क्या पंजाब को कभी मिलेगा दलित मुख्यमंत्री?
- Author, वंदना
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
पंजाब के रहने वाले बंत सिंह इन दिनों चर्चा में हैं. उन्होंने हाल ही में आम आदमी पार्टी का दामन थामा है.
लेकिन इससे इतर उनकी अलग पहचान भी रही है. वे दलितों की आवाज़ उठाने वाले एक शख़्स के रूप में पहचाने जाते रहे हैं.
बात 2002 की है. उनकी नाबालिग़ बेटी का सामूहिक बलात्कार हुआ था. लेकिन चुप रहने के बजाए बाप और बेटी दोनों ने खुलकर आवाज़ उठाई. दोषियों को सज़ा भी हुई.

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इसके बाद बंत सिंह पर कई हमले हुए. ऐसे ही एक घातक हमले के बाद उनके दोनों हाथ और एक पैर काट देने पड़े पर जान किसी तरह बच गई.
अपने गीतों के लिए मशहूर बंत सिंह तब से दलितों के हक़ों के लिए लोकगीत गाते हैं.
सबसे ज़्यादा दलित आबादी
इस बार के चुनाव में बंत सिंह ख़ुद राजनीति में उतर आए हैं.
पूरे भारत में पंजाब में दलितों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है, आबादी का 32 फ़ीसदी. लेकिन आज़ादी के बाद पंजाब के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई दलित राज्य का मुख्यमंत्री बना हो या इसके आस-पास भी फटका हो.

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जबकि उत्तर प्रदेश में दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी के नायक कांशीराम पंजाब के होशियारपुर के ही थे. उन्होंने 1984 में पार्टी बनाई थी.
कांशीराम का परिवार उनके ननिहाल और पंजाब के रोपड़ ज़िले के पृथ्वीपुर गांव में ही रहता है. यहीं कांशीराम का जन्म हुआ था. लेकिन कांशीराम भी दलितों को पंजाब में लामबंद नहीं कर पाए. जबकि आज से करीब 22 साल पहले मायावती यूपी की मुख्यमंत्री बन चुकी थी.

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पंजाब में दलित नहीं बने बड़ी शक्ति
तो क्या वजह है कि पंजाब में दलित सत्ता से दूर हैं ?
वरिष्ठ राजनीति पत्रकार जगतार सिंह के मुताबिक, "पंजाब में जाति का उस तरह से कभी उभार नहीं हो पाया जैसे उत्तर प्रदेश में है. इसके दो कारण हैं. एक तो ये ही सिख धर्म की अवधारणा जाति रहित समाज की तरह हुई थी. पंजाब में आर्य समाज का भी असर रहा."
"दूसरा बड़ा कारण है कि पंजाब का दलित बंटा हुआ है. कुछ तबकों की वफ़ादारी अकाली दल की तरफ़ और कुछ की कांग्रस की तरफ़ रही. दलित पंजाब में कभी वोट ब्लॉक नहीं रहे."

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दलितों में बंटवारा, रोटी-बेटी का रिश्ता भी नहीं
पंजाब में लेखक देसराज काली कहते हैं कि इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं.
वो बताते हैं, "आज़ादी से पहले से ही पंजाब में दलित अलग अलग टुकड़ों में रहे. वाल्मिकी, अधर्म मूवमेंट या रविदासी, कबीरपंथी, मज़हबी सिख. 32 फ़ीसदी दलित आबादी है तो इनमें 32 गुट हैं. दूरियाँ इतनी है कि दलितों के अलग-अलग गुट आपस में रोटी-बेटी का भी रिश्ता नहीं रखते."
देसराज के मुताबिक़, "अगर एक गुट के साथ कुछ ग़लत हो जाए तो दलितों का दूसरा तबका उनका साथ नहीं देता. ऐसे में दलित एकजुटता तो दूर की कौड़ी है."

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केजरीवाल ने किया दलित उपमुख्यमंत्री का वादा
पहली बार पंजाब के चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने दलितों को लेकर घोषणा ज़रूर की है लेकिन उपमुख्यमंत्री बनाने की. मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए नहीं.
कांग्रेस और अकाली दल में दलित वर्ग का कभी वर्चस्व नहीं रहा.
ख़ुद बंत सिंह अपनी पार्टी आप के बारे में कहते हैं कि दलित समाज के किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने की बात की भी जाएगी तो बहुत सारे लोग पार्टी में यूँ ही नाराज़ हो जाएँगे.
पंजाब का दलित तबका आर्थिक तौर पर उस तरह से कमज़ोर नहीं लेकिन राजनीतिक तौर पर उसकी पैठ नहीं है.
वैसे एक समय था जब लगा था कि बीएसपी पंजाब में अपनी जगह बना पाएगी.

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बीएसपी भी नहीं बना पाई पैठ
1992 की विधान सभा चुनाव में बसपा को नौ सीटें मिलीं थी (तब अकाली दल ने बहिष्कार किया था) और 1996 की लोकसभा में तीन सांसद चुने गए थे.
1992 में बीएसपी का वोट शेयर 16 फ़ीसदी था जबकि 2014 के लोक सभा चुनाव में पार्टी का वोट शेयर 1.9 फ़ीसदी रह गया था.
लेकिन धीमे-धीमे से ही दलित वर्ग अब अपनी आवाज़ उठाने लगा है.

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दलितों का रैप
पहले दलितों के हक़ के लिए बंत सिंह ने लोकगीतों में आवाज़ उठाई थी. आज की बात करें तो 17 साल की गुरकंवल भारती उर्फ़ गिनी माही अपने 'चमार रैप' के ज़रिए मशहूर हुई हैं.
गिनी पंजाब के जालंधर में रहती हैं जो पंजाब के सबसे अधिक दलित आबादी वाले जिलों में से एक है.
वहाँ ये गाना एंथम की तरह गाया जाता है, "हुंदे असले तों वध डेंजर चमार (हथियारों से भी अधिक खतरनाक हैं चमार)"
इस बीच बंत सिंह ख़ुद भी मानते हैं कि पंजाब में दलित मुख्यमंत्री की बात अभी किसी सपने जैसी ही है.
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