राम मनोहर लोहिया से महात्मा गांधी ने जब सिगरेट छोड़ने के लिए कहा

    • Author, प्रदीप कुमार
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

महज चार साल में भारतीय संसद को अपने मौलिक राजनीतिक विचारों से झकझोर देने का करिश्मा राम मनोहर लोहिया ने कर दिखाया था.

चाहे वो जवाहर लाल नेहरू के प्रतिदिन 25 हज़ार रुपये खर्च करने की बात हो, या फिर इंदिरा गांधी को 'गूंगी गुड़िया' कहने का साहस रहा हो. या फिर ये कहने की हिम्मत कि महिलाओं को सती-सीता नहीं होना चाहिए, द्रौपदी बनना चाहिए.

राम मनोहर लोहिया वो पहले राजनेता रहे जिन्होंने कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान करते हुए कहा था, 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं.'

उत्तर भारत में आज भी आप राजनीतिक रुझान रखने वाले किसी युवा से बात करें तो वो इस नारे का जिक्र ज़रूर करेगा- 'जब-जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख़्ता डोलता है.'

नेहरू का विरोध

जब देश जवाहर लाल नेहरू को अपना सबसे बड़ा नेता मान रहा था, ये लोहिया ही थे जिन्होंने नेहरू को सवालों से घेरना शुरू किया था.

नेहरू से उनकी तल्खी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक बार ये भी कहा था कि बीमार देश के बीमार प्रधानमंत्री को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए.

1962 में लोहिया फूलपुर में जवाहर लाल नेहरू के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने चले गए.

उस चुनाव में लोहिया की चुनाव प्रचार की टीम का हिस्सा रहे सतीश अग्रवाल याद करते हैं, "लोहिया जी कहते थे मैं पहाड़ से टकराने आया हूं. मैं जानता हूं कि पहाड़ से पार नहीं पा सकता लेकिन उसमें एक दरार भी कर दी तो चुनाव लड़ना सफल हो जाएगा."

बिहार में समाजवादी राजनीति का अहम चेहरा माने जाने वाले शिवानंद तिवारी को राम मनोहर लोहिया को करीब से देखने का मौका मिला था.

1967 में भोजपुर के शाहपुर विधानसभा सीट से शिवानंद तिवारी के पिता रामानंद तिवारी चुनाव लड़ रहे थे, उनके चुनाव प्रचार में लोहिया गए थे.

शिवानंद तिवारी कहते हैं, "मुझे उनके साथ चार सभाओं में जाने का मौका मिला था. वे एक भविष्यवक्ता की भांति बोल रहे थे. उन्होंने लोगों से कहा था कि आप ये सोचकर वोट दीजिए कि आप जिसे चुन रहे हैं वो मंत्री बनने वाला है या वो मंत्री बनाने वाला है."

लोहिया की राजनीतिक विरासत

शिवानंद तिवारी के मुताबिक़, जब 1967 में जब हर तरफ कांग्रेस का जलवा था, तब राम मनोहर लोहिया इकलौते ऐसे शख़्स थे जिन्होंने कहा था कि 'कांग्रेस के दिन जाने वाले हैं और नए लोगों का जमाना आ रहा है.'

नौ राज्यों में कांग्रेस हार गई थी.

लोहिया की मौत के बाद उनकी विरासत और उनके नाम की राजनीति ख़ूब देखने को मिली. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार में.

मुलायम सिंह यादव तो अपनी पार्टी को लोहिया की विरासत को मानने वाली पार्टी के तौर पर देखते रहे हैं.

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं, "लोहिया जी हमारे पार्टी के सबसे बड़े आदर्श हैं. 1967 में पहली बार उन्होंने ही नेताजी को टिकट दिया था. जसवंत नगर विधानसभा सीट से. लोहिया समाज में ग़रीब गुरबों की आवाज़ उठाना चाहते थे, वे पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी देना चाहते थे. उनका सपना था सौ में पावें पिछड़े साठ."

मुलायम की राजनीतिक क्षमता को सबसे पहले लोहिया ने ही देखा था.

मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक जीवनी 'द सोशलिस्ट' में लेखक फ्रैंक हुजूर के साथ याद किया था, "1963 में फर्रूख़ाबाद सीट से उपलोकसभा चुनाव में मैं अपने साथियों के साथ उनके प्रचार में जुटा था. विधुना विधानसभा में उन्होंने मुझसे पूछा था कि प्रचार के दौरान क्या खाते हो, कहां रहते हो. मैंने कहा कि लइया चना रखते हैं, लोग भी खिला देते हैं और जहां रात होती है उसी गांव में सो जाते हैं. उन्होंने मेरे कुर्ते की जेब में सौ रुपये का नोट रख दिया था."

