बुधवार, 09 जून, 2004 को 17:47 GMT तक के समाचार
वीरा
इस विषय को लेकर खासी लंबी बहस हो सकती है कि सहगल एक बेहतर ग़ज़ल गायक थे या कि भजन गायक.
वे श्रृंगार रस के गीतों में अधिक रस घोलते थे या अर्धशास्त्रीय गीतों की उनकी अदायगी बाकी गीतों से बीस उतरती है.
जिन्होंने उनके गीतों को नज़दीक से जांचा परखा है उन्हें यह भी महसूस होता है कि सहगल जब मज़ाहिया गीत गाते थे तो उनकी सोज़भरी आवाज़ में एक चंचलता आ जाती थी.
सही यह है कि सहगल ने जब ग़ज़ल को आवाज़ दी तो लोग एक-एक लफ्ज़ की मर्म समझ कर दाद देने को मचल उठते थे.
याद कीजिये उनकी गाई ग़ज़ल ‘दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ’ – जब सहगल कहते हैं – ‘इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बैलौस’- तो उनकी आवाज़ का दर्द सुनने वालों के दिलों में भीतर तक उतर जाता है.
ग़ज़ल का एक-एक मिसरा अपने आप जैसे सुनने वालों के सामने बे-पर्दा आ खड़ा होता है और कहने और सुनने वाले के बीच की दूरी न जाने कहां बिला जाती है.
सहज गायन
सहग़ल ने ग़जलों को बड़ी लगन से गाया है- ‘रहमत पे तेरी मेरे गुनाहों को नाज़ है’, ‘नुक्ताची है ग़मे दिल’, ‘हरफ़ाने ग़म हुआ’ – जैसी तमाम ग़ज़लों को वे इतनी सहजता से स्वर देते हैं कि उनके एक स्वाभाविक गायक होने का सबूत आपसे आप मिल जाता है.
उनके समकालीन गायकों- पंकज मलिक, सचिन देव बर्मन या पहाड़ी सान्याल को भी स्वाभाविक गायक नहीं कहा जा सकता.
गीत गाने के लिए पूरी तैयारी और साधना के साथ प्रयास किया जाता है. पर सहगल ऐसी कोई सायास प्रक्रिया कभी नहीं अपनाते थे.
उनकी संगीत शिक्षा किसी प्रशिक्षण का अंग नहीं थी- न ही उन्होंने कभी संगीतज्ञ होने का दावा किया.
लेकिन इन्ही सहगल ने जब उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ से गंडा बंधवाने की इल्तिजा की तो इनका स्वर सुनकर उस्ताद इतना ही कह सके – ‘‘तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है.’’
यही सहगल जब अर्धशास्त्रीय ठुमरी या बंदिश गाते तो सुनने वाले हैरत में रह जाते.
‘बालुल मोरा’ सुन कर एक शास्त्रीय गायक ने पूरी ईमानदारी से कहा था - सहगल अपनी आदायगी से चमत्कृत कर जाते हैं.
कोई मान ही नहीं सकता कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी.
भजन
स्वरों का उतार-चढ़ाव और ठहराव उन्हें किसी भी निष्णात शास्त्रीय गायक के समकक्ष खड़ा कर सकता है.
और भजन की जब बात चली तो फिल्म ‘भक्त सूरदास’ के मशहूर भजनों के साथ उनके गाए प्राइवेट भजनों की अपनी एक अलग पहचान है.
‘सुनो सुनो है कृष्ण काला’ तथा ‘हरि बिन कोई काम न आयो...’ दो अलग सुरों में गाये भजन हैं. एक में सखा भाव है, उलाहना है तो दूसरे में सम्पूर्ण समर्पण.
कहते है कि सहगल बहुत बीमार थे और उन्हें लग रहा था कि अंत समय करीब है तभी उन्होंने ‘हरि बिना कोई’ रिकार्ड करवाया.
ये उनके द्वारा रचित और संगीतबद्ध अंतिम रचना मानी जाती है.
इस भजन में सहगल की आवाज़ की मधुरता, ईमानदारी, स्वाभाविकता और दर्द सभी का अनोखा संगम है.
यह भजन बहुत कम सुना जाता है पर जो इसे एक बार सुन लेता है इसका मुरीद हो जाता है.
दर्द भी किलक भी
सहगल कोई खूबसूरत शख्स नहीं थे पर उनकी खूबसूरती उनकी आवाज़ में थी.
उस आवाज से जो रोमांस पैदा होता था वो अन्यत्र कहीं सुनने को नहीं मिलता.
‘छिपो न छिपो न’ ‘मैं क्या जानू क्या जादू है’ ‘दो नैना मतवारे’ ‘चाँदनी रात और तारे खिले हों ’ ‘बाग़ लगा दूं सजनी’ ‘मुहब्बत में कमी ऐसी भी हालत’ जैसे बेशुमार गीतों से संगीत की दुनिया को आबाद किया सहगल ने.
जब वे गाते हैं ‘मेरी मैना क्यूं घबराती’ तो उनकी आवाज़ में जैसे प्यार उमड़ा पड़ता है.
‘दरिया जलाओ जगमग जगमग’, ‘ऐ कातिबे तक़दीर’, ‘जब दिल ही टूट गया’, ‘करूं क्या आस निरास भई’, ‘बिना पंख पंक्षी हूं मैं’ जैसे अमर गीत गाने वाले सहगल की वेदना से डबडबाती आवाज़ ‘लुट गया वो बेचारा’ और ‘ये वो जगह है जहां घर लुटाये’ जाते हैं.’ जैसे मज़ाहिया गीतों को गाते समय एक दम हल्की हो जाती है.
‘सोजा राजकुमारी सोजा’ गाते समय वही आवाज़ एक ममतामयी गरिमा से महक उठती है और यही आवाज़ 'एक राजा का बेटा' गाते समय एक बालक की तरह किलक उठती है.
असल में सहगल एक सरल, सौम्य और निर्मल हृदय के व्यक्ति थे. वे गीतों के भावों को पकड़ने में महारत हासिल रखते थे.
उनके गायन में कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखती. वे हर लफ़्ज़ को बड़े प्यार से पकड़कर उसे स्वरों के घेरे में लपेट लेते थे.