नज़रिया: मोदी के 'सब का साथ' में कहां हैं मुसलमान?
- Author, हिलाल अहमद
- पदनाम, एसोसिएट प्रोफ़ेसर, सीएसडीएस
हाल ही में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को दो तरीकों से बयान किया जा सकता है.
बीजेपी के विरोधियों ने इसे 'धर्मनिरपेक्ष' राजनीति के ऊपर हिंदुत्व की ताकत की जीत करार दिया है.
जबकि बीजेपी इसे 'सब का साथ, सब का विकास' की सोच का नतीजा बता रही है.
दोनों ही दलीलें भले ही एक दूसरे के उलट हों, लेकिन इसे 'मुस्लिम वोट' से जोड़ कर ही देखा जा रहा है.
धर्मनिरपेक्षता वाली दलील बीजेपी की गोलबंदी की राजनीति पर सवाल खड़े करती है.
हमें बताया जाता है कि बीजेपी अपनी इस राजनीति का सहारा लेकर मुसलमानों को आख़िरकार देश के ख़िलाफ एक अहम ख़तरा करार दे देती है.
मुसलमान विधायक
बीजेपी ने मुसलमानों को टिकट देने से साफ़ तौर पर इनकार कर दिया. प्रधानमंत्री ने इलेक्शन कैम्पेन के दौरान ईद और क़ब्रिस्तान का ज़िक्र किया.
फिर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की कथित छेड़खानी के आरोप लगे और आख़िरकार दलीलें मुस्लिम वोटों के बंटवारे पर आकर ठहर गईं. नतीजा बीजेपी की जीत में निकला.
ये भी कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की 17वीं विधानसभा के लिए केवल 24 मुसलमान विधायक चुने गए और राज्य में उनकी आबादी के लिहाज़ से ये संख्या 'वाजिब प्रतिनिधित्व' नहीं करती है.
इस पर बीजेपी का जवाब भी कम दिलचस्प नहीं था. पार्टी नेता उम्मीदवारों के जीतने की संभावना पर लगातार ज़ोर देते रहे.
धर्मनिरपेक्ष छवि
ये दावा किया गया कि बीजेपी जाति-मज़हब की राजनीति के बारे में नहीं सोचती और ऐसे उम्मीदवारों को तरजीह देती है जो जिताऊ वोट जुटाने का माद्दा रखते हैं.
इस लिहाज़ से पार्टी की जीत को उम्मीदवारों और मतदाताओं की धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ जोड़कर देखा गया.
शायद इसीलिए कुछ मुस्लिम बहुल सीट पर बीजेपी की जीत को 'सब को साथ लेकर चलने की' पार्टी की नीति के नतीजे के तौर पर दिखाया जा रहा है.
ये दलीलें उस हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ करती हैं कि उत्तर प्रदेश के सभी मुसलमानों की सियासी सोच एक जैसी नहीं है.
राजनीतिक समीकरण
यूपी का मुस्लिम समाज भी कई परतों में बंटा हुआ है. उनके राजनीतिक झुकाव भी अलग-अलग हैं और वोट देते वक्त भी उनकी पसंद बंटी हुई दिखती है.
जाति, धर्म, आर्थिक पृष्ठभूमि और क्षेत्रीय परिस्थितियां- ये वो मुद्दे हैं जो कई सतहों पर राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करती हैं.
यही वजह है कि चुनावों में मुसलमानों के वोट देने के तौर-तरीकों को लेकर कोई पक्की बात नहीं कही जा सकती है.
मुस्लिम वोटरों की इस विविधता को भटका हुआ कहने के बजाय 'रणनीतिक मतदान' कहा जाता है.
अलग पहचान
वास्तव में यही कारण रहा है कि ग़ैर-बीजेपी पार्टियां मुस्लिम मतदाताओं के एकता की बात करती हैं, लेकिन निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर ये नज़रअंदाज़ हो जाता है.
लेकिन इसके साथ ही मुसलमानों की अपनी एक अलग पहचान भी है.
भारत का संविधान मुसलमानों को एक धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर मान्यता देता है और उन्हें कुछ क़ानूनी संरक्षण भी देता है.
दिलचस्प ये है कि मुसलमानों को हासिल इस संवैधानिक दर्जे को उनके राजनीतिक बिखराव के ऊपर तरजीह दी गई है.
नुमाइंदगी का सवाल
इन चुनावों में गैर-बीजेपी पार्टियों के बारे में कम से कम ये बात तो कही जा सकती है.
