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बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम: शेख़ मुजीब की पार्टी ने कैसे मांगी थी भारत से मदद
- Author, अकबर हुसैन
- पदनाम, बीबीसी न्यूज़ बांग्ला
पाकिस्तानी सेना की ओर से 25 मार्च, 1971 को ढाका में सामूहिक हत्याओं के बाद ही भारत ने अपने सीमावर्ती इलाकों में सुरक्षा बढ़ा दी थी.
दिल्ली इस बात पर कड़ी निगरानी रख रहा था कि पूर्वी पाकिस्तान का घटनाक्रम किस ओर बढ़ रहा है.
तब तक यह साफ नहीं था कि ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद मुजीब की क्या स्थिति है. पाकिस्तानी सेना का ऑपरेशन सर्चलाइट अवामी लीग और बांग्लादेश की आज़ादी के लिए लड़ने वालों के ख़िलाफ़ एक रक्तरंजित अभियान था.
दिल्ली के पास उस समय तक इस बारे में कोई सूचना नहीं थी कि वो जीवित हैं या उनकी हत्या कर दी गई है.
25 मार्च को हुई सामूहिक हत्याओं के कुछ दिनों बाद अवामी लीग के एक वरिष्ठ नेता भारतीय सीमा की ओर रवाना हुए थे. शेख मुजीबुर्रहमान की गैरमौजूदगी में अवामी लीग के नेतृत्व ने भारत के साथ संपर्क कैसे किया था? इस रिपोर्ट में उसी की चर्चा की जाएगी.
भारत सतर्क था
25 मार्च को ढाका में सामूहिक हत्या और उसके बाद स्वाधीनता के ऐलान के बाद से भारत में इंदिरा गांधी सरकार अपनी भावी रणनीति तय करने के लिए बैठकों में जुटी थी.
श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक ‘ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा है कि इंदिरा गांधी और उनके मुख्य सचिव पी.एन. हक्सर इस बात पर सहमत थे कि पूर्वी पाकिस्तान के मुद्दे पर उनको सावधानी से आगे बढ़ना होगा.
उनका अनुमान था कि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में भारत के हस्तक्षेप को उचित नहीं मानेगा.
राघवन ने अपनी किताब में लिखा है, “भारत के सरकारी हलके में यह सोच थी कि मुजीब और उनके सहयोगी जब तक अपनी वैधता नहीं साबित करेंगे तब तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय बांग्लादेश की स्वाधीनता को स्वीकृति नहीं देगा. “
लेकिन इंदिरा गांधी और उनके राजनीतिक सलाहकार यह भी समझ रहे थे कि संसद के भीतर और आम लोगों की ओर से पूर्वी पाकिस्तान में कुछ करने का दबाव आ सकता है.
यही वजह थी कि इंदिरा गांधी ने 26 मार्च को विपक्षी दलों के नेताओं के साथ बातचीत की.
उन्होंने उस बैठक में अपने विचारों को साझा किया. साथ ही उन्होंने विपक्षी दलों से अनुरोध किया कि वो इस मुद्दे पर सार्वजनिक तौर पर बहस नहीं करें.
इसके कुछ दिनों बाद तत्कालीन विदेश मंत्री शरण सिंह ने संसद ने एक बयान में कहा कि सरकार पूर्वी पाकिस्तान के घटनाक्रम से चिंतित है और उसे वहां के लोगों से सहानुभूति है.
लेकिन विपक्षी दल विदेश मंत्री के इस बयान से संतुष्ट नहीं हुए.
उन्होंने और स्पष्ट बयान की मांग उठाई. बाद में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में कहा कि सरकार पूर्वी पाकिस्तान के घटनाक्रम पर निगाह रख रही है और साथ ही उसे अंतरराष्ट्रीय कायदे-कानूनों का भी पालन करना होगा.
सीमा पर पहुंचे ताजुद्दीन अहमद
अवामी लीग के वरिष्ठ नेता ताजुद्दीन अहमद बैरिस्टर अमीर-उल-इस्लाम के साथ फरीदपुर और कुष्टिया होते हुए 30 मार्च, 1971 की शाम को पश्चिम बंगाल से लगी पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर पहुंचे.
वहां उनकी मुलाकात बंगाल के बीएसएफ की बंगाल फ्रंटियर के महानिरीक्षक (आईजी) गोलोक मजूमदार के साथ हुई. बीएसएफ इसके पहले से ही अवामी लीग के नेताओं के बारे में खुफिया सूचनाएं जुटा रहा था.
इतिहासकार राघवन ने लिखा है, “ताजुद्दीन अहमद ने सीमा पर बीएसएफ अधिकारियों को अवामी लीग के तत्कालीन नेताओं और राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों की एक सूची सौंपी.”
