सोमवार, 13 फ़रवरी, 2006 को 05:50 GMT तक के समाचार
वेदिका त्रिपाठी
मुंबई
पुराने समय में जहां मुंबई के स्टूडियो की अपनी एक पहचान हुआ करती थी, उन्हीं स्टूडियो को आज अपना अस्तित्व बचाने के लिए कई जतन करने पड़ रहे हैं.
कहीं पुनर्निर्माण का काम चल रहा है तो कहीं तोड़फोड़ का, हर स्टूडियो अपनी हालत सुधारने में व्यस्त है.
मुंबई में जहां 20 से भी ज़्यादा स्टूडियो हुआ करते थे, आज इनकी संख्या घटकर करीब पाँच ही रह गई है, जिनमें फ़िल्मिस्तान, फ़िल्मालया, मेहबूब, नटराज तथा आर. के. स्टूडियो मुख्य हैं.
फ़िल्म वाले इसके कारण तो कई बताते हैं लेकिन आजकल फ़िल्मों के आउटडोर सेट्स ज़्यादा हो जाने की वजह से सबसे ज़्यादा खामियाज़ा इन स्टूडियो को भुगतना पड़ रहा है.
चूंकि इन स्टूडियो का रख-रखाव करना भी क़ाफी मुश्किल होता है इसलिए ज़्यादा मुनाफा न देख कई स्टूडियो मालिकों ने इन्हें बंद करने में ही समझदारी समझी.
हिंमाशु राय की बॉम्बे टॉकिज़
सन् 1934 में हिमांशु राय ने बाम्बे टॉकिज़ की शुरुवात की. अपने समय का यह सबसे मॉडर्न स्टूडियो माना जाता था. करीब 25 लाख रूपए की लागत से बने इस स्टूडियो में बेहतर साउंड, एको –प्रूफ स्टेज, ऑटोमैटिक लैबोरेटरी, एडिटिंग रूम, प्रिव्यू थिएटर तथा जर्मनी से आए तकनीशियन थे.
बॉम्बे टॉकिज़ भारत की पहली पब्लिक लि. फ़िल्म कंपनी बनी. यहां की पहली फ़िल्म ‘जवानी की हवा’ (1935) थी, जिसमें देविका रानी मुख्य भूमिका में थी. लेकिन बॉम्बे टॉकिज 1936 में अपनी फ़िल्म ‘जीवन नैया’ से लोगों की नजरों में आया. इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार देविका रानी तथा अशोक कुमार थे.
अशोक कुमार ने स्टार बनने से पहले बॉम्बे टॉकिज़ में लैबोरेटरी एसिस्टेंट की नौकरी की थी. भारतीय सिनेमा के शोमैन राज कपूर ने भी यहां पर नौकरी की है. देविका रानी, जो बाद में हिमांशु राय की पत्नी बनीं, को भी पहला मौका इसी जगह से मिला था.
सन् 1939 में जब दूसरे विश्व युध्द की घोषणा हुई तो वह समय बॉम्बे टॉकिज़ के पतन का गवाह बन गया. बाद में पार्टनरों की आपसी खटपट से कंपनी की हालत दिनों दिन खस्ता होती चली गई. 1965 से बॉम्बे टॉकिज़ बंद पड़ा है.
राजश्री का प्रिय फ़िल्मिस्तान
तोलाराम जालान तथा शशधर मुखर्जी ने जून 1943 में फ़िल्मिस्तान स्टूडियो की शुरूवात की. पहले यह स्टूडियो सिर्फ अपने लिए ही फ़िल्में बनाती थी, लेकिन अब इसे किराए पर भी दिया जाने लगा है.
फ़िल्मिस्तान स्टूडियो के मैनेजर ओमप्रकाश मिश्रा बताते हैं, "फ़िल्मिस्तान में पहले चार स्टूडियो थे, लेकिन पिछले दस वर्षों में 12 स्टूडियो बन गए हैं जिनमें पुलिस स्टेशन, सेंट्रल जेल, हॉस्पिटल, मंदिर तथा अन्य कई लोकेशन तैयार किए गए हैं."
