उत्तर प्रदेश में मोदी और अमित शाह पर अखिलेश यादव कैसे पड़े भारी, योगी पर क्या होगा असर

    • Author, रजनीश कुमार
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

एक जून को आख़िरी चरण के मतदान के बाद जब शनिवार शाम में एग्ज़िट पोल्स आए तो ऐसा लग रहा था कि उत्तर प्रदेश में लड़ाई एकतरफ़ा है.

लेकिन आलम यह है कि जिस अयोध्या में राम मंदिर को लेकर बीजेपी ने इतना प्रचार-प्रसार किया, वहाँ से तीन बार के सांसद रहे बीजेपी के लल्लू सिंह को समाजवादी पार्टी के अवधेश प्रसाद ने क़रीब 55 हज़ार मतों से मात दी.

अवधेश प्रसाद दलित हैं और अखिलेश यादव ने उन्हें फ़ैज़ाबाद सामान्य सीट पर टिकट दिया था.

सभी एग्ज़िट पोल में बीजेपी को क़रीब 70 सीटें दी गई थीं. लेकिन मंगलवार को मतगणना शुरू हुई तो उत्तर प्रदेश बिल्कुल अलग तेवर में दिखा.

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 400 पार का नारा दिया था तो बीजेपी की हसरत यही थी कि वह उत्तर प्रदेश से अधिकतम सीटें जीते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी पर इंडिया गठबंधन भारी पड़ा.

बीजेपी महज़ 33 सीटें ही जीत पाई और इंडिया गठबंधन ने 43 सीटों पर अपना परचम लहराया. दो सीटों पर आरएलडी को जीत मिली और वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा है.

यानी एनडीए को 35 सीटों पर जीत मिली है. इसी का नतीजा है कि बीजेपी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाई.

543 सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को पूर्ण बहुमत के लिए 272 सीटें चाहिए थीं लेकिन इस बार 240 सीटों पर सिमट गई. पिछले लोकसभा में बीजेपी को 303 सीटों पर जीत मिली थी.

इस बार समाजवादी पार्टी ने यूपी में 62 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और कांग्रेस ने 17 सीटों पर. समाजवादी पार्टी 62 में से 37 सीटें जीतीं और कांग्रेस को 17 में से छह पर जीत मिली.

2019 के आम चुनाव में बीजेपी को यूपी में 62 सीटें मिली थीं. बीएसपी को 10, समाजवादी पार्टी को पाँच, अपना दल (सोनेलाल) को दो और कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली थी.

लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश में बीजेपी 2019 नहीं दोहरा पाई. स्मृति इरानी अमेठी में क़रीब एक लाख 67 हज़ार मतों से हार गईं. गांधी-नेहरू परिवार के वफ़ादार किशोरी लाल शर्मा के सामने स्मृति इरानी इस बार टिक नहीं पाईं.

मोदी के लिए झटका

2019 में बीजेपी ने राहुल गांधी को स्मृति इरानी से हरवाया था तो एक संदेश गया था कि नेहरू-गांधी परिवार के वारिस को बीजेपी की एक आम नेता ने उनके गढ़ में जाकर हरा दिया.

स्मृति इरानी के ख़िलाफ़ इस बार राहुल गांधी ख़ुद चुनाव नहीं लड़े बल्कि उन्होंने एक आम कार्यकर्ता को उतारकर जीत हासिल की.

शुरुआती रुझान में तो पीएम मोदी भी बनारस से पीछे चल रहे थे लेकिन जल्द ही उन्होंने बढ़त हासिल कर ली थी. लेकिन इस बार मोदी लगभग डेढ़ लाख वोट से ही जीत पाए.

2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को बनारस में क़रीब चार लाख 80 हज़ार वोट से जीत मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बनारस में नरेंद्र मोदी को 63 प्रतिशत वोट मिला था जबकि इस बार 54.24 प्रतिशत वोट ही मिले.

2014 में मोदी को बनारस में कुल 5,81,022 वोट मिले थे जो बनारस में कुल मतदान का 56 फ़ीसदी था. वहीं अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 मिले थे. लेकिन इस बार पीएम मोदी की जीत का अंतर आधे से भी कम हो गया.

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कहाँ घिर गई बीजेपी?

उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहाँ से सत्ता और विपक्ष दोनों की अहम हस्तियां मैदान में थीं. बनारस से पीएम मोदी चुनावी मैदान में थे तो रायबरेली से राहुल गांधी. लखनऊ से राजनाथ सिंह और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव के अलावा उनकी पत्नी डिंपल यादव भी चुनावी मैदान में हैं. राहुल गांधी को रायबरेली में क़रीब चार लाख मतों से जीत मिली है.

