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125 साल के सफ़र के बाद भारतीय सर्कस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सर्कस के बारे में सोचें तो याद आते हैं जोकर, वो कलाकार जो करतब पर करतब दिखाते चले जाते है. ऐसा लगता है कि उनके पास कभी न ख़त्म होने वाली ऊर्जा है. इसी ऊर्जा के साथ सर्कस साल दर साल लोगों का मनोरंजन करता आ रहा है और अब तो भारतीय सर्कस ने 125 सालों का लंबा सफर तय कर लिया है. लेकिन अब सर्कस के सुनहरे दिन नहीं रहे और उनको अपनी यात्रा जारी रखने के लिए काफ़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. शुरूआती दौर भारत में सर्कस पहली बार दिसंबर 1879 में आया था. विलियम शिरनी के नेतृत्व में वह सर्कस इटली से आया था. प्रदर्शन के दौरान दर्शकों को चुनौती देते हुए शिरनी ने कहा था कि उनके जैसा खेल कोई नहीं दिखा सकता.
महाराष्ट्र के कुरुवदन के राजा ने न सिर्फ इस चुनौती को स्वीकार किया बल्कि उनके घोड़े के प्रशिक्षक ने अपने करतब भी दिखाए. राजा का अश्व प्रशिक्षक और कोई नहीं बल्कि विष्णुपंत मोरेश्वर छत्रे थे जिन्होंने शिरनी सर्कस की तर्ज पर ही 1880 में छत्रे ने सर्कस की नींव डाली. ये सर्कस पशुओं के करतबों पर ही आधारित था और इसमें इंसानी प्रदर्शन न के बराबर ही थे. सर्कस की बढ़ती लोकप्रियता को देख ब्रिटिश भारत में बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने इस सर्कस को आज़ादी का संदेश आम लोगों तक पहुँचाने का माध्यम बनाया. छत्रे के काम को आगे बढ़ाया केरल के अध्यापक "केलरी कुन्हीकन्न" ने. कलाकारों को प्रशिक्षण देने के लिए उन्होंने एक स्कूल भी स्थापित किया. "तलेशरी" में उनके द्वारा शुरू किए सर्कस स्कूल ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक भारतीय कलाकार दिए. हालाँकि सर्कस की शुरुआत को महाराष्ट्र में हुई परंतु विकास में सबसे ज़्यादा योगदान केरल का ही रहा. आज भी भारतीय सर्कस में दबदबा केरल का ही है. 1900 के दौरान भारत में 50 से अधिक सर्कस चल रहे थे. जैसे-जैसे लोगों के बीच सर्कस का आकर्षण बढ़ता रहा, सर्कसों की संख्या भी बढ़ती गई. 1924 में रैमन और 1951 में जैमनी सर्कस बना. लेकिन धीरे-धीरे सर्कस पर मुसीबतें भी आने लगीं और उनकी संख्या घटने लगी.
आज इनकी संख्या घटते-घटते 10 के आस-पास पहुँच गई है. इस समय जम्बी, रैम्बी, जैमिनी, ग्रेट रैमन, नेशनल और ग्रेट बाम्बे मुख्य सर्कस हैं. सर्कस के कलाकारों में सबसे बड़ा नाम "दामो दोत्रे" का है. हालीवुड़ की फिल्म "साबू एंड द एलीफेंट" उन्हीं पर आधारित थी. पढ़ाई छोड़कर 14 साल की उम्र में रिंग मास्टर बने दामो दोत्रे ने मलेशिया, थाइलैंड, बर्मा, इंडोनेशिया, लंका और चीन में इस कला को ख़ूब फैलाया और नाम कमाया. दोत्रे ने अमरीका के रिंगलिंन ब्रदर्स के साथ भी काम किया. फिल्मों में सर्कस शो मैन राजकपूर सर्कस से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इस पर "मेरा नाम जोकर" बना डाली. राजकपूर ने वह फ़िल्म बहुत उम्मीदों के साथ बनाई थी और जब वह उनकी उम्मीदों के अनुरुप सफ़ल नहीं हुई तो कहते हैं कि राजकपूर का दिल ही टूट गया.
अपने कैरियर के शुरुआती दौर में शाहरुख खान ने "सर्कस" धारावाहिक में काम किया. कमल हसन ने "अप्पू राजा" में बौने का किरदार निभाया. "मेरा नाम जोकर" और "अप्पू राजा" की शूटिंग "जैमनी सर्कस" में हुई. शाहरुख के सर्कस धारावाहिक की शूटिंग "अपोलो सर्कस" में हुई जबकि "शिकारी" फिल्म में जम्बो सर्कस नज़र आया. इसके अलावा भी कई फ़िल्में हैं जिसकी पृष्ठभूमि में भी सर्कस रहा है. चुनौतियाँ 125 साल पुराने भारतीय सर्कस की जहाँ एक ओर टी.वी., केबल, सिनेमा से तगड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है वहीं दूसरी ओर सर्कस में जानवरों के खेल और प्रदर्शन पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है. भारतीय सर्कस संघ ने केन्द्र सरकार से 1970 के वन्य जीव संरक्षण क़ानून की समीक्षा करने को कहा है. जैमनी सर्कस के मालिक प्रेम कुमार कहते हैं "हम अपने जानवरों को प्यार करते हैं और उन्हें भूखा रखने, आग से डराने जैसे आरोप एक दम गलत हैं और अगर हम ऐसा करेंगे तो हमारे जानवर जीवित कैसे रहेंगे." सर्कस उद्योग में लगभग 20 हजार लोग काम करते हैं. भारतीय कलाकारों के साथ-साथ रूसी, नेपाली, उजबेकिस्तान और अन्य देशों के कलाकार भी इसमें काम करते हैं. अब सर्कस को एक और विवाद घेर रहा है वो है "बाल श्रम" का. और कुछ स्वयंसेवी संगठन 14 साल से कम उम्र के बच्चों के प्रदर्शन का विरोध कर रहे हैं. "बटरफ्लाइ" संस्था की निदेशक रीता पणिकर का मानना है, "पटाखा उद्योग और सर्कस में अंतर ही क्या है. दोनों जगह बच्चें खतरों का सामना करते हैं ये बंद होना चाहिए. " लेकिन भारतीय "भारतीय सर्कस संघ" के अध्यक्ष अशोक शंकर कहते हैं जिस तरह से फिल्म उद्योग, विज्ञापन और खेलों की दुनिया में बच्चे काम करते हैं उसी तरह से सर्कस भी एक कला है और इसे बचपन से सीखना पड़ता है. भारतीय सर्कस को दर्शकों की घटती संख्या के साथ-साथ धन की कमीं व प्रायोजकों की कमी है. सर्कस को आम जनता तक पहुँचाने के लिए तमाम सरकारी विभागों से अनुमति लेनी पड़ती है. मैदान की खोज में सर्कस को भटकना पड़ता है. जम्बो सर्कस के मालिक अजय शंकर मानते हैं, "सर्कस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए आकादमी बननी चाहिए और स्थायी स्टेडियम बने ताकि सर्कस को लेकर भटकना न पड़े." |
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