीं आ रहे, और अगर आ रहे हैं तो टिक क्यों नहीं पा रहे.''

इमेज स्रोत, Amar Jyoti Charitable Trust
समझदार, संवेदनशील समाज ज़रूरी
डॉक्टर तूली को लगता है कि समस्या समाज के रवैये में है.
''वो कहते हैं ना, छू लेंगे हम आकाश भी, हमें धरती पर चलने की जगह तो दो.'' डॉक्टर तूली आख़िरी वाक्य पर ज़ोर देते हुए कहती हैं, ''असली एटीट्यूडिनल बैरियर तो लोगों का होता है जिन्हें उनकी शक्ति और टैलेंट का अंदाज़ा नहीं होता. उन्हें ये लगता है कि हाय, बेचारा कैसे करेगा.''

इमेज स्रोत, Amar Jyoti Charitable Trust
सिर्फ़ दाख़िला देना काफ़ी नहीं
जावेद आबिदी इंफ़्रास्ट्रक्चर की कमी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. ''ऐसा नहीं है कि यूनिवर्सिटी और कॉलेजों के पास पैसा नहीं है. लेकिन फिर भी कितने कैंपस डिसएबल्ड फ़्रेंडली हैं. केवल एडमिशन दे देना काफ़ी नहीं है, वॉट अबाउट द फ़ैसिलिटी?''
हालांकि दोनों यह भी मानते हैं कि बदलाव हो रहा है.

इमेज स्रोत, Amar Jyoti Charitable Trust
क़ानून है तो अमल में भी लाया जाए
''1947 से लेकर 1995 तक के समय को मैं हाफ़ ए सेंचुरी ऑफ़ वेस्ट कहता हूं.'' जावेद की आवाज़ में थोड़ी तल्खी झलकती है. ''1995 में क़ानून आया जिसके बाद पिछले 21-22 साल में जागरुकता काफ़ी बढ़ी है. कंपनियां ख़ासकर आईटी कंपनियां विकलांग जनों को नौकरी भी दे रही हैं. विकलांग अधिकार क़ानून 2016 भी आ गया है. हमें सरकार की नीयत पर शक़ नहीं है. उस पर अमल करने के लिए इच्छाशक्ति की कमी है.''

इमेज स्रोत, Amar Jyoti Charitable Trust
लड़ते रहेंगे लड़ाई
दिसंबर 2016 में आए विकलांग अधिकार क़ानून में सरकार को दो साल का समय दिया गया है जिसके अंदर सार्वजनिक परिवहन और इंफ़्रास्ट्रक्चर को बैरियर-फ़्री यानी सुलभ बनाना है. यह क़ानून निजी सेक्टर, यूनिवर्सिटी और कॉलेज पर भी लागू होता है.
''हमें पता है दही हथेली पर तो नहीं जमता, ज़ाहिर है लड़ाई लड़नी पड़ती है.'' जावेद आबिदी के इस वाक्य में आने वाले संघर्ष का इशारा है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)