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में आर्थिक तंगी, खेती-किसानी और संविधान को कमज़ोर करने का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया था. दोनों पार्टियों ने लोगों के बीच आरक्षण का मुद्दा भी उठाया था.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का आरोप था कि बीजेपी आरक्षण ख़त्म करना चाहती है. इसके साथ ही राहुल गांधी ने भारतीय सेना में भर्ती के लिए अग्निवीर स्कीम पर भी सवाल उठाए थे. युवाओं में अग्निवीर को लेकर नाराज़गी कई बार सड़कों पर भी देखने को मिली थी.

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं कि यूपी में बीजेपी का 33 सीटों पर सिमटना न केवल प्रधानमंत्री मोदी के लिए झटका है बल्कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए भी बुरी ख़बर है.

योगी पर क्या पड़ेगा असर?

शरत प्रधान कहते हैं, ''मुझे लग रहा था कि बीजेपी को 50 सीटें मिल जाएंगी लेकिन 33 सीटों पर सिमटना बताता है कि पीएम मोदी और अमित शाह के घमंड को लोगों ने नकार दिया. दलितों, पिछड़ी जातियों और और उदार लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले आम लोगों को विपक्षी पार्टियां समझाने में कामयाब रहीं कि मोदी और मज़बूत हुए तो संविधान ख़तरे में पड़ जाएगा.''

''इसलिए दलितों ने भी मायावती को छोड़ इंडिया गठबंधन को वोट किया. दलितों में यह संदेश बहुत गहराई से गया था कि बीजेपी रही तो आरक्षण को कमज़ोर किया जा सकता है. यहाँ तक कि मायावती जिस जाटव जाति से ताल्लुक रखती हैं, उस जाति के लोगों ने भी इंडिया गठबंधन को वोट किया.''

शरत प्रधान कहते हैं, ''यूपी में बीजेपी के 33 सीटों पर सिमटने का असर योगी पर भी पड़ेगा. अमित शाह और नरेंद्र मोदी अगर चाहें तो इस हार का ठीकरा योगी पर फोड़ सकते हैं और उन्हें सीएम की कुर्सी से हटा सकते हैं. नरेंद्र मोदी यूपी में जिस शिखर तक पहुँच गए थे, वहाँ से अब उनका उतरना शुरू हो गया है.''

प्रधान कहते हैं, ''योगी को भी लगता था कि यूपी में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं है और हिन्दुत्व के सामने कोई टिकेगा नहीं. लेकिन चुनावी नतीजे ने इसे भी ग़लत साबित कर दिया. भारत के लोग तानाशाही पसंद नहीं करते हैं. स्मृति इरानी की हार तो सीधे-सीधे मोदी की हार है. राहुल गांधी ने स्मृति इरानी को बिल्कुल मोदी की शैली में ही हरवाया है. राहुल की यह अच्छी रणनीति थी कि स्मृति को हराएंगे लेकिन किसी छोटे कार्यकर्ता से.''

यूपी में बीजेपी को झटका क्यों लगा?

शरत प्रधान कहते हैं, ''इस चुनाव में उत्तर प्रदेश से दो अहम संदेश हैं. पहला संदेश मायावती के लिए है कि दलित उनके बंधुआ मज़दूर नहीं हैं और दूसरा संदेश मोदी के लिए है कि वह हर चुनाव को हिन्दू-मुसलमान करके नहीं जीत सकते हैं. मायावती पूरी तरह से बीजेपी के पाले में थीं और उन्होंने अपने भतीजे को हटाया तो इसका और ग़लत संदेश गया. नतीजे सबके सामने हैं.''

रीता बहुगुणा जोशी इलाहाबाद से बीजेपी की सांसद हैं और योगी के पहले कार्यकाल में मंत्री भी थीं.

बीजेपी ने उन्हें इस बार टिकट नहीं दिया था. उनकी जगह बीजेपी के वरिष्ठ नेता रहे केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को टिकट मिला है और वह भी चुनाव हार गए.

रीता बहुगुणा जोशी से पूछा कि यूपी में बीजेपी इस बार 33 सीटों पर क्यों सिमट गई?

रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं, ''हम सरकार तो बना ही लेंगे लेकिन ज़ाहिर है कि 2014 और 2019 वाली जीत नहीं मिली. यूपी में हमने काम तो किया था लेकिन रोज़गार का सवाल हमारे सामने था. हम अयोध्या तक में चुनाव हार गए. हमें विचार करना होगा कि इस बार ऐसा क्यों हुआ.''

