पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई कैसे काम करती है, इसके काम की आलोचना क्यों होती है?

    • Author, उमर फ़ारूक़
    • पदनाम, रक्षा विश्लेषक

पाकिस्तान के सरकारी मीडिया के अनुसार एडजुडेंट जनरल के पद पर काम करने वाले लेफ़्टिनेंट जनरल मोहम्मद आसिम मलिक को पाकिस्तान सेना की ख़ुफ़िया संस्था आईएसआई का नया प्रमुख बनाया गया है.

नए आईएसआई चीफ़ की नियुक्ति के साथ ही सोशल मीडिया पर इसकी भूमिका और इसके काम करने के ढंग के बारे में बहस शुरू हो गई है.

पहली मार्च 2003 को पाकिस्तान की शीर्ष इंटेलिजेंस एजेंसी आईएसआई के दो दर्जन अधिकारियों ने रावलपिंडी के एक घर से ख़ालिद शेख़ मोहम्मद को गिरफ़्तार किया था

ख़ालिद शेख़ मोहम्मद पर 11 सितंबर 2001 को अमेरिकी शहरों में हमलों की साजिश रचने का आरोप लगा था.

उसी शाम आईएसआई ने इस्लामाबाद स्थित अपने हेडक्वार्टर में पाकिस्तानी और विदेशी पत्रकारों को ब्रीफ़िंग के लिए बुलाया ताकि इस गिरफ़्तारी के बारे में उन्हें पूरी जानकारी दी जा सके.

ऐसा कम ही हुआ है कि अपने किसी ऑपरेशन के मामले पर आईएसआई के किसी अधिकारी ने इस तरह सीधे विदेशी पत्रकारों को ब्रीफ़िंग दी हो. लेकिन यह घटना भी असामान्य थी जिसने आईएसआई के बारे में एक बार फिर बहस छेड़ दी.

ब्रीफ़िंग में मौजूद पत्रकारों में से अक्सर ख़ालिद शेख़ मोहम्मद की गिरफ़्तारी के बारे में पहले से ही जानते थे. उन्हें मालूम था कि ख़ालिद शेख़ को रावलपिंडी में एक घर से गिरफ़्तार किया गया था.

यह घर जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान से क़रीबी संबंध रखने वाले एक मशहूर धार्मिक परिवार का था. उनका नाम अहमद अब्दुल क़ुद्दूस था, जिनकी मां जमात-ए-इस्लामी की एक सक्रिय सदस्य थीं.

ब्रीफ़िंग के दौरान पत्रकारों ने आईएसआई के डिप्टी डायरेक्टर जनरल से जमात-ए-इस्लामी और अलक़ायदा या दूसरे चरमपंथी गिरोहों के संभावित संबंध के बारे में सवाल पूछना शुरू कर दिया.

डिप्टी डायरेक्टर जनरल नौसेना के एक अधिकारी थे. उन्होंने ब्रीफ़िंग रूम में उस दिन पत्रकारों को बताया था कि जमात-ए-इस्लामी का अलक़ायदा या किसी अन्य आतंकवादी संगठन से कोई संबंध नहीं.

इस कार्रवाई के बाद आईएसआई ने एक तरफ़ पाकिस्तान के अंदर अमेरिकी सीआईए और एफ़बीआई के साथ मिलकर साझा ऑपरेशन किया, जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान के अंदर धार्मिक लॉबी के साथ क़रीबी संबंध भी बनाये रखा.

बहुत सारे सैन्य विश्लेषक कहते हैं कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग के दिनों में एक फ़ौजी नहीं बल्कि इंटेलिजेंस जंग लड़ी गई. इससे इस बात का पता चलता है कि अमेरिका और पाकिस्तान के बीच इंटेलिजेंस सहयोग ने आतंकवादियों के ख़िलाफ़ कामयाब कार्रवाई में निर्णायक भूमिका निभाई.

पाकिस्तान और अमेरिका के बीच इंटेलिजेंस शेयरिंग का समझौता 9/11 के आतंकवादी हमले के तुरंत बाद हुआ था, जिसे कभी आम लोगों के सामने नहीं लाया गया.

यह समझौता एक ऐसे समय में हुआ जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार के ख़ात्मे के बाद अलक़ायदा से संबंध रखने वाले लोग अफ़ग़ानिस्तान से भाग कर पड़ोसी देशों में शरण लेने की कोशिश कर रहे थे.

शुरुआती वर्षों में ज़्यादातर अलक़ायदा नेताओं को पाकिस्तान के बड़े शहरों से गिरफ़्तार किया गया.

