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नौटंकी की जगह अश्लील नाच गाने | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जब दुनिया बदल रही हो तब लोकपरंपराएँ और लोककलाएँ इससे परिवर्तन से अछूता कैसे रखा जा सकता है. इसी परिवर्तन का एक उदाहरण है पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों और कस्बों में परंपरागत नौटंकी में आई तब्दीलियाँ. कभी नौटंकी को गाँवों और कस्बों में रहने वाली जनता को देश दुनिया की जानकरी प्रदान करने, समाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों से परिचित कराने और सस्ता-स्वस्थ मनोरंजन का साधन माना जाता था. लेकिन अब संदेश और जानकारी की बात को दूर की बात अब तो नौटंकी सिर्फ़ मनोरंजन का साधन रह गई है और वह भी बेहद अश्लील मनोरंजन का. पूर्वी उत्तर प्रदेश के लगभग सभी शहरों वाराणसी, गाजीपुर, मऊ, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्ज़ापुर, गोरखपुर, बलिया के ग्रामीण इलाकों में इस प्रकार की दर्जनों नौटंकी और थियेटर कम्पनियाँ हैं. पूर्वी ऊत्तर प्रदेश के मेलों में से कुछ को लक्खी मेला कहा जाता है. इसका मतलब यह है कि एक लाख से ज़्यादा भीड़ वाले मेले. नौटंकी इन मेलों की अभिन्न अंग होती है. इसके अलावा साप्ताहिक बाज़ारों में नौटंकी होती है. बाबतपुर, सारनाथ और बलिया के प्रसिद्ध ददरी मेलों से लेकर कस्बों मे लगने वाले साप्ताहिक बाजार तक नौटंकी देखा जा सकता है. पाँच रूपये से लेकर दस रूपये तक का टिकट लेकर किसी भी उम्र का व्यक्ति नौटंकी देख सकता है. टिकट का मूल्य, किसी विशेष महिला कलाकार की उपस्थिति, उसकी उम्र और अश्लील हरकतों की अधिकता पर निर्भर करता है. अश्लीलता इन दिनों नौटंकी में आमतौर पर नाच ही होते हैं. कोई महिला कलाकार क्षेत्रीय भाषा (भोजपुरी) पर नृत्य करती है. इस महिला कलाकार की भाव भंगिमाएँ बेहद भोंडी होती हैं और ज़्यादातर अश्लील भी. बीच-बीच में महिला कलाकार को भीड़ के अश्लील हरकतों का और भी अधिक अश्लीलता के साथ जबाब देना, या भीड़ की हरकतों को दोहराना होता है. एक गाने के ख़त्म होने के बाद दूसरी महिला कलाकार स्टेज पर आती है ये क्रम 6-7 बार दोहराया जाता है. एक घंटे से डेढ़ घंटे तक के शो दिन ग्यारह बजे से रात ग्यारह बजे के बीच 5-6 बार दोहराए जाते हैं. कार्यक्रम के दौरान भीड़ पर कोई नियंत्रण नहीं होता और अनियत्रित भीड़ को पूरी मनमानी करने की छूट रहती है. इसका नतीजा यह होता है कि इस तरह के कार्यक्रमों को देखने पहुचे लोगों में एक बड़ी संख्या शराब के नशे में धुत्त लोगों की होती है. नौटंकी से जुड़े पुरूष कलाकारों को केवल परदे के पीछे नौटंकी में संगीत देने की भूमिका तक ही सीमित कर दिया गया है. मजबूरी थियेटर कम्पनी और नौटंकी से जुड़े मुगलसराय के बाबूलाल यादव जो 25 वर्षो से इससे जुड़े हुऐ हैं का कहना है, "पहले ऐतिहासिक विषयों पर नाटक हुआ करते थे फिर धीरे-धीरे फ़िल्मी गीतों पर आधारित कार्यक्रमों का प्रर्दशन किया जाने लगा और आज अश्लीलता ही लोग देखना चाहते हैं." वे कहते हैं, "हम क्या करें, आख़िर हमें भी तो घर चलाना है." थियेटर और नौटंकी से जुड़ी अधिकतर महिलाएँ और लड़कियाँ ग़रीब दलित या अल्पसंख्यक वर्ग से आती हैं. मिर्जापुर जिले के नारायणपुर में स्थित 'जयहिन्द थियेटर' की चौदह वर्ष की रूपा अपने पिता की मृत्यु के बाद अपनी बड़ी बहन के साथ थियेटर कम्पनी से जुड़ीं. रूपा बताती हैं, "थिएटर में काम करना लगभग सभी लड़कियों की कोई मज़बूरी है. चाहे वह किसी भी थियेटर नौटंकी से क्यो न जुड़ी हों." वहीं नारायणपुर के 'सलाम थियेटर' की सत्रह वर्ष की रेशमा का कहना है, "इसमें पैसा अच्छा मिलता है एक दिन का एक हजार से पन्द्रह सौ रूपये तक."
थिएटर कंपनी के लोग बताते हैं कि दर्शकों को लुभाने के लिए वास्तविक नाम बदल दिये जाते हैं जैसे रेशमा, सुल्ताना, मोना, रंगीली आदि. महिला कलाकार बताती हैं कि इन नामों का उनके वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता और पैसा मिलने के बाद वे इस नाम को वही छोड़ आती हैं. वे बताती हैं कि घर आते ही वे एक घरेलू लड़की हो जाती हैं. रेशमा कहती हैं, "रिश्तेदारों, गाँव के लोगों की मुझे कोई परवाह नहीं. मेरे लिए पैसा ज़्यादा महत्वपूर्ण है." परछाइयाँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रवक्ता और महिला अध्ययन और विकास केन्द्र की संयोजक डॉ. चन्द्रकला पाडिया का इस बारे में कहना है, "विश्व में बाज़ारीकरण व्यवस्था की नींव ही महिलाओं के शोषण पर टिकी हुई है. स्थानीय स्तर पर नौटंकी का बदलता रूप तो इस व्यवस्था की झलक मात्र है." बनारस हिन्दू विश्वविद्दालय के समाजशास्त्र विभाग में प्रवक्ता और प्रसिद्ध समाजशास्त्री ड़ॉ. अशोक कौल इसे परछाइयों का युग कहते हैं. वे कहते हैं, "1980 के दशक तक गाँवों में बन्धुत्व था, सामाजिक एकता और समरसता का भाव था नौटंकी का अर्थ स्वस्थ्य मनोरजन, जानकारी प्रदान करना सामाजिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और इसमें व्यक्ति के योगदान से जुड़ा था. लेकिन बाद के दशकों में अमरीकी प्रभाव से दुनियाँ एक बाज़ार में बदल गई और धीरे-धीरे हमारी परम्पराओं, त्योहारों और सामाजिक मूल्यों का भी बाज़ारीकरण हो गया." वे मानते हैं, "जब बाज़ार मौलिकता के स्थान पर अश्लीलता और सस्ते मनोरंजन का हो तो इस तरह का बदलाव आना स्वभाविक है. आज की नौटंकी नौटंकी न होकर उसकी परछाईं मात्र है परन्तु अब तो बाज़ार परछाइयों का ही है वास्तविक स्वरूप का नहीं." इस लिहाज से तो सामाजिक मूल्यों में गिरावट, बदलती परिस्थितियाँ, व्यक्तिगत जीवन के मूल्यों में होते बदलाव को देखते हुए इस प्रकार की परंपराओं का अपने वास्तविक रूप में वापस लौटना कठिन लगता है. |
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