BBCHindi.com
अँग्रेज़ी- दक्षिण एशिया
उर्दू
बंगाली
नेपाली
तमिल
 
मंगलवार, 06 मार्च, 2007 को 17:53 GMT तक के समाचार
 
मित्र को भेजें कहानी छापें
महिला किरदारों के पीछे पुरुष नज़रिया
 

 
 
ऐश्वर्या राय
नारी विषयों पर बनने वाली फ़िल्में कमोबेश कम ही हैं.
हिंदुस्तान में अगर सिनेमा के शुरुआती दौर की बात करें, तो नायिका की भूमिकाएँ भी पुरुष ही करते थे. सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी दिया गया था.

शुरुआती दौर से लेकर अब तक पुरुषों के नज़रिए से ही फ़िल्मों में नारियों के पात्र गढ़े गए हैं. हीरोइनों की भूमिकाओं में अकसर पुरुष के मिथ्या अहंकार का असर स्पष्ट नज़र आता रहा है.

इससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि नारी दर्शक वर्ग ने ही नारी मन पर बनी मुट्ठी भर सार्थक फ़िल्मों को अस्वीकार कर दिया.

महिला पात्र
 शुरुआती दौर से लेकर अब तक पुरुषों के नज़रिए से ही फ़िल्मों में नारियों के पात्र गढ़े गए हैं. हीरोइनों की भूमिकाओं में अकसर पुरुष के मिथ्या अहंकार का असर स्पष्ट नज़र आता रहा है.
 

अंग प्रदर्शन को आज मौन सामाजिक स्वीकृति मिल गई है और इस उदारवाद को आज हीरोइनों के प्रस्तुतीकरण में देख सकते हैं.

पिछले साल की तीन सफल फ़िल्मों धूम2, डॉन और गुरु में हीरोइनें केवल अपने परिधानों में आधुनिक हैं.

गुरु की नायिका यह जानते हुए भी कि उसकी शादी केवल दहेज के लिए हुई है, अपने पति के अवैध धंधों में शरीक़ है. धूम2 की नायिका को चारे की तरह इस्तेमाल किया गया था. डॉन की नायिका का भी यही हाल है.

इस तरह के रंग प्रस्तुत करने का सिलसिली 'बंटी और बबली' से शुरू हुआ था. आख़िरी दृश्य में बबली कहती है कि वह पापड़ बेलते और अचार डालते हुए पागल हो जाती. बबली धन कमाने के लिए अपराध नहीं करती उसे अपराध करने में आनंद आता है.

इसी तरह प्रिटी ज़िंटा ‘सलाम नमस्ते’ में बिना विवाह साथ रहने की आधुनिकता को अधकचरे ढँग से प्रस्तुत करती है.

शुरुआती दौर

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दस वर्षों में बनी सारी फ़िल्में धार्मिक विषयों पर आधारित थीं.उनमें दिखाई गई महिलाएँ देवियों की तरह आचरण करती थीं जबकि कैकेयी और मंथरा आदि बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने.

गाँधी जी के प्रभाव में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे.1937 में शांताराम ने ‘दुनिया ना माने’ बनाई थी जिसमें बूढे़ विधुर से ब्याही 17 वर्षीय कन्या उसे अपने शरीर को हाथ लगाने नहीं देती और इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है.

महबूब खान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई. केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था. नरगिस द्वारा अभिनीत इस अभिनेत्री को ही हम दीवार में निरूपा राय अभिनीत माँ की भूमिका में देखते हैं.

दरअसल युवा नायिका की तुलना में माँ के पात्र को फ़िल्मों में ज़्यादा सशक्त बनाया गया है.जैसा कि हम राकेश रोशन की 'करण अर्जुन' और सुभाष घई की 'राम लखन' में देखते हैं.हाल ही में प्रदर्शित 'रंग दे बसंती' की माँ भी शहीद की सच्ची और सशक्त माँ है

नारी मन

नूतन
नारी विशयों पर कई फ़िल्में बनीं है पर कुछ एक को छोड़कर बाकी सफल नहीं रहीं

वैसे आज़ादी के बाद के आशावाद और आदर्श को प्रस्तुत करने वाली कुछ फ़िल्मों में नारी मन को प्रस्तुत करने की कोशिश कई बार हुई है.