यहां की निर्मित पहली फ़िल्म ‘चल चल रे नवजीवन’ (1944) थी, जिसके मुख्य कलाकार अशोक कुमार और नसीम थीं. यहां पर हिंदी फ़िल्मों के अलावा अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी तथा मराठी फ़िल्में भी खूब बनीं.
इस स्टूडियो ने कई निर्माताओं को मालामाल किया है. राजश्री प्रोडक्शन की ज़्यादातर फ़िल्में यहीं बनती रही हैं.
कुछ कुछ होता है, हम आपके हैं कौन, पाक़ीजा, नागिन आदि जैसी सुपरहिट फ़िल्में इसी स्टूडियो की देन है.
फ़ीचर फ़िल्मों के अलावा यहां पर टी.वी. सीरियल, गेम शो और विज्ञापन की फ़िल्में बनती हैं.
फ़िल्मालय यानी एक्टिंग स्कूल
सन् 1958 में शशधर मुखर्जी के साथ अन्य कई लोगों ने इस स्टूडियो की शुरूवात की. यहाँ ‘दिल देके देखो’, ‘लव इन शिमला’, ‘लीडर’, ‘आओ प्यार करें’ जैसी चर्चित फ़िल्में बनीं.
7880 वर्ग मीटर में फैला यह स्टूडियो एशिया का सबसे पहला ‘एक्टिंग स्कूल’ भी कहा जाता है.
साधना, आशा पारिख, संजीव कुमार, जॉय मुखर्जी जैसे कलाकार इसी एक्टिंग स्कूल की देन रहे हैं. इन सबको पहली फ़िल्मों के लिए भी यहीं मौक़ा मिला.
हालांकि ‘सड़क’, ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ जैसी अन्य कई फ़िल्मों की पूरी शूटिंग यहीं पर हुई है लेकिन फ़िलहाल, यह स्टूडियो पूरी तरह से टूट फूट गया है.
राजकपूर का सपना था आरके
वर्ष 1947 में जब पृथ्वीराज कपूर का पृथ्वी थिएटर अपने परंपरागत और प्रयोगात्मक नाटकों से पूरे देश में वाहवाही बटोर रहा था, उसी समय उनके बेटे राज कपूर जिनकी फ़िल्में ‘आग’ तथा ‘बरसात’ ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छे कमाल दिखाए थे और वे मुंबई में अपना स्टूडियो खोलने का सपना बुन रहे थे.
अक्तूबर 1950 में राज कपूर ने मुंबई के चेंबूर शहर में आरके स्टूडियो की नींव रखी और चार एकड़ की जमीन पर स्टूडियो का काम शुरू हुआ. फ़िर इस स्टूडियो ने राज कपूर की सफलता और विफलता दोनों के दौर देखे लेकिन इसका रुतबा एक जैसा बना रहा.
आज आरके स्टूडियो की हालत अच्छी नहीं है और अब ये बंद ही रहता है. 1999 में बनी फिल्म ‘आ अब लौट चलें’ इस स्टूडियो की आखिरी फ़िल्म थी.
रणधीर कपूर और ऋषि कपूर की देख-रेख में यह स्टूडियो अपनी धूमिल पहचान को निखारने की भरसक कोशिश जरूर कर रहा है. कई सीरियल तथा शो यहां पर होते रहते हैं लेकिन अब वो जलवे के दिन नहीं.
घाटे का डर
एक तो आउटडोर शूटिंग और दूसरे तकनीक का हावी होना ऐसी दो वजहें रही हैं जिसकी वजह से मुंबई के कई स्टूडियो को काम मिलना बंद हो गया.
काम न हो तो रखरखाव भी अपने आपमें चुनौती होता है.
मुंबई के कितने ही स्टूडियो ने तो घाटे के डर से (या घाटा होने के बाद) घुटने टेक दिए. ‘रूपतारा स्टूडियो’, ‘श्री साउंड स्टूडियो’, ‘रंजीत स्टूडियो’ आदि का तो नामो निशान तक नहीं बचा है.
वी. शांताराम का 'राजकमल कलामंदिर' भी लगभग इसी रास्ते पर अग्रसर है.
कारण कुछ भी हो, लेकिन इन पुराने स्टूडियो की गुमनामी से आने वाले दिनों में मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को कई कठिनाइयों का सामना करना पड सकता है.