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नज़रिया: 'भारत ने अपना ईशनिंदा क़ानून खोज ही लिया'
- Author, अपूर्वानंद
- पदनाम, लेखक और विश्लेषक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
गुजरात के मुख्यमंत्री ने इरादा जाहिर किया है कि वे गुजरात को पूरी तरह शाकाहारी बना देना चाहते हैं. ऐसा उन्होंने विधायिका से उस कानून को पारित करवाने के बाद कहा जिसके तहत अब गोहत्या का अपराध सिद्ध होने पर उम्र कैद की सज़ा तय की गई है.
उसके अभियुक्त पर गैर जमानती वारंट जारी किया जाएगा. लेकिन इस क़ानून से शाकाहार का क्या संबंध? फिर गुजरात के मुख्यमंत्री के एलान से ही इस क़ानून के पीछे की मंशा जाहिर हो जाती है. वह है, सत्ता की ताकत का कानूनी रास्ते से इस्तेमाल करके आबादी के एक हिस्से की खान पान की आदत को बदल देना.
यह किसी भी सभ्य समाज के लिए अस्वीकार्य होना चाहिए. क्या यह कहा जा रहा है कि प्रत्येक गुजराती को अब खान-पान की और जीवन की वह पद्धति अपनानी होगी जो हिन्दुओं के भी एक छोटे हिस्से की है? मसलन, गुजरात में रहनेवाले कश्मीरी ब्राह्मण को क्या जैनियों की तरह शाकाहारी हो जाने को कहा जा रहा है?
गुजरात का यह क़ानून उस माहौल में लाया गया है जिसमें उत्तर प्रदेश से शुरू करके देश के पांच राज्यों में अवैध होने या लाइसेंस न होने के नाम पर बूचड़खाने तो बंद किए ही जा रहे हैं, मांस-मुर्गे की बिक्री पर भी हमला हो रहा है.
गुडगाँव जैसी जगह में माँस मुर्गे की दुकानें एक राजनीतिक संगठन के लोगों ने यह कहकर बंद करवा दीं कि नवरात्रि में यह नहीं होने दिया जाएगा. प्रशासन और पुलिस ने इस सरासर गुंडागर्दी की ओर से आँख मूँद ली और इतना भर कहकर छुट्टी पा ली कि इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं.
बूचडखानों को भी गैरक़ानूनी कहकर बंद किया जा रहा है. लेकिन चुनाव के दौरान तो यह प्रचार किया गया था कि बूचड़खाने बंद करवा देंगे. अगर हम तीन साल पहले के लोकसभा के चुनाव अभियान को याद करें तो आज के प्रधानमंत्री ने एकाधिक बार जनता को कहा कि उसे गुलाबी क्रान्ति और श्वेतक्रान्ति में से एक को चुनना है.
श्वेत क्रांति का श्रेय पर...
उन्होंने कांग्रेस पार्टी पर गुलाबी क्रान्ति यानी बूचड़खानों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया और गुजरात की श्वेत क्रान्ति यानी दुग्ध उत्पादन में क्रान्ति का श्रेय खुद लिया जबकि उसके प्रणेता कुरियन साहब को बेइज्जत उन्हीं की सरकार ने किया था.
तो शाकाहार के खिलाफ माँसाहार को खड़ा करने के पीछे शाकाहार अर्थात हिंदू और माँसाहार अर्थात मुसलमान की भाषा काम कर रही है. उसी तरह गोहत्या पर प्रतिबन्ध का अर्थ मुसलमानों का दिमाग ठिकाने लगाने से लगाया जाता है.
गोमांस एक बड़ी आबादी के लिए प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत है क्योंकि वह सस्ता है और यह कतई इत्तफाक है कि मुसलमानों का बड़ा हिस्सा बहुत गरीब है. दाल और अन्य स्रोतों से प्रोटीन लेने लायक पैसा उसके पास नहीं. इसका अर्थ है कि माँसाहार या गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा कर सरकार इस आबादी को पोषण से वंचित करना चाहती है.