ताजुद्दीन के साथ रहे अमीर-उल-इस्लाम ने अपनी पुस्तक ‘मुक्तियुद्धेर स्मृत्ति (मुक्ति युद्ध की यादें)’ में लिखा है, “गोलोक मजूमदार उसी रात को ताजुद्दीन अहमद और मुझे एक कार में बिठा कर कलकत्ता एयरपोर्ट ले गए. गोलोक ने ताजुद्दीन के बारात में प्रवेश के बाद इस मामले की सूचना बीएसएफ प्रमुख को भी दे दी थी. उसके बाद बीएसएफ प्रमुख फौरन दिल्ली से कोलकाता पहुंचे.”
बांग्लादेश से आने वाले इन दोनों नेताओं की बीएसएफ के तत्कालीन महानिदेशक के.एफ.रुस्तमजी के साथ कलकत्ता एयरपोर्ट पर ही मुलाकात हुई.
अमीर-उल-इस्लाम ने लिखा है, “रुस्तमजी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सुरक्षा प्रमुख थे. नेहरू परिवार से उनकी करीबी थी. वे प्रधानमंत्री के विश्वासपात्र हैं.”
अगले तीन दिनों तक ताजुद्दीन ने बीएसएफ अधिकारियों के साथ विस्तार से विचार-विमर्श किया. इस दौरान उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में लड़ाई जारी रखने औऱ देश को स्वाधीन करने का अपना संंकल्प दोहराया.
ताजुद्दीन अहमद ने अनुरोध किया कि बीएसएफ सीमा पर बांग्लादेश के सैनिकों को हथियार देकर उनकी सहायता करे. लेकिन बीएसएफ के अधिकारी जानते थे कि वो अकेले इतना महत्वपूर्ण फैसला नहीं कर सकते. इसके लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सहमति जरूरी है.
इसलिए बीएसएफ महानिदेशक रुस्तमजी ने प्रधानमंत्री के साथ ताजुद्दीन की मुलाकात का इंतजाम किया.
ताजुद्दीन के बारे में जानकारी नहीं
ताजुद्दीन अहमद और अमीर-उल-इस्लाम को एक अप्रैल को भारतीय सेना के एक पुराने मालवाहक विमान के जरिए दिल्ली ले जाया गया. वहां उनको बीएसएफ के गेस्ट हाउस में रखा गया था.
अमीर-उल-इस्लाम ने लिखा है, “कोलकाता से दिल्ली की यात्रा और इंदिरा गांधी से मुलाकात को काफी गोपनीय रखा गया था. इसी वजह से उनको मालवाहक विमान से दिल्ली ले जाया गया था ताकि किसी को इसकी भनक नहीं मिल सके.”
ताजुद्दीन जब दिल्ली पहुंचे तब बांग्लादेश के मशहूर अर्थशास्त्री रहमान शोभन भी उसी शहर में थे.
प्रोफेसर रहमान शोभन ने अपनी आत्मकथा 'अनट्रैंक्विल रिकॉलेक्शन्स: द इयर्स ऑफ फुलफिलमेंट' में उस समय की कुछ घटनाओं का जिक्र किया है.
उन्होंने लिखा है, “ताजुद्दीन जब दिल्ली पहुंचे तो बांग्लादेश के आंदोलन पर पूरी जिम्मेदारी के साथ बात करने वाले वो सबसे योग्य व्यक्ति थे. उस समय भारतीय नेताओं ने बंगबंधु के अलावा दूसरे किसी नेता का नाम तक नहीं सुना था, पहचानना तो दूर की बात है. तब तक सिर्फ मुजीब को ही अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली थी.”
ताजुद्दीन के दिल्ली पहुंचने के बाद भी भारतीय अधिकारी उनके बारे में विभिन्न स्रोतों से जानकारियां जुटा रहे थे. वो ताजुद्दीन को समझने का प्रयास कर रहे थे. इंदिरा गांधी के साथ उनकी मुलाकात से पहले भारतीय अधिकारी ताजुद्दीन अहमद के बारे में सब कुछ जान लेना चाहते थे.
इंदिरा गांधी के मुख्य सचिव पी.एन.हक्सर ने रहमान शोभन से भी ताजुद्दीन के बारे में पूछा था. उनका सवाल था कि शेख मुजीबुर्रहमान की गैरमौजूदगी में और कौन नेतृत्व संभाल सकता है? रहमान शोभन ने लिखा है, “मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि उस समय ताजुद्दीन दिल्ली में ही हैं. मैंने कहा था कि संभवत ताजुद्दीन अहमद ही यह भूमिका निभा सकते हैं.”
उसके बाद शोभन, अमीर-उल-इस्लाम और दूसरे लोगों ने ताजुद्दीन को सलाह दी कि शेख मुजीब की गैर-मौजूदगी में उनको ही नेतृत्व का जिम्मा संभालना होगा. लेकिन उन्होंने (ताजुद्दीन ने) आशंका जताई कि नेतृत्व हाथ में लेने की स्थिति में सैयद नजरुल इस्लाम, कमरुज्जमां, मंसूर अली और खोंदकर जैसे वरिष्ठ नेता नाराज हो सकते हैं.