हिंदी के हिमायती रहे लोहिया

हालांकि मुलायम को बाद में राम मनोहर लोहिया से बहुत ज़्यादा मिलने जुलने का मौका नहीं मिला, लेकिन परिवारवाद के पहलू को छोड़कर लोहिया के राजनीतिक विरासत पर मुलायम लगातार अपना दावा जताते रहे.

समाजवादी राजनीति को शिवानंद तिवारी लंबे समय से देख रहे हैं.

लोहिया की राजनीति के असली वारिस की बात पर शिवानंद तिवारी कहते हैं, "लोहिया जिस तरह की राजनीति की बात करते थे, उसके ठीक ठीक अपनाने वाले तो केवल किशन पटनायक ही हो पाए. हालांकि उनको वो सम्मान नहीं मिला. बिहार की राजनीति में लोहिया को जिन्होंने काफ़ी हद तक अपने जीवन में उतारा वो लालू ही रहे हैं."

शिवानंद तिवारी आगे कहते हैं, "अगर आप 1990 से 1995 के बीच के लालू के भाषणों को देखें तो उनमें लोहिया की झलक मिलती थी. हालांकि बाद में उनके क़दम डगमगाए और उनमें उतना बड़ा विज़न भी विकसित नहीं हो पाया. लालू लोहिया के जितने क़रीब पहुंच सकते थे, वहां तक पहुंचने में वो चूक गए."

चाहे मुलायम हों या फिर लालू या शरद या राम विलास पासवान, इन सब पर लोहिया का असर दिखा ज़रूर लेकिन ये सब उस जातिवादी राजनीति के दायरे से नहीं निकल पाए, जिसका लोहिया आजीवन विरोध करते रहे.

शिवानंद तिवारी के मुताबिक़, "लोहिया होना आसान नहीं हैं क्योंकि लोहिया को देश और दुनिया की राजनीति की जितनी समझ थी, उससे ज़्यादा वे भारतीय परंपराओं और भारतीय समाज को जानते बूझते थे, वे लगातार पढ़ने लिखने वाले राजनेता थे."

लोहिया ने जर्मनी से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की थी. ये कम ही लोग जानते होंगे कि वे अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच, मराठी और बांग्ला धड़ल्ले से बोल सकते थे, लेकिन वे हमेशा हिंदी में बोलते थे, ताकि आम लोगों तक उनकी बात ज़्यादा से ज़्यादा पहुंचे.

लोहिया ने चाहे आम लोगों के हितों की बात की हो, या समाज में महिलाओं को बराबरी देने की बात कही हो, ऐसे में लगता है कि वे भारतीय राजनीति के सबसे दूरदर्शी नेताओं में शामिल थे, लेकिन उनके अंदर एक आग हमेशा धधकती रहती थी.

लोहिया की जीवनीकार श्रीमति इंदू केलकर ने लोहिया की रामधारी सिंह दिनकर से एक मुलाकात का जिक्र किया है.

वे लिखती हैं, "निधन से एक महीने पहले ही दिनकर लोहिया से मिले थे और कहा था कि क्रोध कम कीजिए, देश आपसे बहुत प्रसन्न है, कहीं ऐसा न हो कि भार जब आपके कंधों पर आए तब आपका अतीत आपकी राह का कांटा बन जाए. लोहिया बोले- 'आपको लगता है तब तक मैं जी पाऊंगा?'"

लोहिया का निजी जीवन भी कम दिलचस्प नहीं था. लोहिया अपनी ज़िंदगी में किसी का दख़ल भी बर्दाश्त नहीं करते थे.

हालांकि महात्मा गांधी ने उनके निजी जीवन में दख़ल देते हुए उनसे सिगरेट पीना छोड़ देने को कहा था.

लोहिया ने बापू को कहा था कि 'सोच कर बताऊंगा' और तीन महीने के बाद उनसे कहा कि 'मैंने सिगरेट छोड़ दी.'

बिंदास जीवन था लोहिया का

लोहिया जीवन भर रमा मित्रा के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहे. रमा मित्रा दिल्ली के मिरांडा हाउस में प्रोफ़ेसर रहीं. दोनों के एक दूसरे को लिखे पत्रों की किताब भी प्रकाशित हुई.

शिवानंद तिवारी बताते हैं, "लोहिया ने अपने संबंध को कोई छिपाकर नहीं रखा था. लोग जानते थे, लेकिन उस दौर में निजता का सम्मान किया जाता था. लोहिया ने जीवन भर अपने संबंध को निभाया और रमा जी ने उसे आगे तक निभाया."

50-60 के दशक में भारत में आम लोगों की राजनीति करने वाला कोई नेता अपने निजी जीवन में इतना बिंदास हो सकता है, इसकी कल्पना आज भी मुश्किल ही है.

