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राजकपूर की यादें जुदा हैं सबसे | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मेरा एक शेर है- इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया ज़िंदगी की तरह मौत भी संसार की एक हक़ीकत है. महात्मा बुद्ध से एक बार एक माँ मिलने आई जिसका बेटा मर चुका था. वह महात्मा से पुत्र को जीवित करने का अनुरोध कर रही थी. महात्मा बुद्ध ने कहा, “माई, यह असंभव उसी समय संभव होगा जब तू ऐसे किसी घर से आग लाएगी जिसमें कभी कोई मौत नहीं हुई हो.” बुद्ध की बात सुनकर वह स्त्री कई घरों में गई. फिर थक हार कर बैठ गई उसे सब्र आ गया था. उसने मौत के यथार्थ को स्वीकार कर लिया था. जिगर मुरादाबादी ने दूसरी तरह इस हक़ीकत को क़ुबूल किया था. उनकी ग़ज़ल का मतला है, बना बना के जो दुनिया मिटाई जाती है मज़ाक-मज़ाक में... हर व्यक्ति स्वयं अतीत बन जाने तक अपने बीते हुए को जीता है. यादों के रूप में, माँ की गोद से क़ब्र या श्मशान की आग तक के इस छोटे से रास्ते में आदमी की नज़र से बहुत कुछ गुज़रता है. लेकिन इस देखे हुए बहुत कुछ में से वही कुछ याद बन पाता है, जो भीड़ में भीड़ न बनकर थोड़ा से अलग नज़र आता है. फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक राजकपूर मेरी ऐसी ही यादों में से एक हैं. उनसे मेरी पहली मुलाक़ात मुंबई के खार में मेरे फ्लैट में टेलीफ़ोन पर हुई थी. इस फोन कॉल की छोटी सी कहानी है. मैं दिन के वक़्त एक दिन लोकल ट्रेन से चर्च गेट के एक साहित्यिक समारोह में जा रहा था. लोकल के उस डिब्बे में फ़िल्म से संबंधित एक-दो लोग भी थे. वे मुझे देखकर मेरे क़रीब आए. जब उन्होंने अपना परिचय दिया तो मैने अपनी मज़ाक की आदत के मुताबिक़ अपने पास बैठे हुए व्यक्ति का परिचय पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज़ कह कर करा दिया. उनमें से एक जो शायरी में थोड़ी दिलचस्पी रखते थे, मेरे परिचित कराए सज्जन से बहुत टूट कर मिले. वे रास्ते भर उसे अहमद फराज़ मानकर बातें करते रहे और मेरे साथ बैठे हुए हज़रत अपनी भूमिका को किसी मंजे हुए अभिनेता की तरह निभाते रहे. राजकपूर की यादें
मुझसे ट्रेन में मिले सज्जन बंबई सेंट्रल के स्टेशन पर उतर गए. उन दिनों बंबई सेंट्रल के करीब ताड़देव में कई फ़िल्मों के ऑफ़िस हुआ करते थे. जाते वक़्त निहायत एहतराम के साथ वह मेरे बनाए हुए फराज़ से मिलकर गए थे. अपने पसंदीदा शायर से मिलने की खुशी को वे जहाँ-जहाँ गए नई ख़बर की तरह बाँटते रहे. एक मुँह से दूसरे मुँह, दूसरे से तीसरे मुँह से गुज़रती हुई यह ख़बर चेम्बूर में बने राजकपूर स्टूडियो पहुँची. और वहाँ से उस स्टूडियो के अंदर उस कॉटेज में पहुँच गई जहाँ राज साहब आराम भी करते थे और काम भी करते थे. उनसे मिलने के लिए जो लोग आते थे वह फ़र्श और गावतकियों से सजे इसी काटेज में आते थे. इसी कॉटेज से जुड़ा एक किचन भी था, जहाँ से थोड़े-थोड़े समय से चाय और खाने-पीने की दूसरी चीज़ें आती रहती थीं. दूसरे दिन की बात है. मैं खार में अपने घर में अपनी तनहाइयों को किसी पुस्तक से बहला रहा था. अचानक टेलीफोन की घंटी बजी. समय ढाई बजे का था. मेरे ‘हैलो’ के जवाब में कई फ़िल्मों में सुनी हुई जानी पहचानी आवाज़ गूँजी. यह आवाज़ निहायत तहज़ीबी अंदाज़ में बोल रही थी. “क्या मैं निदा फाज़ली साहब से बात कर सकता हूँ?” “मैं बोल रहा हूँ...आप कौन साहब?” मैने कहा. “जी ख़ाकसार का नाम राजकपूर है.” राज साहब का नाम सुनते ही मुझे लगा, शायद वह अपनी नई फ़िल्म में गीत लिखवाने का ऑफ़र देने वाले हैं. लेकिन मालूम हुआ उन्होंने मुझे फ़ोन दूसरी वजह से किया था. दूसरों की तरह उन्हें भी मालूम हुआ था कि पाकिस्तान के मशहूर शायर निदा फाज़ली के मेहमान हैं. अतीत के आईने से.. मैने जब राजकपूर को पाकिस्तान के मशहूर शायर की ख़बर की असलियत बताई तो टेलीफोन का रिसीवर देर तक उनके क़हक़हे से गूँजता रहा.
