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झाड़ू-पोंछे से लेखिका बनने का सफ़र | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली एक नौकरानी का लेखक बन जाना किसी फ़िल्म की तरह कपोल-कल्पित कहानी लगती है. लेकिन यह चमत्कार सचमुच हुआ है और बेबी हालदार अब बाक़ायदा एक लेखिका हैं. उनकी पहली किताब “आलो आंधारि” पिछले साल हिंदी में प्रकाशित हुई और अब तक उसके दो संस्करण छप चुके हैं. हाल ही में इसका बांग्ला संस्करण प्रकाशित हुआ है और इसका विमोचन सुपरिचित लेखिका तस्लीमा नसरीन ने किया है. “आलो आंधारि” छपने के बाद तो अड़ोस-पड़ोस में काम करने वाली दूसरी नौकरानियों को भी लगने लगा है कि ये उनकी ही कहानी है. बेबी हालदार अपने को “काजेर मेये” (काम करने वाली) कहती हैं. 29 साल पहले जम्मू-काश्मीर के किसी ऐसी जगह में उनका जन्म हुआ, जहां उनके पिता सेना में थे. अभाव और दुख की पीड़ा झेलती बेबी अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि अपनी किताब “आलो आंधारि” को मानती हैं. पिछले दिनों वे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर पहुँचीं तो आलोक प्रकाश पुतुल ने उनसे लंबी बात की. बेबी हालदार की आत्मकथा सुनिए उन्हीं की ज़ुबानी - पिता सेना में थे, लेकिन घर से उनका सरोकार कम ही था. सेना की नौकरी से रिटायर होने के बाद पिता बिना किसी को कुछ बताए, कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते. लौटते तो हर रोज़ घर में कलह होता. एक दिन पिता कहीं गए और उसके कुछ दिन बाद मां मन में दुख और गोद में मेरे छोटे भाई को लेकर यह कह कर चली गई कि बाज़ार जा रही हैं. इसके बाद मां घर नहीं लौटीं. इधर पिता ने एक के बाद एक तीन शादियां कीं. इस दौरान मैं कभी अपनी नई मां के साथ रहती, कभी अपनी बड़ी बहन के ससुराल में और कभी अपनी बुआ के घर. मां की अनुपस्थिति ने मन में पहाड़ जैसा दुख भर दिया था. यहां-वहां रहने और पिता की लापरवाही के कारण पढ़ने-लिखने से तो जैसे कोई रिश्ता ही नहीं बचा था. शादी और दुख सातवीं तक की पढ़ाई करते-करते 13 वर्ष की उम्र में मेरी शादी, मुझसे लगभग दुगनी उम्र के एक युवक से कर दी गई. फिर तो जैसे अंतहीन दुखों का सिलसिला-सा शुरु हो गया. पति द्वारा अकारण मार-पीट लगभग हर रोज़ की बात थी. पति की प्रताड़ना और पैसों की तंगी के बीच ज़िल्लत भरे दिन सरकते रहे. एक-एक कर तीन बच्चे हुए. उसी क्रम में दो जून की रोटी की मशक़्कत के बीच पति का अत्याचार बढ़ता गया. अंततः एक दिन अपने बच्चों को लेकर घर से निकल गई. दुर्गापुर...फ़रीदाबाद...गुड़गांव. एक घर से दूसरे घर, नौकरानी के बतौर लंबे समय तक काम किया. नौकरानी के बजाय बंधुआ मज़दूर कहना ज़्यादा बेहतर होगा. सुबह से देर रात तक की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी ख़ुशियों की कोई रोशनी कहीं नज़र नहीं आ रही थी. प्रेमचंद के परिवार का सहारा ऐसे ही किसी दिन मेरे एक जान-पहचान वाले ने मुझे गुड़गाँव में एक नए घर में काम दिलवाया. यहां मैंने पाया कि इस घर का हर शख़्स मेरे साथ इस तरह व्यवहार करता था, जैसे मैं इस घर की एक सदस्य हूँ.
