सलिल चौधरी : जन सरोकारों भरा संगीत रचने वाला फ़नकार

ऑडियो कैप्शन, बीबीसी हिंदी की ख़ास सिरीज़ संग संग गुनगुनाओगे की 11वीं कड़ी में बात सलिल चौधरी की.
    • Author, यतींद्र मिश्र
    • पदनाम, संगीत समीक्षक

सलिल चौधरी, हिन्दी फ़िल्म संगीत की दुनिया में एक प्रबुद्ध संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं. एक ऐसे विचारशील कलाकार, जिसकी वैचारिकी सर्वहारा वर्ग के संघर्षों एवं साम्यवादी आन्दोलन से निकलकर अपना विस्तार पाती है.

उन्होंने उस दौर में साम्यवादी विचारों को संगीत के माध्यम से चरितार्थ किया, जब पूरा देश राष्ट्रवादी आंदोलनों के तहत अपनी स्वाधीनता पाने एवं जनतंत्र रचने के पथ पर अग्रसर था.

एक हद तक हिन्दी सिनेमा में नव-यथार्थवाद का युग लाने वालों में सलिल चौधरी जैसे संगीतकार का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है, जिसमें बिमल राय, ख्वाजा अहमद अब्बास, राज कपूर, साहिर लुधियानवी एवं शैलेन्द्र जैसे दूसरे मूर्धन्य शामिल रहे हैं.

सलिल चौधरी की यह बुद्धजीवी उपस्थिति, उनके संगीत के कारण ही बनती है, जिसमें हम उनकी धुनों से संवेदित 'दो बीघा ज़मीन', 'जागते रहो', 'नौकरी', 'काबुलीवाला', 'परख', 'लाल बत्ती', 'अन्नदाता' एवं 'आनन्द' के विचार प्रधान संगीत से गुजरता देख सकते हैं.

यह सलिल चौधरी की बड़ी सफलता मानी जाएगी कि अपने साम्यवादी संस्कारों को उन्होंने गीतों के माध्यम से उतनी ही रोचकता और कर्णप्रियता देकर प्रासंगिक बनाया.

लता से लगाव

सलिल विदेशी सिम्फनीज़ और वेस्टर्न हारमोनी के नए से नए रेकॉर्ड और संगीत एलबम स्वयं के लिए संचित करते रहते थे एवं विशेष रूप से लता मंगेशकर के लिए खरीद कर उन्हें सुनने के लिए भेंट करते थे.

दो बीघा ज़मीन

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इमेज कैप्शन, दो बीघा ज़मीन फ़िल्म का एक दृश्य

मुझे लता जी ने बताया है कि अकसर सलिल चौधरी का उनके यहाँ आना होता था या जब भी वे उनके गानों की रेकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो पहुँचती थीं, तब उस समय कोई न कोई रेकॉर्ड भेंट हेतु उनकी प्रतीक्षा करता रहता था.

अकसर काम की व्यस्तता के बीच ही उन्हें जबरन मुम्बई के काला-घोड़ा स्थित 'रिद्म हाउस' की दुकान पर ले जाकर बड़े चाव से विदेशी संगीत का चुनाव और खरीदारी कराया करते थे. यह उद्धरण इस बात को रेखांकित करने के उद्देश्य से ही यहाँ लिखा गया है कि हम उनके भीतर मौजूद उस जीनियस की मानसिकता को उकेर सकें, जिसके लिए देश-काल की सीमा से परे मात्र उत्कृष्ट रचनात्मक संगीत ही प्रेरणादायी लगता है.

लोकसंगीत भी, पश्चिमी संगीत भी

इस सन्दर्भ में सलिल चौधरी अकेले ऐसे संगीतकार होने का गौरव पाते हैं, जिनके यहाँ पाश्चात्य संगीत से लेकर असम, बंगाल, कुमाऊँ कहीं का भी संगीत प्रेरणा रच सकता था. वे एक साधारण लकड़ी के टुकड़े को उठाकर कोई रिद्म या लय का पैटर्न बुन सकते थे, तो ठीक उसी क्षण प्रचलित शास्त्रीय वाद्यों से लोक-धुन सिरजने का काम भी ले सकते थे.

