ब्लॉग-भारत पाकिस्तान से सीखे या उस जैसा बने

    • Author, राजेश प्रियदर्शी
    • पदनाम, डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी

मेरे ढेर सारे पाकिस्तानी दोस्त हैं, लंदन में बैठकर उनसे खूब सारी बातें हुईं, पाकिस्तान को ठीक से समझने का ये मौक़ा मैं कभी नहीं चूकता.

सीनियर जर्नलिस्ट साजिद का कहना था कि जनरल ज़िया ने पाकिस्तान को चालीस साल पहले इस्लामी राजनीति के जिस दलदल में धकेला था उससे निकलने की थोड़ी-बहुत कोशिशें चल रही हैं, लेकिन उबरना आसान नहीं है.

इस साल नवाज़ शरीफ़ का होली मिलन कार्यक्रम में जाना यही जताने के लिए था कि पाकिस्तान के हिंदू भी देश के नागरिक हैं.

मेरे दूसरे पाकिस्तानी दोस्त आरिफ़ का कहना था कि मज़हबी सियासत वो जिन्न है जिसे बोतल से निकालना तो आसान है, लेकिन वापस बोतल में बंद करना किसी को नहीं आता.

जनरल ज़िया धार्मिक नेता नहीं, फ़ौजी जनरल थे. लोकतंत्र को कुचलने के लिए उन्होंने धर्म का भरपूर इस्तेमाल किया. मौलवियों ने इस मौक़े का पूरा फ़ायदा उठाया. देश के धार्मिक, भाषायी और नस्ली अल्पसंख्यकों को उग्र तरीक़े से हाशिये पर धकेला गया.

हिंदुओं के मंदिर और ईसाइयों के चर्च तोड़ने, उन्हें धमकाने, उनकी लड़कियों का अपहरण करके उनसे जबरन शादी करने की वारदातें होती रहीं. धर्मपरायण गुंडे पूरे जोश और इत्मीनान के साथ अपना काम करते रहे क्योंकि इस पावन अभियान में सत्ता उनके साथ थी.

जमात-ए-इस्लामी से जुड़े छात्र संगठन इस्लामी जमात-ए-तलबा ने यूनिवर्सिटियों में हंगामा मचाया, प्रोफ़ेसरों और विरोधी छात्रों को पीटा, बहसों और सेमिनारों का सिलसिला बंद कराया, कॉलेजों की फ़िज़ा अकादमिक नहीं, धार्मिक और राष्ट्रवादी बनाई.

जिन कुछ लोगों को ये सब मंज़ूर नहीं था और मुसलमान होकर भी इसकी आलोचना कर रहे थे, वे सेक्युलर, वामपंथी, बुद्धिजीवी और मानवाधिकारवादी टाइप के लोग थे. उन्हें गद्दार, इस्लाम-विरोधी और हिंदू-परस्त कहकर किनारे लगा दिया गया.

पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुसलमानों को इससे कोई तकलीफ़ नहीं थी. जिन पर हमले हो रहे थे वो 'दूसरे' लोग थे जो उनकी नज़र में कम इंसान थे क्योंकि मुसलमान नहीं थे या फिर उनसे कम मुसलमान थे.

बहुसंख्यकों का धर्म 'इस्लाम ख़तरे में' था. मुसलमानों में गर्व की भावना भरना ज़रूरी था इसलिए रातों-रात इतिहास की नई किताबें लिखी गईं, सम्राट अशोक से लेकर गांधी तक सबके नाम मिटाए गए.

बच्चों को पढ़ाया जाने लगा कि अरब हमलावर मोहम्मद बिन क़ासिम की जीत से इतिहास शुरू होता है जिसने सिंध के हिंदू राजा दाहिर को हराया था.

रमज़ान में रोज़ा न रखने वालों की पिटाई, जबरन खाने-पीने की दुकानें बंद कराना, दफ़्तरों में दोपहर की नमाज़ में शामिल न होने वालों का रजिस्टर रखा जाना, सरकारी कामकाज से पहले मौलवियों का ख़ुत्बा (प्रवचन), ये सब 1980 का दशक आते-आते पाकिस्तानी जीवन शैली का हिस्सा हो गए.

आरिफ़ बताते हैं कि उर्दू अख़बारों ने इस्लाम बेचा, लोगों को सही नहीं मनपसंद ख़बरें देते रहे. ज़िया या मौलवी से सवाल पूछने की हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई. बाद में ये सिलसिला टीवी चैनलों ने भी जारी रखा. अलबत्ता 'डॉन' जैसे अख़बार पत्रकारिता करते रहे, लेकिन अंग्रेज़ी अख़बारों से माहौल कहाँ बनना-बदलना था?

साजिद बताते हैं कि सुन्नी मौलवी काफ़ी पहले से अहमदियों के ख़िलाफ़ थे. 1974 में उन्हें ग़ैर-मुसलमान घोषित करने वाला क़ानून बनाया गया था जिसे जनरल ज़िया ने पूरी सख़्ती से लागू किया, हज़ारों अहमदिया दूसरे देशों में रिफ़्यूजी बन गए.

एक अहमदिया थे डॉक्टर अब्दुस्सलाम जिन्हें 1979 में विज्ञान का नोबेल पुरस्कार दिया गया, ब्रिटेन में रहने वाले डॉक्टर साहब अपने देश में उपेक्षित ही रहे.

जनरल ज़िया के दौर की ग़लतियों से उबरने की एक और कोशिश के तहत जब नेशनल सेंटर फ़ॉर फ़िज़िक्स को डॉक्टर अब्दुस्सलाम सेंटर कहने का प्रस्ताव आया तो काउंसिल फ़ॉर इस्लामिक आइडियोलॉजी जैसी संस्थाओं ने ख़ासा हंगामा मचाया.

आरिफ़ कहते हैं कि जब सत्ता में बैठे लोग अपने फ़ायदे के लिए जनता के दिमाग़ में नफ़रत भरें तो उसका बुरा असर कई पीढ़ियों तक ख़त्म नहीं होता.

वो मुमताज क़ादरी की मिसाल देते हैं जिन्हें पंजाब के गर्वनर सलमान तासीर की हत्या करने की वजह से फाँसी दी गई. इस्लामाबाद के बाहर करोड़ों रुपए की लागत से उनकी मज़ार बनाई गई है जहाँ लोग फूल चढ़ाने आते हैं.

तासीर का गुनाह ये था कि ईशनिंदा क़ानून के नाम पर प्रताड़ित किए जा रहे ईसाइयों को वो बचाना चाहते थे, ये बात उनके गार्ड को इस्लाम का अपमान लगी. क़ादरी की मज़ार पर फूल चढ़ाने वालों की नज़र में यह हत्या नहीं थी, यह धर्म की रक्षा के लिए किया गया वध था.

साजिद पूछते हैं, ''हम चालीस साल बाद मज़हबी सियासत के दलदल से निकलने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं, लेकिन मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि भारत उसी दलदल की तरफ़ पूरे जोश के साथ बढ़ रहा है?

आरिफ़ हँसते हुए कहते हैं, यही तो इस दलदल की ख़ासियत है, पाकिस्तानी जब दलदल में कूदे थे तब उन्हें कहाँ पता था कि चालीस साल बाद भी उसी कीचड़ में लिथड़े होंगे?

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