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कुआं खोदने पर दलित को मार डाला था
- Author, सुधारक ओल्वे
- पदनाम, सामाजिक कार्यकर्ता, मुंबई से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
( दलितों पर अत्याचार पर बीबीसी हिंदी की ख़ास सिरीज़ का पहली कड़ी में घाडगे परिवार पर हुए अत्याचार की कहानी.)
ये 26 अप्रैल, 2007 की बात है. महाराष्ट्र के सतारा में 48 साल के मधुकर घाडगे की नृशंस हत्या तब कर दी गई जब वे अपने खेतों में पानी देने के लिए कुंआ खोद रहे थे.
मधुकर उस ज़मीन पर कुंआ खोद रहे थे, जिसका इस्तेमाल आस पास के खेत वाले सामूहिक तौर पर कर रहे थे. उस ज़मीन पर मराठा, माली और रामोशी किसानों के अपने अपने कुंए थे.
यह ज़मीन वैसे इलाके में थी, जहां पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था. जल स्तर ऊंचा होने की वजह से ये इलाका खेती के लिए उपयुक्त था. यही वजह थी कि मधुकर घाडगे ने उस इलाके में ज़मीन ख़रीदी थी.
लेकिन वो उस ज़मीनी सच्चाई को याद नहीं रख पाए कि इलाके के ऊंची जाति के लोग किसी दलित का अपने साथ कुंआ देखना, अपनी तौहीन मानते हैं.
मधुकर के बेटे तुषार बताते हैं, "हमने उचित तरीके से जवाहर विहार योजना के तहत ज़मीन ख़रीदी थी, और ग्राम सभा से अनापत्ति प्रमाण पत्र भी हासिल किया था. जब ऊंची जाति के लोगों को पता चला कि हम कुंआ खोद रहे हैं तो उन्हें ख़राब लगा. उन्होंने हमें काम रोकने को कहा. लेकिन हमने कुंआ खोदना जारी रखा क्योंकि हम कुछ भी गैर क़ानूनी नहीं कर रहे थे."
हादसे के दिन को याद करते हुए तुषार बताते हैं, "ऊंची जाति के लोग ज़्यादा मुश्किल खड़ी करें, इससे बचने के लिए हमने मशीनों के साथ कुंआ खोदने की गति बढ़ा दी. पूरे दिन कुछ नहीं हुआ. काम चलता रहा. सात बजे शाम में मैं अपने चचेरे भाई वैभव के साथ घर लौटने लगा, जो लोग काम में जुटे थे उनके लिए भोजन पानी लाना था."
"लौटते वक्त जब हम कुंए वाली जगह से 200 मीटर दूर रहे होंगे, हमने कुछ लोगों को गाली गलौज करते सुना. मुझे लगा कि कुछ छोटा मोटा विवाद होगा, हमें इसका अंदाज़ा नहीं था कि वे हथियारों के साथ हमला करने आए थे."
तुषार ने देखा था कि चार अन्य कुंओं के मालिक और आठ अन्य लोग मिलकर उनका कुंआ खोदने वाले लोगों और मशीनों पर पत्थर फेंक रहे थे. काम करने वाले मज़दूर डर कर गांव की तरफ़ भाग गए. तुषार और वैभव मधुकर को बचाने के लिए भागकर पहुंचे, उन्हें भी चोट पहुंची.
हमलावरों ने भाले जैसे हथियार से मधुकर पर हमला किया था. अंधेरा हो गया था, लिहाजा परिवार वालों को चोटों की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं हुआ. जब तक परिवार के सदस्य मधुकर को जमीनी इलाके तक लाते, तब तक बहुत ज़्यादा खून बहने से वे अचेत हो गए थे.
दो लोगों ने मिलकर मधुकर को अस्पताल पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन घायल आदमी को लेकर पैदल चलना बहुत मुश्किल था.
जब मधुकर अस्पताल पहुंचे, तो डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. घटागे का परिवार जब आरोपियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करने के लिए पुलिस स्टेशन पहुंचा तो उन्हें ये देखकर अचरज हुआ कि आरोपी पहले से वहां मौजूद थे.
वे लोग पहले से अपने ऊपर हमला किए जाने की शिकायत कर चुके थे, लेकिन वो शिकायत इस आधार पर उन्हें वापस लेनी पड़ी कि 12 लोग एक साथ आत्म रक्षा की दलील नहीं दे सकते थे. हालांकि उन सबको मेडिकल चेक अप के लिए भेजा गया, क्योंकि ऐसे मामलों में ये सामान्य प्रोटोकाल है.
ये मेडिकल रिपोर्ट ही घटागे परिवार के लिए सबूत साबित हुआ क्योंकि इससे ज़ाहिर था कि वे लोग हादसे की जगह पर मौजूद थे. उन लोगों को भी चोटें लगी थीं.
तुषार बताते हैं, "हम पर हमला हुआ था, हमने अपनी रक्षा की कोशिश की थी, तो उन्हें भी चोट लगी थी, लेकिन आश्चर्य ये था कि ये बात चार्ज़शीट में शामिल नहीं थी. मेडिकल रिपोर्ट एक पुख़्ता सबूत थी, लेकिन उसकी जानबूझकर उपेक्षा की गई. स्थानीय विधायक पुलिस को प्रभावित कर रहे थे."
हालांकि आरोपियों के ख़िलाफ़ प्राथमिक रिपोर्ट दर्ज की गई और उन्हें भारतीय दंड संहित की धारा 302, 32 एवं अनूसुचित जाति- अनूसुचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 3(2) के तहत गिरफ़्तार किया गया.
हादसे के तीन साल के बाद, 2010 में सेशन कोर्ट ने सबूत के अभाव में 12 आरोपियों को बरी कर दिया. तुषार कोर्ट के फ़ैसले के बारे में बताते हैं, "अदालत का फ़ैसला अजीब था. उदाहरण के लिए, अदालत ने फारेंसिक लैब की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि कपड़ों पर जो ख़ून के धब्बे थे वे किसी जानवर के थे, किस जानवर के, इसको लेकर वे निश्चिंत नहीं थे. इसके बाद अदालत ने कहा कि ये मानना तर्क से परे है कि अपराध करने वाले ख़ुद पुलिस स्टेशन आएंगे और गिरफ़्तार हो जाएंगे."
लेकिन तुषार ने हिम्मत नहीं हारी, क़ानून की पढ़ाई का इस्तेमाल किया और सेशन कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ बंबई हाईकोर्ट में अगस्त, 2010 में अपील दायर की.
अब उन्हें इस मामले में सुनवाई का इंतज़ार है.
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