‘नाइन इलेवन’ हमले से जुड़े बड़े नाम और मुलज़िम ख़ालिद शेख़ मोहम्मद को रावलपिंडी से, जबकि रमज़ी बिन अल-शीबा को कराची से गिरफ़्तार किया गया.

विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तान और अमेरिका में इंटेलिजेंस सहयोग समझौते पर कामयाबी से अमल उस समय हुआ जब दोनों देश पाकिस्तान के नागरिक ठिकानों में अलक़ायदा से संबंध रखने वाले लोगों का पीछा कर रहे थे.

अलक़ायदा के मशहूर नामों की पाकिस्तान के बड़े केंद्रों से गिरफ़्तारी ज़ाहिर करती है कि इंटेलिजेंस शेयरिंग की व्यवस्था मुश्किलों को नहीं बढ़ा रही थी क्योंकि किसी बड़े प्रतिरोध के बिना ही अलक़ायदा के लोग गिरफ़्तार हो रहे थे.

लेकिन जैसे ही आतंकवाद विरोधी कार्रवाई का केंद्र बदला और यह क़बायली इलाकों की तरफ बना तो पाकिस्तान और अमेरिका के बीच इंटेलिजेंस शेयरिंग में व्यावहारिक और राजनीतिक मुश्किलें सामने आने लगीं.

इसमें एक व्यावहारिक परेशानी पाकिस्तान सरकार और चरमपंथियों के बीच क़बायली इलाक़ों में होने वाले शांति समझौता थे. समझौते से स्थानीय और अलक़ायदा के चरमपंथियों के बीच एक फ़र्क़ पैदा हो गया.

व्यावहारिक स्तर पर अमेरिकी सेना पाकिस्तानी अधिकारियों के दृष्टिकोण से सहमत नहीं थी. इस बात का संकेत पाकिस्तान के कथित ‘दोहरे मापदंड’ की नीति की अमेरिकी आलोचना से मिलता है.

आईएसआई की कथित दोहरी नीतियों और उन धार्मिक शक्तियों के साथ संपर्क बनाये रखने पर अमेरिका ख़ुश नहीं था. वो क्षेत्र में अमेरिका की मौजूदगी का विरोध कर रहे थे.

यह कथित संपर्क उस समय भी जारी थे जब वॉशिंगटन ने तालिबान के साथ बातचीत की शुरुआत की और वहां से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के समझौते पर दस्तख़त किए.

इधर पाकिस्तान में विपक्ष ने आईएसआई और उसके नेतृत्व पर राजनीतिक जोड़-तोड़ का आरोप लगाया और अपना कार्यकाल पूरा करने वाले आईएसआई के डीजी पर आरोप लगाया कि वो साल 2018 के संसदीय चुनाव में इमरान ख़ान की कामयाबी के पीछे असली रणनीतिकार थे.

इस संस्था के बारे में ऐसा क्या है कि पाकिस्तान के अंदर और बाहर उसकी आलोचना होती है? ऐसा क्यों है कि राजनीतिक पृष्ठभूमि में किसी भी अपहरण, हत्या या धमकी का आरोप आईएसआई पर लगाया जाता है?

इन सवालों का जवाब देना आसान नहीं लेकिन आईएसआई के एक अधिकारी ने नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर बताया कि आईएसआई पाकिस्तान की प्रीमियर इंटेलिजेंस एजेंसी है जो क्षेत्र में जो कुछ हो रहा होता है उसकी ख़बर रखती है.

उन्होंने कहा, ''अफ़ग़ानिस्तान में शांति वार्ता हो तो पाकिस्तान उसमें मौजूद होता है, तालिबान काबुल में सरकार बनाए तो दुनिया हमारी तरफ़ देखती है, अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिम राजनयिकों को सुरक्षित बाहर निकालने का मामला हो तो हमारी मदद की ज़रूरत होती है. आप जिस भी मामले की बात करें उसमें हमारा महत्व दिखाई देगा.''

अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से अब तक कार्यकाल पूरा करने वाले आईएसआई के डीजी ने दो बार काबुल के दौरे किए हैं जहां वो वरिष्ठ तालिबान नेताओं से मिले.

उसी समय पाकिस्तान वॉशिंगटन में अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पर ध्यान दिलाने के लिए अमेरिका के साथ बातचीत कर रहा था.

साल 1979 से साल 2021 तक आईएसआई अफ़ग़ानिस्तान के हालात और उसके पाकिस्तान पर पड़ने वाले असर से निपटने में लगा रहा.