इस लिहाज़ से ये देखा जाना चाहिए कि राजनीतिक दल मुसलमानों को नुमाइंदगी देने के नाम पर क्या दावे करते हैं और चुनावों में उनके साथ किस तरह संपर्क कायम करते हैं.
जब बहुजन समाज पार्टी ने ज़ोरशोर से ये दावा किया कि मुसलमानों को चुनाव लड़ने का पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए तो उनकी बात इस मान्यता पर आधारित थी कि मुसलमानों की नुमाइंदगी किसी मुसलमान को ही करनी चाहिए.
और अगर मुसलमानों को मौका मिलेगा तो वे हमेशा किसी मुसलमान को ही वोट देंगे.
पार्टी की रणनीति
भारत में जिस तरह की चुनाव प्रणाली है, निर्वाचन क्षेत्रों की आबादी के ढांचे को देखते हुए उसमें नुमाइंदगी का ये तरीका कारगर नहीं हो सकता.
उसी तरह जब बीजेपी धर्मनिरपेक्ष प्रतिनिधित्व की बात करती है तो उसकी भी कुछ अपनी समस्याएं हैं.
हालांकि बीजेपी जब उम्मीदवारों के जीतने की क्षमता की दलील देती है तो इसका मतलब बूथ लेवल पर प्रबंधन और मतदाताओं के माइक्रो मैनेजमेंट से निकाला जाता है.
मुसलमानों को नजरअंदाज करने की पार्टी की रणनीति से मालूम पड़ता है कि बीजेपी मुसलमानों के मुद्दे में दिलचस्पी नहीं रखती.
बेशक, यूपी के मुसलमान धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर अपनी पहचान नहीं छोड़ सकते, खासकर मौजूदा हालात में जब मुसलमानों को देश के दुश्मन के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है.
सच्चरकमेटी
ये सच है कि बीजेपी ने मुस्लिम बहुल इलाकों में सीटें जीती हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि मुसलमानों को लेकर पार्टी का रवैया बदल जाएगा.
यहां सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करना प्रासंगिक रहेगा.
रिपोर्ट कहती है कि भले ही ग़रीबों और वंचित समाज की चिंताओं को मुसलमानों के मुद्दे से अलग नहीं किया जा सकता है. लेकिन इसके बावजूद कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिनसे केवल मुसलमानों को रूबरू होना पड़ता है.
विधायिका में मुसलमान
नागरिक के तौर पर और धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर मुसलमानों को राजनीतिक ढांचे में किस तरह से पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल हो- इसके बारे में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कई स्तरों पर अपनी सिफ़ारिश दी गई है.
अंग्रेजों के जाने के बाद देश में मुसलमानों की नुमाइंदगी का हिसाब-किताब देखें तो इसे संख्या में कभी नहीं तौला गया.
ये मान्यता कि विधायिका में मुसलमानों की मौजूदगी से उनके अधिकारों का संरक्षण होगा, पूरी तरह से ग़लत है.
यूपी विधानसभा में बड़ी तादाद में मुस्लिम विधायकों की मौजूदगी के बावजूद 2013 के मुज़फ्फ़रनगर के दंगे रोके नहीं जा सके. इस लिहाज से ये एक अच्छा उदाहरण है.

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चुनाव में बहुमत
हमारे लोकतंत्र में कई परते हैं और सरकारों के पास काम करने के लिए तयशुदा भूमिकाएं पहले से निर्धारित हैं.
राजनीति की तुलना में दूसरे विभागों में मुसलमानों की मौजूदगी कहीं ज्यादा है. यूपी चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण इस संदर्भ में प्रासंगिक है.
उन्होंने कहा कि चुनाव का काम बहुमत हासिल करने का है, पर लोकतंत्र में कामकाज सर्वमत से होता है.

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इससे चुनाव प्रणाली और कमज़ोरों व अल्पसंख्यकों को हासिल संवैधानिक संरक्षण के बीच का अंतर समझा जा सकता है.
उनके बयान का व्यापक राजनीतिक महत्व है. उनका इशारा नुमाइंदगी के सवाल पर चल रही बहस की तरफ़ भी है.
हालांकि प्रधानमंत्री ने मुसलमानों का नाम नहीं लिया, लेकिन उनकी 'सर्वमत' वाली बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए.
ये देखना दिलचस्प होगा कि आम सहमति की कवायद में मुसलमानों की कितनी असरदार मौजूदगी देखने को मिलती है.
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