घर के बुजुर्ग मुखिया, जिन्हें सब की तरह मैं भी तातुश कहती थी, (यह मुझे बाद में पता चला कि इसका अर्थ पिता है) अक्सर मुझसे मेरे घर-परिवार के बारे में पूछते रहते. उनकी कोशिश रहती कि हर तरह से मेरी मदद करें. कुछ माह बाद अतिक्रमण हटाने के दौरान मेरे किराए के घर को भी ढहा दिया गया और अंततः तातुश ने मुझे अपने बच्चों के साथ अपने घर में रहने की जगह दी. इसके बाद दूसरे घरों में काम करने का सिलसिला भी ख़त्म हो गया. तातुश के घर में सैकड़ों-हज़ारों किताबें थीं. बाद में पता चला कि तातुश प्रोफ़ेसर के साथ-साथ बड़े कथाकार हैं. उनकी कहानियां और लेख इधर-उधर छपते रहते हैं. उनका नाम प्रबोध कुमार है. और यह भी कि तातुश हिंदी के सबसे बड़े उपन्यासकार प्रेमचंद के नाती हैं. अक्सर किताबों की साफ़-सफ़ाई के दौरान मैं उन्हें उलटते-पलटते पढ़ने की कोशिश करती. ख़ास तौर पर बंगला की किताबों को देखती तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते. तातुश ने एक दिन मुझे ऐसा करते देखा तो उन्होंने एक किताब देकर मुझे उसका नाम पढ़ने को कहा. मैंने सोचा, पढ़ तो ठीक ही लूंगी लेकिन ग़लती हो गयी तो? फिर तातुश ने टोका तो मैंने झट से किताब का नाम पढ़ दिया-“आमार मेये बेला, तसलीमा नसरीन!” तातुश ने किताब देते हुए कहा कि जब भी फुर्सत मिले, इस किताब को पढ़ जाना. फिर एक दिन कॉपी-पेन देते हुए तातुश ने अपने जीवन के बारे में लिखने को कहा. मेरे लिए इतने दिनों बाद कुछ लिखने के लिए कलम पकड़ना किसी परीक्षा से कम न था. लिखने का सिलसिला मैंने हर रोज़ काम ख़त्म करने के बाद देर रात गए तक अपने बारे में लिखना शुरु किया.
पन्नों पर अपने बारे में लिखना ऐसा लगता था, जैसे फिर से उन्हीं दुखों से सामना हो रहा हो. तातुश उन पन्नों को पढ़ते, उन्हें सुधारते और उनकी ज़ेराक्स करवाते. लिखने का यह काम महीनों चलता रहा. एक दिन मेरे नाम एक पैकेट आया, जिसमें कुछ पत्रिकाएं थीं. अंदर देखा तो देखती रह गयी. अपने बच्चों को दिखाया और उन्हें पढ़ने को कहा. मेरी बेटी ने पढ़ा - बेबी हालदार! मेरे बच्चे चौंक गए-“मां, किताब में तुम्हारा नाम.” तातुश के कहानीकार दोस्त अशोक सेकसरिया और रमेश गोस्वामी ने कहा-ये तो एन फ्रैंक की डायरी से भी अच्छी रचना है. मैं अपनी कहानी लिखती गई..लिखती गई. फिर एक दिन एक प्रकाशक आए. वो मेरी किताब छापना चाहते थे. तातुश ने मेरी बंगला में लिखी आत्मकथा का पूरा अनुवाद हिंदी में कर दिया था. इस तरह मेरी पहली किताब छपी- “आलो आंधारि.” कोलकाता के रोशनाई प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है. कुछ ही समय में किताब का दूसरा संस्करण निकला... फिर इसका बांगला संस्करण. 'माइ मदर इज़ अ राइटर!' इधर मैंने हाल ही में अपनी दूसरी किताब पूरी की है. इस किताब में “आलो आंधारि” के छपने के बाद मेरे जैसी नौकरानी के प्रति समाज के व्यवहार में आए बदलाव को केंद्र में रखा गया है. ज़ाहिर है, कल तक जो लोग मेरी तरफ़ देखते भी नहीं थे, वो अब मुझसे बात करने को लालायित रहते हैं. हर रोज़ कई चिट्ठियां आती हैं. अंधेरे और उजाले की मेरी इस कहानी का कोई नाट्य रुपांतरण करना चाहता है, कोई किसी और भाषा में अनुवाद. कोई इसका काव्य रुपांतरण करना चाहता है तो कोई इस पर फ़िल्म बनाना चाहता है. पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में इस पर चर्चा हो रही है. लेकिन मैं कोई लेखिका नहीं हूं, मैं तो अब भी एक काजेर मेये (काम करने वाली) ही हूं. मैं तो अब भी यह समझ नहीं पाती कि मेरी अपनी कहानी लोगों को क्यों इतनी पसंद आई. तातुश को पूछती हूं तो वो टाल जाते हैं. हां, कल तक मेरे बच्चे अपनी मां का परिचय देने में शरमाते थे. मैं गुड़गाँव में ही रहती हूँ. अब मेरी बेटी बड़े गर्व के साथ मेरा परिचय देती है- माइ मदर इज़ अ राइटर. |
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