आईएसआई के एक पूर्व डिप्टी डायरेक्टर जनरल ने नाम न बताने की शर्त पर बीबीसी से कहा, ''इसमें कोई संदेह नहीं कि यह आईएसआई की बहुत बड़ी कामयाबी है कि हमने पाकिस्तान को बड़े नुक़सान या अफ़ग़ानिस्तान के हालात के नतीजे में होने वाले बड़े नकारात्मक असर से बचाया और पिछले 40 साल के दौरान क्षेत्र में अपनी सुरक्षा के लक्ष्य हासिल किए.''

आईएसआई का संगठनात्मक ढांचा

आईएसआई की मूल ज़िम्मेदारी देश की सशस्त्र सेनाओं की व्यावहारिक और वैचारिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है जिसका पता इस संस्था के नाम यानी इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस से लगता है.

आईएसआई में सिविलियन भी ऊंचे पदों पर गए हैं लेकिन वह इस संस्था के संगठनात्मक ढांचे में वर्चस्व नहीं रखते.

जर्मन राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर हीन एच किसलिंग ने अपनी किताब ‘आईएसआई ऑफ़ पाकिस्तान’ में इस संस्था का संगठनात्मक ढांचा दिया है. इस पुस्तक के मुताबिक़ उन्होंने साल 1989 से साल 2002 का समय पाकिस्तान में गुज़ारा है.

उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि यह एक आधुनिक संगठन है जिसका काम मुख्य तौर पर ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना है. उनके अनुसार आईएसआई सात डायरेक्टोरेट्स और विभागों की कई परतों के अलावा विंग हैं जो किसी भी आधुनिक इंटेलिजेंस की तरह आईएसआई में भी हैं.

आईएसआई के संगठनात्मक ढांचे में थल सेना का वर्चस्व है हालांकि नौसेना और वायुसेना से संबंध रखने वाले अधिकारी भी संगठन में हैं.

आईएसआई के डीजी विदेशी इंटेलिजेंस एजेंसियों और इस्लामाबाद में स्थित दूतावासों में तैनात फ़ौजी अताशियों से संपर्क के केंद्र की भूमिका निभाते हैं. इसी तरह पर्दे के पीछे वो इंटेलिजेंस के मामलों पर प्रधानमंत्री के चीफ़ एडवाइज़र के तौर पर काम करते हैं.

एक सीनियर फ़ौजी अफ़सर ने बीबीसी को बताया कि सशस्त्र सेनाओं में आर्मी, एयर फ़ोर्स और नेवी में एक अलग इंटेलिजेंस एजेंसी होती है, जिसमें मिलिट्री इंटेलीजेंस, एयर इंटेलीजेंस और नेवल इंटेलिजेंस शामिल हैं जो अपनी-अपनी संबंधित सेना के लिए ज़रूरी जानकारी इकट्ठा करती और कार्रवाई करती हैं.

आईएसआई और इन सेनाओं की हर संबंधित इंटेलिजेंस एजेंसी के कामकाज में कभी कभार एक ही तरह की जानकारी भी इकट्ठा कर ली जाती है क्योंकि सभी एजेंसी सैनिक गतिविधियों पर नज़र रखती हैं और दुश्मन पर निगरानी रखती हैं.

लेकिन सेना के संगठन में दूसरी इंटेलिजेंस एजेंसियों की तुलना में आईएसआई सबसे बड़ी, सबसे प्रभावी और सबसे शक्तिशाली इंटेलिजेंस एजेंसी समझी जाती है.

आईएसआई देश में सबसे बड़ी और व्यापक इंटेलिजेंस एजेंसी मानी जाती है लेकिन इसमें कितने लोग हैं, इस बारे में स्थानीय मीडिया या ग़ैर सरकारी क्षेत्र में कोई आकलन मौजूद नहीं है. आईएसआई के बजट को भी कभी जनता के सामने नहीं लाया गया.

लेकिन वॉशिंगटन स्थित फ़ेडरेशन ऑफ़ अमेरिकन साइंटिस्ट्स की कई साल पहले की जाने वाली पड़ताल के अनुसार आईएसआई में 10 हज़ार अधिकारी और स्टाफ़ मेंबर हैं जिनमें मुख़बिर और सूचना देने वाले लोग शामिल नहीं हैं. सूचना के अनुसार इसमें 6 से 8 डिवीज़न हैं.