रीता बहुगुणा जोशी से पूछा कि यूपी के नतीजे का असर क्या योगी आदित्यनाथ पर भी पड़ेगा? इस सवाल के जवाब में जोशी कहती हैं, ''हमारे पास पूर्ण बहुमत है, मुझे नहीं लगता है कि कोई असर पड़ेगा.''

अखिलेश यादव की रणनीति

इस चुनाव में कई विश्लेषक समाजवादी पार्टी की रणनीति की भी तारीफ़ कर रहे हैं.

अखिलेश यादव ने इस बार टिकट बँटवारे में ग़ैर-यादव जातियों का ख़ास ख़्याल रखा था.

मुस्लिम और यादव समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाते हैं लेकिन अखिलेश यादव ने इस बार 62 में केवल पाँच यादव उम्मीदवार ही उतारे थे और वो भी सब उन्हीं के परिवार के थे.

2019 में समाजवादी पार्टी का बहुजन समाज पार्टी और जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन था.

समाजवादी पार्टी तब 37 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और 10 यादव प्रत्याशी उतारे थे. 2014 में समाजवादी पार्टी ने यूपी में 78 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और इनमें कुल 12 यादव उम्मीदवार थे और चार मुलायम परिवार से ही थे.

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर पंकज कुमार भी टिकट बँटवारे में अखिलेश यादव की तारीफ़ करते हैं.

प्रोफ़ेसर पंकज कुमार कहते हैं, ''समाजवादी पार्टी ने टिकट का बँटवारा बहुत बढ़िया किया है. अयोध्या में किसी दलित को टिकट देना बहुत समझदारी भरा फ़ैसला था. अवधेश प्रसाद पुराने सपाई हैं. बलिया में सनातन पांडे को टिकट देना भी समझदारी भरा फ़ैसला था.''

''अखिलेश यादव पीडीए की बात कर रहे थे,जिसमें सारी जातियां शामिल थीं. दूसरी तरफ़ बीजेपी ने बहुत ज़्यादा मुसलमान-मुसलमान किया. बीजेपी ने बहुत ख़राब तरीक़े से टिकट बँटवारा भी किया था. मुझे नहीं लगता है कि टिकट बँटवारे में योगी से पूछा गया था. कौशांबी में राजा भैया ने कहा था कि एक टिकट उनके आदमी को दिया जाए लेकिन अमित शाह नहीं माने. इलाहाबाद में भी नीरज त्रिपाठी को टिकट दे दिया और उन्हें हार मिली. अमित शाह दिल्ली से बैठकर टिकट बाँट रहे थे.''

यूपी में बीजेपी के इस प्रदर्शन का असर योगी की राजनीति पर क्या पड़ेगा?

प्रोफ़ेसर पंकज कुमार कहते हैं, ''योगी के कहने पर टिकट नहीं मिला था लेकिन उन पर ठीकरा फोड़ा जा सकता है. योगी की कमी यह है कि वह डिस्कनेक्ट हैं. पॉलिटिकल वर्कर से उनका संपर्क नहीं है.''

प्रोफ़ेसर पंकज कहते हैं, ''योगी गुजरात मॉडल से सरकार चलाना चाहते हैं. नौकरशाहों के दम पर सरकार चला रहे हैं. उन्हें जनता और पार्टी कार्यकर्ता से ज़्यादा पुलिस पर भरोसा है. मुझे लगता है कि इस बार के चुनाव में आरएसएस ने भी हाथ खींचा है. आरएसएस को भी लगने लगा था कि मोदी कुछ ज़्यादा ही मज़बूत हो रहे हैं और यह संघ के लिए ठीक नहीं था.''

प्रोफ़ेसर पंकज मानते हैं कि इस चुनाव में मायावती बिल्कुल हाशिए पर चली गई हैं और उनकी वापसी अब मुश्किल है.

प्रोफ़ेसर पंकज कुमार कहते हैं, ''मायावती की जगह चंद्रशेखर ले सकते हैं. नगीना से उनकी जीत यह बताती भी है. निर्दलीय चुनाव जीतना मायने रखता है.''

उत्तर प्रदेश में बीजेपी का ख़राब प्रदर्शन नरेंद्र मोदी के तीसरे टर्म की कई तैयारियों पर पानी फेर सकता है. इसके साथ ही जब उत्तर भारत में क्षेत्रीय पार्टियां सिमट रही थीं तब अखिलेश यादव मज़बूत नेता के तौर पर उभरे हैं. अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस भी मज़बूती से उभरी है.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह के न चाहते हुए भी ऐसा हुआ है. अब नरेंद्र मोदी के पाँच साल चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार पर टिका है लेकिन इन दोनों नेताओं के अतीत का अनुभव बीजेपी के साथ अच्छा नहीं रहा है.

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