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नज़रिया: यूएन में सू ची नहीं गईं तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा?
रोहिंग्या संकट के बीच म्यांमार की नेता और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में न शामिल होने का फैसला लिया.
हालांकि, इसी दिन उन्होंने म्यांमार में ही अपने देशवासियों को संबोधित किया.
आख़िर क्या वजह रही कि नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और लोकतंत्र समर्थक के तौर पर विख्यात रहीं आंग सान सू ची संयुक्त राष्ट्र महासभा के इस अधिवेशन में नहीं पहुंचीं? इसी सवाल पर बीबीसी संवाददाता कुलदीप मिश्र ने अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफेसर पुष्पेश पंत से बात की.
आगे पढ़िए पुष्पेश पंत की राय:
आंग सान सू ची के इस अधिवेशन में न जाने की वजह साफ है. उन्हें लगता है कि वहां उन्हें वे सारे राष्ट्र घेरने की कोशिश करेंगे जो रोहिंग्या मसले पर मानवीय मूल्यों के संरक्षक हैं. और चूंकि वह नोबेल शांति पुरस्कार विजेता हैं तो निश्चय ही उनके लिए यह स्थिति असमंजस की होगी.
लेकिन दूसरी बात यह भी है कि अगर वह उस अधिवेशन में नहीं गईं तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट गया? आज संयुक्त राष्ट्र संघ क्या एक ऐसी संस्था है, जिसकी कोई सार्थकता या महत्व- सामरिक या किसी और तरह की अंतरराष्ट्रीय राजनीति में है?
बजट कर्मचारियों में ही ख़र्च
ये बात सर्वविदित है कि इस संस्था का 98 फीसदी बजट इसके अपने कर्मचारियों के पेंशन और भत्तों आदि पर ख़र्च होता है. सिवाय इसके कि सुरक्षा परिषद में कुछ निरर्थक चर्चाएं होती हैं और प्रस्ताव पारित होते हैं. वहां जाने न जाने से क्या फर्क पड़ता है, मुझे समझ नहीं आता.
मैं क्षमा कर दूं कि मेरा अपना पूर्वाग्रह इसमें बहुत स्पष्ट है. 40-42 बरस अंतरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाने और पढ़ने के बाद मैंने ये पाया है कि युद्ध के बाद विजेताओं ने जिस मक़सद से संयुक्त राष्ट्र का गठन किया था, उसकी संरचनात्मक कमज़ोरियां इतनी विकट हैं कि आज के संसार में उसकी कोई सार्थकता रह नहीं गई है.
अमरीका ने जो संयुक्त राष्ट्र में नौकरशाही को सरल करके ख़र्च में कटौती की बात कही है, वो मुझे लगता है कि बहुत सार्थक सुझाव है. मगर क्या अमरीका यह कर सकता है. अमरीका निश्चित तौर से संयुक्त राष्ट्र के बजट का सबसे बड़ा दाता है.
वैसे संयुक्त राष्ट्र में सुधार के सुझाव पहली बार नहीं आए हैं. मुझे याद है जब मैं लड़कपन में था तो ख्रुश्चेव ने 'ट्रॉयका' वाला एक सुझाव दिया था कि तीन घोड़े गाड़ी को अलग-अलग दिशाओं में खींचेंगे. मगर मुझे लगता है कि तब से अब तक 60 वर्ष बीत गए हैं, पर कहीं कोई अंतर तो पड़ा नहीं है.
मेरे ख़्याल में वहां आंग सान सू ची का न जाना समझ में आता है, लेकिन उसके पक्ष में पेश करने के लिए मैं यह बात नहीं कह रहा हूं.
उत्तर कोरिया को नहीं रोक पाए
जो कार्रवाई अभी आंग सान सू ची से अपेक्षित है वो वह नहीं करतीं तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पास क्या विकल्प है? सारे आर्थिक प्रतिबंध लगाने के बाद जब आप उत्तर कोरिया को नहीं रोक पाए तो आप क्या सू ची का क्या बिगाड़ लेंगे. क्या आप उनके ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे? क्या मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सैनिक हस्तक्षेप की बात कहेंगे?
इन्हीं सू ची का पश्चिम ने मानवाधिकारों की रक्षिका के रूप में महिमामंडन किया था. आज भस्मासुर की तरह उन्हीं के गले पड़ गया है.
रोहिंग्या समस्या मानवीय और मार्मिक तो है मगर ये इतनी सीधी और सरल नहीं है. भारत में जिस तरह इसे हिंदुत्व, मुसलमानों और धर्मनिरपेक्षता की नीति के साथ जोड़कर देखा जा रहा है तो ये कौन सा शरणार्थियों को शरण देने का तर्क है कि वो बड़ी संख्या में प्रवेश भी करेंगे और वो उन जगहों रहेंगे जहां वे रहना चाहते हैं. यह बात समझ में नहीं आती कि जम्मू-कश्मीर राज्य में वह कैसे पहुंच जाते हैं.
रोहिंग्या मासूम हो सकते हैं, निर्दोष हो सकते हैं. मगर रोहिंग्याओं को राज्यविहीन व्यक्ति आंग सान सू ची ने नहीं बनाया है. इसका इतिहास 50-60 साल पुराना है. मेरा ख़्याल है कि आंग सान सू ची को ज़रूरत से ज़्यादा दोष देना निरर्थक है.
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