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शुक्रवार, 10 सितंबर, 2004 को 16:44 GMT तक के समाचार
 
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सेंसरशिप ज़रूरी नहीं: राहुल बोस
 

 
 
राहुल बोस
राहुल का शुमार गंभीर किस्म के अभिनेताओं में होता है
राहुल बोस ने 'मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर', 'इंग्लिश ऑगस्ट' और 'चमेली' जैसी फ़िल्मों से अभिनय के क्षेत्र में एक अलग मुक़ाम हासिल किया है. उनके निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म 'एवरीबडी सेज़ आई एम फ़ाइन' पिछले हफ़्ते ही रिलीज़ हुई है. राहुल अच्छे रग्बी खिलाड़ी भी हैं, और समाज सेवा के क्षेत्र में भी उनकी सक्रियता रही है.

हमने उनसे विभिन्न मुद्दों पर बात की. पेश हैं प्रमुख अंश-

राहुल, आप अभिनेता कैसे बन गए?
बचपन से मेरी थियेटर मे रुचि थी. दूसरी कक्षा से ही मैंने एक्टिंग शुरू कर दी. और कॉलेज की पढ़ाई पूरी होते ही मुझे मुंबई थियेटर में रोल मिलने लगे. एक रोल के बाद मुझे इंग्लिश ऑगस्ट का ऑफ़र मिला.

मेरे मन एक बात ज़रूर थी कि एक्टिंग से कभी पैसे मिलने वाले नहीं हैं. मुझे कभी मुख्यधारा की हिंदी सिनेमा का शौक नहीं था. अब भी नहीं है.

ऐसा क्यों?
मेनस्ट्रीम हिंदी फ़िल्मों के बारे में मेरा ख़्याल वही है, जो कि मेनस्ट्रीम हॉलीवुड फ़िल्मों के बारे में...इसमें एक्साइटमेंट नहीं है, इसमें सेरेब्रल या इमोशनल ग्रोथ नहीं मिलता.

'एवरीबडी सेज़ आई एम फ़ाइन' न्यूयॉर्क में रिलीज़ हुई है. इसमें इतना वक़्त क्यों लगा?
ये फ़िल्म भारत में 2002 में ही रिलीज़ हो चुकी है. अगर फ़िल्म छोटी हो तो आपको हर शहर में रिलीज़ करने के लिए वितरक नहीं मिलते. एक शहर से दूसरे में घूमते-घूमते यह फ़िल्म अब न्यूयॉर्क पहुँची है.

गीता का ज्ञान
 मेरा व्यक्तित्व हिंसक या आक्रामक नहीं है. मैं चिल्लाता नहीं हूँ. गीता में भी लिखा है अगर आपको खेल के मैदान में उतरना है, चाहे वो ज़िंदगी के संदर्भ में हो या कुछ और, आपका कर्तव्य है कि आप अपने किरदार को पूरी तरह निभाएँ.
 

पिछले दिनों बड़ी संख्या में ऐसी फ़िल्में आई हैं जो मुख्यधारा में भले ही हों, लेकिन काफ़ी अंग्रेजी का इस्तेमाल करती हैं और दुनिया भर में प्रदर्शित की जाती हैं, और सराही भी जाती हैं. इस बारे में आप क्या कहेंगे?
मैं समझता हूँ लोग बहुत बहक गए हैं, और क्रॉसओवर फ़िल्म का मुहावरा बहुत इस्तेमाल कर कह रहे हैं कि हम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म बनाएँ. अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म का ये मतलब नहीं है कि आप अमरीकी दुल्हन और भारतीय दूल्हा के साथ कोई फ़िल्म बनाएँ. इससे आपको अंतरराष्ट्रीय बाज़ार नहीं मिलने वाला. मेरा तो सिर्फ ये कहना है कि अगर हमें भारतीय फ़िल्मों में अंतरराष्ट्रीय रुचि भर को भुनाना है तो मलयालम में फ़िल्में बनाइए, भोजपुरी में बनाइए, लेकिन अपनी इंटिग्रिटी को बनाए रखिए, जो कहानी आप कहना चाहते हैं वो कहिए.

भारत में फ़िल्म सेंसरशिप के बारे में आपके क्या विचार हैं?
पहले तो मैं ये समझता हूँ कि सेंसरशिप किसी समाज में ज़रूरी नहीं है. अगर आप फ़िल्मों के लिए सेंसिटिव रेटिंग सिस्टम अपनाएँ, जैसे अमरीका में यू, यूए, आर, एक्स, डबल एक्स और ट्रिपल एक्स, तो उससे ही आप मॉनिटर कर सकते हैं. जिन्हें आप इन फ़िल्मों से दूर रखना चाहें, रख सकते हैं.

आप एक ओर तो राष्ट्रीय स्तर पर रग्बी खेलते हैं जो बहुत ही आक्रामक खेल है, और दूसरी ओर फ़िल्मों में बहुत ही संवेदनशील और गंभीर किरदारों के रूप में दिखते हैं. असलियत में राहुल इनमें से कौन है?
...मेरा व्यक्तित्व हिंसक या आक्रामक नहीं है. मैं चिल्लाता नहीं हूँ. गीता में भी लिखा है अगर आपको खेल के मैदान में उतरना है, चाहे वो ज़िंदगी के संदर्भ में हो या कुछ और, आपका कर्तव्य है कि आप अपने किरदार को पूरी तरह निभाएँ.

 
 
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