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'दस्तावेज़' के तैयार होने तक की कथा | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
वह मंटो की हक़ीक़तपसंदी ही थी जिसके चलते वह उर्दू के साहित्यकारों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गया. लेकिन उर्दू में ही क्यों, हिंदी में भी वह उतना ही, बल्कि उससे भी ज़्यादा लोकप्रिय है. इसका प्रमाण उस समय सामने आया जब दिसंबर 1992 के दूसरे सप्ताह में उसकी पाँच खंडों में संकलित रचनावली “दस्तावेज़” का दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में लोकार्पण हुआ. एक सप्ताह पहले ही बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, जिसके फलस्वरूप सारे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे. दिल्ली के कई इलाक़ों में कर्फ़्यू लगा हुआ था, मगर लोग फिर भी कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर किसी तरह त्रिवेणी पहुंचे थे और हॉल खचाखच भर गया था. डेढ़-दो सौ लोग ऐसे थे, जिन्हें बैठने के लिए कुर्सी नसीब नहीं हुई थी और वे सीढ़ियों पर तथा कुर्सियों की क़तारों के बीच खाली जगहों में बैठे हुए थे. मंटो की दो बेटियाँ, जिन्हें पाकिस्तान से लोकार्पण के लिए ख़ासतौर पर आमंत्रित किया गया था, यह नज़ारा देखकर दंग रह गई थीं. उन्हें शायद पहली बार इस बात का अहसास हुआ था कि उनका बाप इतना बड़ा लेखक था. पुस्तकों के लोकार्पण समारोहों में, वह एक ऐसा समारोह था, जिसकी कोई दूसरी मिसाल आज तक देखने को नहीं आई. समारोह के बाद बिक्री के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो वे भी चौंकानेवाले हैं. जिस हिंदी में किताबें न बिकने का रोना रोया जाता है, उसमें “दस्तावेज़” को पाँच खंडों का एक हज़ार प्रतियों का संस्करण मात्र दो महीने नौ दिन में ख़त्म हो गया था. लेकिन यह तो “दस्वावेज़” के मंज़िल पर पहुंच जाने की दास्तान है. दस्तावेज़ का बनना इसके बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. मेरी ओर दस्तावेज़ के दूसरे संपादक बलराज मनेरा की मुलाक़ात दिल्ली के रीगल सिनेमा के पिछवाड़े जुबैर रिज़वी के माध्यम से हुई थी. इससे पहले हम दोनों अपने-अपने तौर पर अलग-अलग, एक-दूसरे से बेख़बर, मंटो की संगत में ज़िदगी गुज़ार रहे थे. मंटो और मनेरा की दोस्ती सन् 1951 में शुरू हुई. और मंटो से मेरी दोस्ती का आरंभ सन् 1958 में हुआ. बलराज मेनरा से मेरी दोस्ती, मंटो के ताल्लुक़ से, इमर्जेंसी के स्याह साए मे पनपी. जैसा कि 'दस्तावेज़' के चौथे खंड की भूमिका में दर्ज है, “मंटो-मेनरा-शरद दोस्ती तीन व्यक्तियों या तीन नामों के गिर्द नहीं घूमती. इस दोस्ती को हर पल, हर घड़ी दसों दिशाओं में फैलाने का काम नीती ने भी किया है, भोलू ने भी, बिशन सिंह ने भी और मम्मद भाई ने भी.” और फिर इन के साथ जुड़ गए राजकमल प्रकाशन के मोहन गुप्ता. वे भी मंटो के मारे हुए थे. और इस तरह बनी “दस्तावेज़” के प्रकाशन की भूमिका. फिर तो इस योजना का विस्तार दिल्ली से लाहौर तक हो गया. वहाँ जाकर मंटो की अनुपलब्ध-अप्रकाशित कहानियाँ खोजी गईं, मंटों की क़ब्र के और दूसरी जगहों के फोटोग्राफ़ लिए गए और इस तरह “दस्तावेज़” को एक शक्ल दी गई. ('दस्तावेज़' मंटो की रचनाओं का पाँच खंडों में प्रकाशित संकलन है) |
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