लोहिया महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने की वकालत करते हुए कहते थे कि 'देश की सती-सीता की ज़रूरत नहीं बल्कि द्रौपदी की ज़रूरत है जो संघर्ष कर सके, सवाल पूछ सके.'

1962 के आम चुनाव में लोहिया का फूलपुर में चुनाव प्रचार में हिस्सा ले चुके सतीश अग्रवाल बताते हैं, "लोहिया किस हद तक बिंदास थे, इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एक बार तारकेश्वरी सिन्हा ने उनसे कहा कि आप महिलाओं और उनके अधिकारों के बारे में काफ़ी बात करते हैं लेकिन आपने तो शादी नहीं की. लोहिया ने तत्काल जवाब दे दिया- भई तुमने तो मौका ही नहीं दिया."

राम मनोहर लोहिया ऐसे राजनेता थे जो अमरीका जा कर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन से समाजवाद पर बहस कर सकते थे और मक़बूल फ़िदा हुसैन जैसे कलाकार की कला को भी राह दिखा सकते थे.

दिल्ली के एक रेस्टोरेंट में लोहिया ने ही मक़बूल फ़िदा हुसैन को कहा था, "ये जो तुम बिरला और टाटा के ड्राइंग रूम में लटकने वाली तस्वीरों से घिरे हो, उससे बाहर निकलो. रामायण को पेंट करो."

अस्पताल की लापरवाही के चलते मौत

लोहिया की मौत भी कम विवादास्पद नहीं रही. उनका प्रोस्टेट ग्लैंड्स बढ़ गया था और इसका ऑपरेशन दिल्ली के सरकारी विलिंग्डन अस्पताल में किया गया था.

उनकी मौत के बारे में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी ऑटो बायोग्राफी 'बियांड द लाइन्स' में भी किया है.

उन्होंने लिखा है, "मैं राम मनोहर लोहिया से अस्पताल में मिलने गया था. उन्होंने मुझसे कहा कुलदीप मैं इन डॉक्टरों के चलते मर रहा हूं."

कुलदीप आगे लिखते हैं कि 'लोहिया की बात सच ही निकली क्योंकि डॉक्टरों ने उनकी बीमारी का ग़लत इलाज कर दिया था. उनकी मौत के बाद सरकार ने दिल्ली के सभी सरकारी अस्पतालों के निरीक्षण हेतु एक समिति नियुक्त की थी. आज यही अस्पताल राम मनोहर लोहिया अस्पताल के रूप में जाना जाता है.'

इस समिति की रिपोर्ट का एक हिस्सा 26 जनवरी, 1968 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित हुआ था, इसमें समिति ने दावा किया था, "अगर अस्पताल के अधिकारी आवश्यक और अनिवार्य सावधानी से काम लेते तो लोहिया का दुखद निधन नहीं होता."

शिवानंद तिवारी याद करते हैं, "तब वो बड़ा मुद्दा बना था लेकिन बाद में वो बात दबा दी गई. 1977 में केंद्र सरकार में राजनारायण स्वास्थ्य मंत्री बने तो उन्होंने लोहिया की मौत के कारणों की जांच करने के लिए विशेषज्ञों की समिति नियुक्त की थी, लेकिन अस्पताल में तब सारे कागज़ ग़ायब थे."

पैनी नज़र थी लोहिया की

लोहिया की राजनीतिक दृष्टि जितनी पैनी थी, उतना ही सामाजिक दृष्टिकोण स्पष्ट था.

उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में सुधार की बात हो या फिर गंगा की सफ़ाई का मुद्दा हो या फिर हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता की बात हो, इन सब मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखी थी.

वो भी पचपन-साठ साल पहले.

हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषक लोहिया पर जनसंघ को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं हालांकि ये समझना मुश्किल नहीं कि कांग्रेस के विरोध के लिए दूसरे तमाम लोगों को एक साथ लाना पड़ा.

अखिलेश यादव कहते हैं, "लोहिया के जमाने में कांग्रेस की जो स्थिति थी वही अब बीजेपी की है. बीजेपी के ख़िलाफ़ हमने भी कांग्रेस को साथ लिया है."

लेकिन लोहिया क्या थे, इसे समझने के लिए मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर के बनाए उस कार्टून का जिक्र ज़रूरी है, जिसमें उन्होंने लोहिया का कार्टून बनाया और लिखा था कि 'आज सुबह लोहिया ने मंत्री पद की शपथ ली और शाम में ही अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.'

शासन व्यवस्था को लेकर लोहिया की बेचैनी को इस कार्टून से बेहतर कुछ और नहीं दर्शा सकता.

(मूल रूप से ये लेख साल 2017 में प्रकाशित हुआ था)

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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