मुंबई का रिद्म हाउस

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ठीक इसी तरह कई ग़ैर-मामूली वाद्यों के सहमेल से ऐसी उत्कृष्ट शास्त्रीयता अर्जित कर पाते थे, जिसके लिए पारम्परिक ढंग का अनुसरण अनिवार्य ना था. कहने का मतलब यह है कि सलिल चौधरी के भीतर हमेशा ऐसा सजग दिमाग सक्रिय रहा, जिसने उनकी हर कम्पोजिशन में एक अलग ही किस्म की लय, रिद्म और सिम्फनी संजोयी है.

यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि अपनी किशोर अवस्था (जन्म 1925) के दौरान 1944 में वे 'इप्टा' (इण्डियन पीपुल्स थियेटर ऐसोसियेशन) से जुड़े और वहां पर बलराज साहनी, साहिर लुधियानवी, मज़रूह सुलतानपुरी एवं ए. के. हंगल के सम्पर्क में आए.

यह देखना 'इप्टा' के संस्कारों के तहत ही जानकारी भरा होगा कि उनकी आरम्भिक रचनाओं में 'गण-संगीत' (आम जनता के लिए रचा जाने वाला इप्टा का प्रयोगधर्मी संगीत) की छाया दिखाई पड़ती है. इसी दौर का संस्कार ही शायद उन्हें संगीत में सभी की भागीदारी तय करने वाले सामूहिक अभिव्यक्ति के गायन-वादन के लिए प्रेरित करता रहा, जिसके चलते उन्होंने ग़ैर-फ़िल्मी और फ़िल्मी संगीत के क्षेत्र में 'क्वॉयर' स्थापित करने का श्रेय पाया.

इप्टा से नाता

यह सलिल चौधरी के प्रसिद्धि के खाते में ही जाएगा कि उन्होंने 'बॉम्बे यूथ क्वॉयर' से कई अविस्मरणीय गीत गवाए, जिसमें उन दिनों मुकेश, लता मंगेशकर, मन्ना डे और रुमा गांगुली आदि जुड़े हुए थे. बाद में यह काम उन्होंने 'कोलकाता यूथ क्वॉयर' के सहयोग से भी संभव किया था.

सलिल चौधरी की भूमिका को हम वामपंथ और कला के उस सन्तुलित बिन्दु पर केन्द्रित देख सकते हैं, जहाँ रुमानियत भी वैचारिकी का दामन थामकर हमसे मुखातिब होती है और विचारधारा भी कलात्मक स्पर्श के साथ अपना वजूद पाता है.

सलिल चौधरी

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इमेज कैप्शन, इस तस्वीर में शंकर, वासु भट्टाचार्य, सलिल चौधरी के साथ सबसे दाईं ओर शैलेंद्र दिखाई दे रहे हैं.

शायद इन्हीं वजहों के चलते सलिल चौधरी की कला को थोड़ा संश्लिष्ट और लीक से काफ़ी दूर खड़ा हुआ माना जाता है. अधिकांश गायक-गायिकाएं भी इसी के चलते सलिल चौधरी की रचनाओं को गाने में कठिनाई महसूस करते हैं.

उन्हें अभिव्यक्ति के तमाम स्तरों पर इस संगीतकार की कम्पोज़ीशन में इतनी जटिलता और इतने प्रयोग दिखाई पड़ते हैं कि उन्हें जल्दी-जल्दी समझकर आत्मसात कर पाना थोड़ा मेहनत वाला काम लगता है. इस बात की निशानदेही के लिए हम उनकी कुछ ऐसी ही संश्लिष्ट धुनों को यहाँ याद कर सकते हैं, जो एक अलग ही नवेली श्रेणी रचती हैं.

इनमें प्रमुख रूप से- 'रात ने क्या-क्या ख़्वाब दिखाए' (एक गांव की कहानी), 'रिमझिम झिम-झिम बदरवा बरसे' (तांगावाली), 'धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के' (दो बीघा ज़मीन), 'मचलती आरज़ू खड़ी बाहें पसारे' (उसने कहा था), 'हाय झिलमिल-झिलमिल यह शाम के साए' (लाल बत्ती), 'मेरे मन के दिए' (परख), 'ज़िन्दगी ख़्वाब है' (जागते रहो), 'चढ़ गयो पापी बिछुआ' (मधुमती), 'वो इक निगाह क्या मिली' (हाफ टिकट), 'मेरे नयन पाखी बेचारे' (पिंजरे के पंछी), 'बलमा मोरा आंचरा महके रे' (संगत) एवं 'ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय' (आनन्द) को रेखांकित किया जा सकता है.

(यतीन्द्र मिश्र लता मंगेशकर पर 'लता: सुरगाथा' नाम से किताब लिख चुके हैं)

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