काउंटर इंटेलीजेंस ऑपरेशन

सैनिक विशेषज्ञों का कहना है कि आईएसआई का संगठनात्मक ढांचा मूल रूप से उसे काउंटर इंटेलीजेंस ऑपरेशन पर ध्यान केंद्रित करने वाली इंटेलिजेंस एजेंसी बनाता है. लेकिन इसकी वजह क्या है?

ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) फ़िरोज़ एच ख़ान पाकिस्तान की रक्षा व्यवस्था में अहम पदों पर रहे हैं. उन्होंने ‘ईटिंग ग्रास’ नाम से किताब भी लिखी है.

फ़िरोज़ ख़ान ने अपनी किताब में लिखा है, “पाकिस्तान के तीसरे तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ को अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत यूनियन के हस्तक्षेप ने परेशान कर दिया था. इस परेशानी के पीछे बड़ी वजह यह थी कि ताक़त के नशे में चूर विश्व शक्ति हमारे देश के दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी.

"ऐसी स्थिति में कार्टर प्रशासन की ओर से दी जाने वाली सैनिक और आर्थिक मदद संतोषजनक थी लेकिन सैनिक तानाशाह जनरल ज़िया के लिए अमेरिकी प्रस्ताव एक अन्य किस्म की परेशानी का कारण था."

"वो यह समझते थे कि अमेरिकी मदद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करेगी और सेना की क्षमता को बढ़ाएगी. लेकिन दूसरी ओर अमेरिका के साथ इंटेलिजेंस शेयरिंग के लिए ज़्यादा जानकारी और पाकिस्तान के अंदर निगरानी की ज़रूरत होगी जिससे पाकिस्तान की राष्ट्रीय ख़ुफ़िया जानकारी सुरक्षित रखने में मुश्किल आ सकती थी."

ब्रिगेडियर फ़िरोज़ लिखते हैं कि जनरल ज़िया ने पाकिस्तान में अमेरिका की ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने की कार्रवाइयों को ‘न्यूट्रलाइज़’ करने और काउंटर इंटेलिजेंस के क्षेत्र में पाकिस्तान की इंटेलिजेंस सर्विसेज़ की क्षमता बढ़ाने का फ़ैसला किया.

उन्होंने लिखा है, "इसका मतलब आईएसआई के काउंटर इंटेलिजेंस विंग के लिए खुलकर बजट उपलब्ध कराना था."

उन दिनों अमेरिकी इंटेलिजेंस ऑपरेशन अधिकतर पाकिस्तान के ख़ुफ़िया परमाणु कार्यक्रम से संबंधित थे.

दूसरी तरफ अफ़ग़ानिस्तान युद्ध के नतीजे में पश्चिमी इंटेलिजेंस के अधिकारियों की एक बड़ी संख्या इस्लामाबाद में स्थाई तौर पर रह रही थी.

उस समय की सैनिक सरकार ने हालात के हिसाब से पाकिस्तान की इंटेलिजेंस सर्विसेज़ को इस ढंग से पुनर्गठित किया कि उसके ध्यान का केंद्र काउंटर इंटेलीजेंस ऑपरेशन बने.

सैनिक सुधारों की व्याख्या से संबंधित डिक्शनरी में 'काउंटर इंटेलिजेंस' का मतलब बताया गया है- "काउंटर इंटेलिजेंस जानकारी हासिल करने और विदेशी सरकारों, विदेशी संगठनों, विदेशी लोगों या अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों या उनके इशारे पर की जाने वाली जासूसी."

इसके अलावा इसमें दूसरी इंटेलिजेंस एजेंसियों की गतिविधियाँ, षड्यंत्र या हत्या कर देने की कार्रवाइयों से बचने के लिए की जाने वाली गतिविधियां भी शामिल हैं.

फ़िरोज़ ख़ान के विचार के मुताबिक़ जनरल ज़िया उल हक़ आईएसआई की रूपरेखा तैयार करने वाले वास्तुकार थे और वो एक ऐसे अंदाज़ में काउंटर इंटेलिजेंस को चलाना चाहते थे जो दूसरी सभी इंटेलिजेंस से बेहतर हो या उसे दूसरे पर बढ़त हासिल हो.

"इसलिए पाकिस्तान इंटेलिजेंस सर्विसेज़ का ऐसा ढांचा तैयार किया गया कि वह तरक्की करे और पारदर्शी अंदाज में आगे बढ़ती जाए. उसका अतिरिक्त ध्यान देश के अंदर और बाहर काउंटर इंटेलिजेंस पर केंद्रित हो."