क़हक़हे के बाद उनके अल्फ़ाज़ थे, "निदा साहब मैं तो आपको संजीदा शायर समझता था. आप तो कॉमेडी में भी माहिर हैं. मैं आपकी इस ख़ूबी का ज़रूर इस्तेमाल करूँगा." और उन्होंने जब अपने बैनर पर ‘बीवी ओ बीवी ’ का ऐलान किया तो इस वायदे को पूरा भी किया. इसी फ़िल्म के सिलसिले में जब उनसे मुलाक़ात हुई तो टेलीफ़ोन पर सुनी आवाज़, चेहरा और शरीर बन चुकी थी. यह चेहरा और शरीर उस राजकपूर से अलग थे जो ‘आवारा’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘जागते रहो’ आदि में हीरो की भूमिकाओं में नज़र आते थे. अब भरे हुए चेहरे और भारी होते जिस्म से वे राजकपूर कम, पृथ्वीराज कपूर ज़्यादा नज़र आते थे. फ़िल्म ‘बीवी ओ बीवी’ में संजीव कुमार और रणधीर कपूर मुख्य भूमिकाओं में थे और संगीत आरडी बर्मन ने दिया था. इस फ़िल्म के पहले गीत की रिकॉर्डिंग थी, गीत मैं लिख चुका था. संगीत अरेंज हो चुका था. आरडी के म्युज़िक रूम में फाइनल रिहर्सल पूरी तैयारी में थी. फ़िल्म के डायरेक्टर रवेल और रणधीर कपूर बैठे थे. गीत की धुन और बोल सब पसंद कर चुके थे. नशा नशे के लिए है.....
पंचम का म्यूज़िक रूम उन दिनों सांताक्रूज़ में दूसरी मंज़िल पर था. साज़ खनखना रहे थे. पंचम गीत गा रहे थे. रणधीर प्रशंसा में सिर हिला रहे थे कि अचानक लिफ़्ट खुलने की आवाज़ आई. सबने देखा एक हाथ में भेलपूरी थामे राज साहब आ रहे हैं. उन्हें देखकर सब खड़े हो गए.वे मुस्कुराते हुए, जहाँ मैं बैठा था, उसके सामने आ कर बैठ गए. रिहर्सल फिर से शुरू हुई. राज साहब की आँखें और गर्दन के इशारों से लगता था कि उन्हें संगीत पसंद है. साज़ों की आवाज़ खामोश होने के बाद उन्होंने कहा भी. जी बहुत अच्छा है, धुन भी ख़ूब है. फिर मुझे अपने पास बुलाकर पूछा, “आपको सिचुएशन किसने सुनाई थी”. मैने रणधीर कपूर की तरफ़ इशारा किया. उन्होंने सिर हिलाया और कहा अगर कल आपको फ़ुर्सत हो तो चेम्बूर में हमारी कुटिया में आकर हमसे भी सिचुएशन सुन लीजिए. पंचम समझ चुके थे कि कल गीत रिकॉर्ड नहीं हो सकता. उन्होंने मुझे अकेले में बताया कि अगर मैं कल राज साहब की कॉटेज जाकर उनसे गीत का सब्जेक्ट सुनकर वहीं इसी धुन पर गीत लिख दूँगा तो रिकॉर्डिंग होगी नहीं तो नहीं होगी. मैं दूसरे दिन राज साहब के सामने था. पहले अपने अतीत और छोड़े हुए पेशावर की बातें करते रहे. फिर अचानक बोले, “देयर इज़ एक गर्ल, देयर इज़ ए बॉय, देयर वाज़ ए गर्ल, देयर वाज़ ए बॉय, देयर विल बी एक गर्ल एंड ए बॉय...एंड दैट इज़ द होल लाइफ़.” अंग्रेजी के इन जुमलों के बाद बोले, “जी बस इसी ख़्याल को गीत बनाना है.” धुन मेरे ज़हन में थी, दिमाग भी थोड़ा काम कर रहा था. मैने फ़ौरन उन्हें मुखड़ा बनाकर सुनाया......... “सदियों से दुनिया में ये ही तो क़िस्सा है बोल उन्हें पसंद आए और इसे आरडी ने रिकार्ड किया. राजकपूर अब नहीं हैं. लेकिन वे यादों के रूप में मेरी तरह आज भी कई ज़हनों में जिंदा हैं. मेरी उनसे आख़िरी मुलाकात चेम्बूर में उन्हीं के बंगले में हुई थी. वह उस समय डायबिटिक हो चुके थे. उनकी पत्नी कृष्णा जी उनकी शराब पीने की आदत पर कंट्रोल करने के लिए उन पर पहरा लगाए रखती थीं. लेकिन जैसे ही वह ओझल होती थीं, राज साहब पेग चढ़ा लेते थे... नशा नशे के लिए है अज़ाब में शामिल निदा फ़ाज़ली का यह कॉलम आपको कैसा लगा. अपनी राय से हमें अवगत ज़रूर करवाएँ [email protected] पर. |
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