हिंसक है ये तरीका
किसी के जीने के ढर्रे को बदल देने की इच्छा कितनी हिंसक है, यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं. ताज्जुब नहीं कि आज़ादी के तुरंत बाद जब गोभक्त गाँधी के सामने राजेंद्र प्रसाद यह प्रस्ताव लेकर गए कि भारत में गोहत्या पर क़ानूनी तौर पर पाबंदी लगनी चाहिए तो सनातनी हिंदू गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत सिर्फ वैसे हिन्दुओं का देश नहीं जो गोमांस नहीं खाते या शाकाहारी हैं, इसलिए यहाँ इस तरह के किसी क़ानून की कोई जगह नहीं हो सकती. गांधी किसी व्यक्ति या समुदाय की जीवन-पद्धति को जबरन बदलने के सख्त ख़िलाफ़ थे.
फिर गांधी के गुजरात ने गाँधी की इच्छा के ठीक उलट काम क्यों किया? इसकी वजह यह है कि भारतीय जनता पार्टी उसी तरह का एक क़ानून लाना चाहती है जैसा पाकिस्तान में है, यानी ईश निंदा से जुड़ा क़ानून. अगर आप पर कोई यह आरोप भर लगा दे कि आपने कुरआन शरीफ या मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताख़ी की है तो आपके बचने की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है. गवर्नर सलमान तासीर ने इस क़ानून की मुख़ालिफत की थी जिसकी वजह से उनका क़त्ल कर दिया गया.
भारत में गोहत्या पर पाबंदी से जुड़े तरह-तरह के क़ानून ठीक यही भूमिका निभा रहे हैं. इन क़ानूनों के पालन के नाम पर गुंडों के गिरोह हर जगह सक्रिय हो गए हैं. जाहिर है उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो सकती क्योंकि वे तो क़ानून लागू करने में पुलिस की मदद कर रहे होते हैं.
मुसलमानों को निशाना बनाना आसान
पिछले कुछ सालों में हमने गो हत्या रोकने या उसका विरोध करने के नाम पर मुसलमानों की पिटाई और उनकी हत्या होते देखी है. अब यह सिलसिला बढ़ेगा. भारत ने अपना ईशनिंदा क़ानून आखिर खोज ही लिया है. अब इस क़ानून की आड़ में मुसलमानों को निशाना बनाना आसान हो गया है.
यह कहकर उन्हें गिरफ्तार किया जाएगा और मार भी डाला जाएगा कि वे गैरकानूनी काम कर रहे थे. अगर यह न भी किया तो मुसलमानों का रहन-सहन बदल डालने का क्रूर सुख तो हासिल किया ही जा रहा है.
यह तकलीफ की बात है कि भारत के किसी राजनीतिक दल में यह नैतिक साहस नहीं बचा कि वह कह सके कि यह क़ानून भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ है. यह मुसलमानों, ईसाइयों, आदिवासियों और दलितों के बड़े हिस्से पर हिंसक शाकाहार का दबदबा कायम करने का चतुर रास्ता है.
उच्चतम न्यायालय से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह इस बेईमानी और अल्पसंख्यक विरोधी कदम का संज्ञान ले और इस पर रोक लगाए. यह अमरीका की अदालतें तो कर सकती हैं कि राष्ट्रपति के फरमान की मंशा के मुजरिमाना इरादे को समझकर उसपर रोक लगा दें.
भारत के न्यायालय यह समझते हैं कि जनता के मत से चुनकर आई सरकार जो कर रही है, उसपर सवाल करना जनता के विवेक पर उँगली उठाना हो जाएगा. तो मुसलमान, अल्पसंख्यक किसका भरोसा करें? या अपना इंतजाम खुद करें, यह कहा जा रहा है उनसे.
गाँधी के निधन को ज़माना भी गुजर चुका है. हम बिलकुल नए भारत में प्रवेश कर रहे हैं.
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