फ़िल्म रिव्यू: हीरो या ज़ीरो

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    • Author, मयंक शेखर
    • पदनाम, फ़िल्म समीक्षक

हीरो

निर्देशक: निखिल आडवाणी

अभिनेता: सूरज पंचोली, अथिया शेट्टी

रेटिंग: **

दर्शकों की बात करें या फिर फ़िल्म इंडस्ट्री की, पहली बात जो कोई जानना चाहता है “हीरो कौन है”. ख़ैर फ़िल्म का नाम ही है ‘हीरो’.

जब ये 1983 में बनी थी तो इसे लिखा और निर्देशित किया था सुभाष घई ने. तब फ़िल्म के नायक यानी जैकी श्राफ़ को कोई नहीं जानता था और वह रातोंरात हीरो बन गए थे.

मुझे बताया गया है कि ये फ़िल्म सलमान ख़ान का ब्रेन चाइल्ड है. इस फ़िल्म का मक़सद फ़िल्म इंडस्ट्री में क़दम रख रहे सूरज को ’80 के दशक’ के हीरो के रूप में पर्दे पर दिखाने की है.

कहते हैं फ़िल्म का पहला शॉट बेहद अहम होता है. सूरज पंचोली को उनके कसरती बदन के साथ दिखाया गया है.

कमज़ोर डायलॉग डिलीवरी

सूरज पंचोली

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वह खलनायकों की चटनी बना देते हैं ताकि आपको यक़ीन आ जाए कि हीरो वही हैं. उनकी डायलॉग डिलीवरी कमज़ोर है और क्योंकि हमने उन्हें घुड़सवारी करते नहीं देखा, इसलिए भगवान जाने वह उसमें अच्छे हैं या नहीं. बस यही है सूरज पंचोली की पहली फ़िल्म.

क्या दर्शक किसी दिन सूरज पंचोली को सुपर स्टार की तरह पूजने लगेंगे? इस बारे में उनके प्रशंसक या मनोचिकित्सक ही कुछ रोशनी डाल सकते हैं. वैसे भी दर्शकों और सितारों के बीच के रिश्ते फ़िल्म समीक्षा से परे होते हैं.

हीरो की बात चली है तो सूरज से ही शुरू करते हैं. वो अभिनेता आदित्य पंचोली के बेटे हैं और जो इस फ़िल्म में उनके गॉडफ़ादर और विलेन की भूमिका में भी हैं.

कितने हीरो?

सूरज पंचोली और अथिया

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मूल ‘हीरो’ के हीरो जैकी श्रॉफ़ के बेटे टाइगर ने भी अपनी पहली फ़िल्म हीरोपंती की थी जिसमें साउंडट्रेक मूल ‘हीरो’ का था. यही नहीं सलमान के पसंदीदा निर्देशक डेविड धवन ने भी अपने बेटे वरुण को लेकर फिल्म ‘मैं तेरा हीरो’ बनाई थी.

ईमानदारी से कहूँ तो निर्देशक निखिल आडवाणी के कारण फ़िल्म अच्छी दिखती है. फिल्म के दृश्यों को वास्तविकता के आसपास रखने का प्रयास किया गया है. दरअसल, इन दिनों की रोमांटिक फ़िल्मों के साथ हो क्या रहा है कि उनमें बेहतर संघर्ष देखने को नहीं मिल रहा.

फ़ाइल फोटो

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यानी जब मियां-बीबी राज़ी हों तो नाज़ी पापा या काज़ी की परवाह कौन करे. यहां पर भी एक शीर्ष पुलिस अधिकारी (तिग्मांशु धूलिया) की बेटी (अथिया शेट्टी) खुद को ही बंधक बनाने वाले हैंडसम गुंडे पर ही फिदा हो जाए, तो.

80 का दर्द नहीं

फ़िल्म की हीरोइन है अथिया शेट्टी. पर्दे पर उन्हें देखते हुए सुनील शेट्टी के फीमेल वर्जन की तस्वीर सामने दिखने लगती है. लेकिन कहा जा सकता है, कि वह अपने पिता से अच्छी कलाकार हैं.

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हीरो या हीरोइन एक-दूसरे को बाहों में थामे पूरी दुनिया से टक्कर लेते हैं. हीरो दूसरे गुंडों के साथ खुद को सुधारने के काम में लगा रहता है. पुलिस अफसर बाप असहाय सा दिखता है. इसमें 80 के दशक का दर्द नहीं दिखता.

पहले सिंगल स्क्रीन पर दर्शकों की सीटियों के बीच ऐसी फ़िल्में देखने का एक अलग मज़ा होता था. मैं वैसे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को बहुत मिस करता हूं. हां, ऐसी स्टोरी वाली फ़िल्मों को कतई मिस नहीं करता.

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