हेमन्त कुमार: सदाबहार गीतों के शहंशाह
- Author, यतीन्द्र मिश्र
- पदनाम, संगीत समीक्षक
हेमन्त कुमार मुखोपाध्याय के एक सफल संगीतकार बनने से पहले यह कौन जानता था कि वे जवानी के दिनों में तमाम रेकॉर्ड कम्पनियों द्वारा ऑडिशन में ठुकरा दिए गए थे.
इस निराशा को मिटाने के लिए बांग्ला भाषा की मशहूर पत्रिका 'देश' में उन्होंने कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं.
इसी तरह इस बात से उनके पिता कालिदास मुखर्जी समेत तमाम दूसरे लोग भी अनभिज्ञ थे कि किशोर हेमन्त, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं से न सिर्फ़ प्रभावित हैं बल्कि वह उनकी ढेरों रचनाओं को अपना कण्ठहार बनाकर घूमते हैं.
यह अकारण नहीं है कि अपनी पहली बड़ी व्यावसायिक सफलता (1954 में नागिन फ़िल्म की रिलीज़ के साथ) के बाद जो घर हेमन्त कुमार ने बनाया, उसका नामकरण भी गुरुदेव की महान कृति 'गीतांजलि' के नाम पर ही रखा.

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रवींद्र संगीत
यह नियति का खेल ही मानना चाहिए कि जिस किशोर गायक को तमाम कम्पनियों ने यह कहकर वापस लौटा दिया था कि उनकी आवाज़ गायन के लिए उपयुक्त नहीं है, उनमें से एक कोलम्बिया म्यूजिक ने हेमन्त कुमार से प्रभावित होकर एक ही वर्ष में रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड करके बिक्री के लिए उतारे.
हेमन्त कुमार ने अपना फ़िल्म-संगीत का जीवन आरम्भ करते हुए जिन बड़े संगीतकारों से आत्मीय रिश्ते बनाए, उनमें कमल दासगुप्ता, पण्डित अमरनाथ, सलिल चौधरी जैसे दिग्गज शामिल रहे हैं.
उन्हें संगीतकार के रूप में पहचान दिलाने वाली पहली पहली प्रतिनिधि फ़िल्म 'आनंदमठ' (1952) थी.
इसी के साथ यह जानना भी दिलचस्प है कि पण्डित अमरनाथ के संगीत-निर्देशन में उन्हें पहली बार हिन्दी फ़िल्म 'इरादा' (1944) के लिए गायन का अवसर मिला.

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प्रयोगधर्मी संगीतकार
वे रवीन्द्र संगीत से प्रभावित ऐसे गायक भी रहे हैं जिनकी शुरुआती गायिकी में न्यू थिएटर्स के पंकज मलिक का प्रभाव साफ तौर से देखा जा सकता है.
इसी के चलते वे ख़ुद को 'छोटा पंकज' कहलाना पसन्द करते थे. बाद में इस प्रभाव से बाहर निकलने में उनके मित्र और प्रयोगधर्मी संगीतकार सलिल चौधरी ने मदद की जिनसे उनकी उन दिनों गठित वामपंथी विचारधारा के प्रमुख सांस्कृतिक संगठन 'इप्टा' के दौरान परिचय और मित्रता हुई थी.
उनके लिए सलिल चौधरी का यह कथन कि 'ईश्वर यदि गाता होता तो उसकी आवाज़ हेमन्त कुमार की तरह ही होती' तथा लता मंगेशकर द्वारा यह कहा जाना कि 'उनको सुनते हुए हमेशा ही यह लगता है कि जैसे कोई साधु मंदिर में बैठकर गीत गा रहा हो', इस बात के समर्थन में ही खड़े मिलते हैं कि हेमन्त कुमार जैसे कलाकार की आवाज़ की सात्विक आभा, अपने शुद्धतम रूप में ईश्वरीय खनक के नज़दीक मिलती है.

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'बीस साल बाद'
ठीक इसी तरह उनका संगीतकार व्यक्तित्व भी रहा है जो हमेशा ही अपनी तमाम धुनों से ऐसी सात्विक रंगत पैदा करता है जो इस शोरगुल वाले समय में बड़ी मुश्किल से मिलती है.
हेमन्त कुमार की संगीत की विशिष्टताओं के लिए यदि कुछ चुनिन्दा फ़िल्मों का चयन करना हो तो उसमें शिखर पर रखी जाने वाली फ़िल्मों में 'आनन्दमठ', 'नागिन', 'दुर्गेशनन्दिनी', 'ताज', 'साहब बीबी और ग़ुलाम', 'बीस साल बाद', 'बिन बादल बरसात', 'कोहरा', 'मिस मेरी', 'अनुपमा' और 'ख़ामोशी' आएंगी.
इस पारखी संगीतकार के यहाँ मिलने वाली मौलिक संगीत की दृष्टि के पीछे निरापद मुखर्जी, पांचू गोपाल बोस तथा फणी बनर्जी (जो उस्ताद फैय्याज़ ख़ान के शिष्य भी थे) जैसे योग्य संगीत गुरुओं के साथ पंकज मलिक जैसी महान संगीतकार हस्ती की प्रेरणा को भी याद करना, एक तरह से हेमन्त कुमार को ही याद करने जैसा है.
(यतीन्द्र मिश्र लता मंगेशकर पर 'लता: सुरगाथा' नाम से किताब लिख चुके हैं.)
बीबीसी हिंदी फिल्मी दुनिया के महान संगीतकारों के बारे में 'संग संग गुनगुनाओगे' नाम से एक ख़ास सिरीज़ पेश कर रही है. यह लेख इसी सिरीज़ का हिस्सा है.
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