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अब लोग इंतज़ार नहीं करते बजट का | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एक क़िस्सा है कि वित्तमंत्री ने बजट की पूर्व संध्या पर एक पत्रकार से मज़ाक में कहा कि अगले दिन उसे सिगरेट पीने के लिए ज़्यादा ख़र्च करने पड़ेगे. पत्रकार ने ख़बर छाप दी कि बजट में सिगरेट महंगी होने जा रही है और वित्तमंत्री को इस्तीफ़ा देना पड़ा कि उन्होंने बजट की गोपनीयता भंग कर दी. ये किस्सा भारत का नहीं है लेकिन अपनी औपनिवेशिक खुमारी में भारत अब तक बजट को लेकर भारी गोपनीयता बरतता रहा है. इस गोपनीयता और सरकार की नीति निर्धारण की शक्तियों की वजह से बजट को लेकर लोगों में भारी उत्सुकता रहती आई है. लेकिन पिछले एक दशक में बजट को लेकर लोगों में मन की उत्सुकता लगातार घटी है. अब आदमी बजट को लेकर वैसा उत्सुक नहीं दिखता जैसा वह अस्सी के दशक में दिखता था. खुली अर्थव्यवस्था इसके पीछे वैसे तो कई कारण हैं लेकिन एक बड़ा कारण अर्थव्यवस्था में आया खुलापन है. 1992 में जब पीवी नरसिंहराव की सरकार में वित्तमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने भारत के बाज़ार को खोलने का प्रस्ताव किया उसके बाद से भारत की अर्थव्यवस्था बिलकुल बदल ही गई. उस आर्थिक नीति का एजेंडा भी एक हद तक यही था भी. इसकी वजह से हुआ यह कि सरकार की नीतियाँ एक-एक करके, एक हद तक ही सही, पारदर्शी होने लगी. मसलन पेट्रोलियम पदार्थों की क़ीमतों के बारे में सरकार ने तय कर दिया कि अब क़ीमत उसी समय बढ़ जाएँगी जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चा तेल महंगा हो जाएगा. इससे हुआ यह कि बजट के पहले पेट्रोल-डीज़ल ले लेने का सिलसिला ही ख़त्म हो गया. इसी तरह टैक्स के मामले में वित्त मंत्रियों ने अपने बजट में यह बताना शुरु कर दिया कि अगले बजट में कौन सी चीज़ों पर टैक्स सुधार की प्रक्रिया लागू होने वाली है. दुनिया के उद्योग और व्यापार जगत में जो तब्दीली आई है उसके अनुरुप भारतीय बाज़ार को ढालने के लिए सरकारों को कौन से क़दम उठाने पड़ेंगे यह बजट से बहुत पहले ही तय होता आया है. जैसा कि पत्रकार प्रभाष जोशी कहते हैं, "जब बैटल लाइन (युद्ध की सीमा) पहले से ही तय हो तो रुचि कहाँ बची रह सकती है." और फिर आम आदमी के लिए बजट में जो सीधे असर वाली बात होती है वह है गोपनीयता का सवाल लेकिन जब अर्थव्यवस्था इतनी खुली हो तो भी क्या बजट का इतना गोपनीय होना आवश्यक है. इस सवाल पर प्रभाष जोशी कहते हैं, "ये गोपनीयता सरकार के अपने तंत्र के लिए होती है और उन लोगों के लिए जो बजट की छोटी सी सूचना पर भी करोड़ों का वारा-न्यारा कर लेते हैं, हम-आप जैसे लोगों के लिए नहीं."
यानी आम आदमी की इस बात में रुचि कम ही होती है कि बजट कितना गोपनीय है. ये ठीक भी है क्योंकि बजट के गोपनीय न भी रहने से आम आदमी को एक ही फ़र्क पड़ सकता है कि कुछ चीज़ें बाज़ार से एकाएक ग़ायब हो जाएँ और व्यापारी उनकी कालाबाज़ारी करने पर उतारु हो जाएँ. लेकिन अब उसकी भी संभावना इसलिए कम होती जा रही है क्योंकि आमतौर पर सरकारें अब क़ीमतें बढ़ाने के लिए बजट का इंतज़ार नहीं करतीं. और जहाँ तक बड़े उद्योगपतियों और व्यावसायियों का सवाल है तो अब ये बात किसी से छिपी नहीं हैं कि नीति निर्धारण में उनका कितना दखल होता है. जहां तक सवाल कृषि और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में बजट प्रावधानों का है तो वे इतनी तकनीकी चीजें हैं कि आमआदमी की इसमें सीधी रुचि नहीं होती. सीमित रुचि वैसे ऐसा भी नहीं है कि लोगों की बजट में रुचि बिलकुल ख़त्म हो गई है. खाद के मूल्य से लेकर बचत पर मिलने वाले ब्याज़ दरों तक कई ऐसी चीज़ें हैं जिसके लिए अभी भी लोग बजट का इंतज़ार करते रहते हैं. लेकिन यह रुचि भी सीमित है क्योंकि गठबंधन की सरकारों के चलते राजनीतिक दल ये ज़ाहिर करते चलते हैं कि वे सरकार को क्या करने देंगे और क्या नहीं. उदाहरण के तौर पर वामपंथी दलों ने सरकार पर दबाव डालने के लिए बजट का इंतज़ार नहीं किया कि ईपीएफ़ में ब्याज़ की दर बढ़ा दी जाए. तो फिर बजट का इंतज़ार क्यों. बैंकों की नीतियाँ इस तरह से निर्धारित हो रही हैं कि वे बजट से पहले ही तय कर रही हैं कि घर बनाने के लिए जो ऋण लिया गया है उस पर ब्याज़ की दर क्या होगी. बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में बजट की गोपनीयता कुछ कम हो क्योंकि बजट का सस्पेंस ज़ाहिर है लगातार कम ही होने वाला है. |
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