|
मलयाली सिनेमा ने बॉलीवुड से बाज़ी मारी | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
इस बार मलयालम सिनेमा बॉलीवुड से बाज़ी मार ले गया. भारत में पहली बार एक मलयालम फ़ीचर फ़िल्म पूरी तरह डिजिटल प्रोजेक्शन की तकनीक के ज़रिए रिलीज़ होने जा रही है. यही नहीं, यह देश की पहली ऐसी फ़िल्म भी होगी जिसकी शूटिंग भी हाई डेफ़िनिशन डिजिटल तकनीक से की गई है. 'मूनामथुरल' नाम की यह फ़िल्म केरल के 100 सिनेमाघरों में इसी महीने एक साथ रिलीज़ होगी. यह फ़िल्म इन सभी सिनेमाघरों में दिखाई जा सके, इसके लिए एक फ़िल्म निर्माता कंपनी, 'ईमेल एंड इरिक डिजिटल' ने सिनेमाघरों में ज़रूरी तकनीकी व्यवस्था की है. इस व्यवस्था के तहत फ़िल्म रिलीज़ करने के लिए उसके प्रिंट बनाने की ज़रूरत नहीं होती. आमतौर पर भारत में फ़िल्मों की शूटिंग डिजिटल फ़ॉर्मेट में की तो जाती है मगर इनके प्रदर्शन के लिए इनकी रील तैयार की जाती है यानी इन्हें प्रिंट फार्मेट में लिया जाता है. बॉलीवुड की कई बड़ी कंपनियाँ इस तकनीक से फ़िल्म बनाने की कोशिश में काफ़ी अर्से से लगी हैं लेकिन अब तक वे कामयाब नहीं हो सकी हैं. हालाँकि मुंबई और दिल्ली से बाहर मध्यप्रदेश जैसे कुछ प्रदेशों में एक-दो सिनेमाघरों में डिजिटल प्रोजेक्शन पहुँच चुका है लेकिन केरल में एक साथ सौ सिनेमाघरों में डिजिटल प्रोजेक्शन ने सबको पीछे छोड़ दिया है. नई तकनीक इस तकनीक के तहत फ़िल्म एक ही जगह से सेटलाइट के ज़रिए एक साथ सभी सिनेमाघरों में डाउनलोड कर दी जाती है. सिनेमाघरों में ये सिग्नल डिजिटल सिस्टम में ही एक हार्डडिस्क पर ले लिए जाते हैं. इसके बाद इसी डिस्क से बार-बार फ़िल्म चलाई जाती है. फ़िल्म के प्रदर्शन का ज़िम्मा संभाल रही कंपनी के महाप्रबंधक बिबुराज बताते हैं, "इस तकनीक के इस्तेमाल के बाद केरल में पहली बार कोई फ़िल्म एक साथ सभी छोटे-बड़े शहरों में रिलीज़ हो सकेगी. हमने इस नवीनतम तकनीक का भरपूर इस्तेमाल करने और उससे खर्च बचाने के साथ ही एक बेहतर सामग्री तैयार करने की ठानी थी और यह फ़िल्म उसी का नतीजा है." इस फ़िल्म में मलयालम फ़िल्मों के जाने-माने कलाकार जयराम और ज्योतिर्मई हैं. फ़िल्म का निर्देशक बंगलौर के वीके प्रकाश हैं जिनका ताल्लुक विज्ञापन जगत से है और वो कई मलयालम फ़िल्में भी बना चुके हैं. इस तकनीक के इस्तेमाल के बारे में वो कहते हैं, "एचडी तकनीक से फ़िल्म बनाने में ज़बर्दस्त सृजनात्मक स्वतंत्रता मिलती है. इसमें बहुत से ऐसे प्रयोग किए जा सकते हैं जो आमतौर पर इस्तेमाल की जा रही है तकनीक में मुमकिन ही नहीं है. जैसे फ़िल्म की कलर ट्यूनिंग, ग्रेडिंग, ध्वनि में विविधता, फ़िल्म के सीनों में डिटेलिंग वगैरह. इसके साथ ही विजुअल इफ़ेक्ट भी बेहतर तरीके से या सॉफ्टवेयर के ज़रिए बढ़ाकर दिखाया जा सकता है. इससे पूरी फ़िल्म का कलेवर बदल जाता है." आर्थिक पहलू इस तकनीक से फ़िल्म बनाने पर आने वाले खर्च के बारे में बिबुराज बताते हैं, "शूटिंग और प्रिंट, दोनों कामों के लिए इन तकनीकों के इस्तेमाल से फ़िल्म निर्माण की लागत लगभग 40 फीसदी कम हो जाती है क्योंकि शूटिंग में रील की और बाद में प्रिंट की ज़रुरत नहीं पड़ती."
अमूमन एक भारतीय फ़ीचर फ़िल्म के 100 प्रिंट बनाने के लिए 60-70 लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं लेकिन इन दोनों तकनीकों के इस्तेमाल से ये दोनों खर्च बच जाते हैं. हाँ मगर ऐसी फ़िल्मों के प्रदर्शन के लिए एक सिनेमाघर को डिजिटल बनाने पर शुरुआत में क़रीब 18 लाख रुपए तक खर्च होता है. इस आर्थिक पहलू को ध्यान में रखते हुए सिनेमाघरों को तकनीक बाँटने वाली कंपनी ने इस तकनीक को सिनेमाघरों में लगाने का खर्च खुद उठाया है और सिनेमाघरों के मालिक से कोई रक़म नहीं ली है. क़ीमत के तौर पर यह तय हुआ है कि इन सभी सिनेमाघरों में आगे से सभी फ़िल्में यह कंपनी ही रिलीज़ करेगी. कंपनी इन्हें फ़िल्मों के डिजिटल संस्करण उपलब्ध कराएगी. यानी इन सिनेमाघरों में फ़िल्मों के वितरण का एकाधिकार अब इस कंपनी के पास ही है. | इससे जुड़ी ख़बरें सैटेलाइट सिनेमाघर से बदल रही है तस्वीर12 फ़रवरी, 2006 | मनोरंजन डिजिटल तकनीक से रोज़ी ख़तरे में17 मार्च, 2004 | मनोरंजन आख़िरी साँस लेती एक कला27 फ़रवरी, 2004 | मनोरंजन डिज़्नी का पिक्सर को ख़रीदने का फ़ैसला24 जनवरी, 2006 | मनोरंजन हनुमान पर बनी एनिमेशन फ़िल्म26 जुलाई, 2005 | मनोरंजन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||