अमिया चक्रवर्ती की ‘सीमा’ और बिमल रॉय की ‘बंदिनी’ में केंद्रीय पात्रों ने कमाल किया. बिमल रॉय की सुजाता हरिजन कन्या के सपने और डर को प्रस्तुत करती है. ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुपमा' और 'अनुराधा' भी नारी की पारंपरिक छवि में परिवर्तन की झलक प्रस्तुत करती है.

लेकिन फ़िल्म ‘जंगली’ के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया.

सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में सामंतवाद के नारी के प्रति के किए गए अन्याय को प्रस्तुत किया. और ये भी रेखांकित किया कि भारतीय गणतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है.

इस दौर की ज़्यादातर हीरोइनों का काम मात्र नाच-गाने तक की सीमित रहा. राज कपूर ने न जाने किस व्यवसायिक डर से ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में नारी शरीर के प्रदर्शन के पश्चाताप स्वरूप आठवें दशक में विधवा के अधिकार पर ‘प्रेम रोग’ जैसी सार्थक फ़िल्में दीं.

अमिताभ बच्चन की एंग्रीमैन छवि के दौर में नायिका पूरी तरह से गौण कर दी गई थी और इस सिलसिले को ‘प्रेम रोग’ ने ही रोका.

'वस्तुकरण'

हमारे शास्त्रों से लेकर संविधान तक में नारी स्वतंत्रता की दुहाई दी गई है लेकिन वास्तव में उसे दोयम दर्ज़े की नागरिकता ही मिली है. इसी देश में कई विलक्षण महिलाएँ भी हुईं हैं लेकिन वे अपवाद ही हैं.

आर्थिक उदारवाद और भूमंडलीकरण के दशक में बाज़ार की शक्तियों ने फ़िल्मों की हीरोइनों को पूरी तरह वस्तु में बदल दिया.

इस दौर में अरुणा राजे की ‘रिहाई’ नारी स्वतंत्रता और समानता पर अभूतपूर्व फ़िल्म है. लेकिन इसे नारी दर्शक वर्ग का समर्थन नहीं मिला.

पिछले दशक में भारतीय महिलाओं ने पुरुषों वाले कई क्षेत्रों में प्रवेश किया है लेकिन सिनेमा में इस सच्ची आधुनिकता को प्रस्तुत नहीं किया गया है.

पिछले 94 वर्षों के इतिहास में कमोबेश 12 हज़ार फ़िल्में बनी हैं जिनमें बमुश्किल तीन दर्जन फ़िल्मों में नारी मन को प्रस्तुत किया गया है. बाकी में मानो आज भी ‘सोलंके’ ही नारी पात्र अभिनीत कर रहा है.

 
 
महिला खिलाड़ीगली में क्रिकेट...
गली में लड़कों के साथ क्रिकेट खेलना पसंद नहीं था घरवालों को....
 
 
सुमित्रा महाजनथोड़ी सी ज़मीं....
महिलाओं को शुरुआत के लिए बस थोड़ी सी ज़मीन चाहिए, आगे वो खुद लड़ेगी.
 
 
इससे जुड़ी ख़बरें
क्या वापस आएँगी रूप की रानी?
03 मार्च, 2007 | मनोरंजन एक्सप्रेस
वो भी क्या दिन थे......
03 फ़रवरी, 2007 | मनोरंजन एक्सप्रेस
भारत में क्षेत्रीय सिनेमा की भूमिका
05 फ़रवरी, 2007 | मनोरंजन एक्सप्रेस
अफ़ग़ानिस्तान से अफ़्रीका तक....
03 फ़रवरी, 2007 | मनोरंजन एक्सप्रेस
सुर्ख़ियो में
 
 
मित्र को भेजें कहानी छापें
 
  मौसम |हम कौन हैं | हमारा पता | गोपनीयता | मदद चाहिए
 
BBC Copyright Logo ^^ वापस ऊपर चलें
 
  पहला पन्ना | भारत और पड़ोस | खेल की दुनिया | मनोरंजन एक्सप्रेस | आपकी राय | कुछ और जानिए
 
  BBC News >> | BBC Sport >> | BBC Weather >> | BBC World Service >> | BBC Languages >>