इंदिरा गांधी के साथ बैठक
ताजुद्दीन अहमद के मन में इस बात पर काफी संशय था कि इंदिरा गांधी के साथ बैठक के दौरान वो खुद को किस तरह पेश करेंगे.
श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक ‘ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा है, “ताजुद्दीन अगर अवामी लीग के एक वरिष्ठ नेता के तौर पर इंदिरा गांधी के साथ मुलाकात करते हैं तो उनको काफी सहानुभूति हासिल होगी. लेकिन तब शायद उनको वह सहायता नहीं मिलेगी जो स्वाधीनता की लड़ाई को जारी रखने के लिए जरूरी है.”
ताजुद्दीन अहमद ने चार अप्रैल को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ मुलाकात की. अमीर-उल-इस्लाम के मुताबिक, उस बैठक के दौरान दूसरा कोई मौजूद नहीं था. अमीर को बाद में ताजुद्दीन से ही उस बैठक में हुई चर्चा की जानकारी मिली थी.
अमीर-उल-इस्लाम ने लिखा है, “इंदिरा गांधी बरामदे में चहलकदमी कर रही थी. ताजुद्दीन की कार के वहां पहुंचने पर वो उनको अपने स्टडी रूम में ले गईं. वहां ताजुद्दीन के स्वागत के बाद प्रधानमंत्री ने उनसे पहला सवाल किया कि हाऊ इज शेख मुजीब? इज ही ऑलराइट? (शेख मुजीब कैसे हैं? वे ठीक हैं न?) इस पर ताजुद्दीन ने कहा कि 25 मार्च की रात से ही शेख मुजीब के साथ कोई संपर्क नहीं है. लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ्तारी से पहले स्वाधीनता की घोषणा कर दी है. उन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए भारत से सहायता की अपील की.”
श्रीनाथ राघवन ने लिखा है, “इंदिरा गांधी के साथ बैठक के दौरान ताजुद्दीन ने कहा था कि शेख मुजीबुर्रहमान ने स्वाधीनता की घोषणा कर दी है और अवामी लीग के पांच वरिष्ठ नेताओं को लेकर कैबिनेट का भी गठन कर दिया है.”
राघवन के मुताबिक, यह साफ नहीं है कि ताजुद्दीन ने खुद को उस सरकार का प्रधानमंत्री बताया था या नहीं. लेकिन उन्होंने इस बात का संकेत जरूर दे दिया था कि शेख मुजीब की गैरमौजूदगी और दूसरे वरिष्ठ नेताओं के बिखरे होने के कारण इस लड़ाई को जारी रखने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर ही है.
ताजुद्दीन ने इसके अगले दिन एक बार फिर इंदिरा गांधी से मुलाकात की. उस बैठक के दौरान इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश की स्वाधीनता को स्वीकृति देने के बारे में तो कुछ नहीं कहा था. लेकिन उन्होंने सीमा पर बांग्लादेशी योद्धाओं की सहायता के मुद्दे पर भरोसा दिया था. लेकिन वह कितनी मात्रा में और कैसे होगा, इसका फैसला नहीं हुआ था.
भारत ने ताजुद्दीन को एक सरकार के गठन के साथ ही एक कमांड और कम्युनिकेशन चैनल स्थापित करने का भी सुझाव दिया. वहीं एक केंद्रीय नेतृत्व को रहना था औऱ उसी के जरिए बांग्लादेश के लड़ाकों को हथियार औऱ दूसरी सहायता दी जाएगी. साथ ही उसके जरिए भारत से संपर्क भी बना रहेगा.
बांग्लादेश में स्वाधीनता की लड़ाई के सिलसिले में किस तरह की सहायता की जरूरत होगी, इसका फैसला करने के लिए इंदिरा गांधी ने एक कमेटी का गठन किया था.
भारत ने फैसला किया था कि राजनीतिक मुद्दों की निगरानी और तमाम समन्वय का जिम्मा रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पास होगा. दूसरी ओर, बीएसएफ इन फैसलों को लागू करेगा.
श्रीनाथ राघवन ने लिखा है, “इंदिरा गांधी के साथ मुलाकात के एक सप्ताह के भीतर भारत के दूसरे महत्वपूर्ण केंद्रों के साथ भी ताजुद्दीन अहमद का संपर्क हो गया.”
इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए 11 अप्रैल, 1971 को स्वाधीन बांग्ला बेतार केंद्र से ताजुद्दीन अहमद का एक भाषण प्रसारित किया गया.
इसके दो दिनों बाद अस्थायी सरकार के मंत्रिमंडल का गठन कर दिया गया और 17 अप्रैल को मेहेरपुर जिले के तत्कालीन वैद्यनाथतला, जिसका नाम अब मुजीबनगर है, में अस्थायी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन किया गया.
अवामी लीग के वरिष्ठ नेता सैयद नजरुल अहमद उस अस्थायी सरकार के राष्ट्रपति बने जबकि प्रधानमंत्री की जिम्मेवारी मिली ताजुद्दीन अहमद को.
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