फ़िरोज़ ख़ान ने लिखा है, "ज़िया उल हक़ के पास आगे बढ़ने के रास्ते बहुत कम थे लेकिन उन्हें दांव लगाना था. परमाणु मामले को कूटनीति से कम किया जा सकता था और अमेरिकी इंटेलिजेंस के ज़रिए जानकारी लेने में ख़तरे थे, इस समस्या को बेहतर काउंटर इंटेलिजेंस से हल किया जा सकता था."

जॉइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो

आज तक आईएसआई के अंदर डायरेक्टोरेट्स या निदेशालय काउंटर इंटेलिजेंस की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं जिसे जॉइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो या जेसीआईबी का नाम दिया गया है जो सबसे बड़ा डायरेक्टोरेट है.

हीन जी किसलिंग अपनी किताब में लिखते हैं कि डिप्टी डायरेक्टर जनरल, एक्सटर्नल 'जेसीआईबी' को कंट्रोल करते हैं.

उनके अनुसार, "इसकी ज़िम्मेदारी विदेशों में तैनात पाकिस्तानी राजनयिकों की निगरानी है. इसके साथ ही मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान और पूर्व सोवियत यूनियन से अलग हुए देशों में इंटेलिजेंस ऑपरेशन करना है."

"जेसीआइबी के चार डायरेक्टरेट्स हैं जिनमें से हर एक को एक अलग ज़िम्मेदारी दी गई है. जिनमें

ए- एक निदेशक विदेशी राजनयिकों और विदेशियों की फ़ील्ड निगरानी को संभालता है.

बी- दूसरा निदेशक विदेशी राजनीति से जुड़ी ख़ुफ़िया सूचना इकट्ठा करता है.

सी- तीसरे डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी एशिया, यूरोप और मध्य पूर्व में ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करना है.

डी- चौथा डायरेक्टर इंटेलिजेंस मामलों में प्रधानमंत्री के सहायक के तौर पर सेवा देता है. यह आईएसआई का सबसे बड़ा डायरेक्टोरेट है. इसकी ज़िम्मेदारियों में ख़ुद आईएसआई अधिकारियों की निगरानी भी शामिल है.

इसका काम राजनीतिक गतिविधियों का हिसाब रखना भी है और यह पाकिस्तान के सभी बड़े शहरों क्षेत्रों में मौजूद है."

आईएसआई में अन्य निदेशालय

डॉक्टर हीन किसलिंग की किताब के अनुसार आईएसआई का दूसरा बड़ा डायरेक्टोरेट ज्वाइंट इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी जेआईबी है जो संवेदनशील राजनीतिक विषयों से संबंधित है.

इसमें राजनीतिक दल, ट्रेड यूनियन, अफ़ग़ानिस्तान, आतंकवाद निरोधी कार्रवाइयां और वीआईपी सुरक्षा शामिल है. यह विदेशी दूतावासों में ख़ास काम के लिए नियुक्त पाकिस्तान के फ़ौजी और फ़ौजी सलाहकारों से जुड़े मामलों की निगरानी करता है.

डॉक्टर किसलिंग ने लिखा है कि जेआईएन जम्मू कश्मीर का काम देखता है. इसकी मूल ज़िम्मेदारी ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना है, यह कश्मीरी चरमपंथियों को ट्रेनिंग, हथियार और पूंजी उपलब्ध कराता है.

पाकिस्तान पर कश्मीरी चरमपंथियों की मदद के आरोप लगते रहे हैं लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा इसका खंडन किया है.

डॉक्टर किसलिंग के मुताबिक़ ज्वाइंट इंटेलिजेंस यूरोप अलग-अलग देशों , अमेरिका, एशिया और मध्य पूर्व में जासूसी का काम करता है और एजेंट के ज़रिए आईएसआई हेडक्वार्टर से सीधे संपर्क में रहता है.

"यह विदेशों में तैनात अधिकारियों की मदद से ख़ुफ़िया जानकारी जमा करता है. यह अपनी आक्रामक कार्रवाइयों के लिए ट्रेनिंग हासिल कर चुके जासूसों का भारत और अफ़ग़ानिस्तान में इस्तेमाल करता है."

सेना और आईएसआई में मतभेद

एक रिटायर्ड सीनियर फ़ौजी अधिकारी के अनुसार आईएसआई पाकिस्तान आर्मी के साए में काम करती है जो उसे बेतहाशा सैनिक शक्ति देती है. लेकिन उनके अनुसार उनके संबंधों में कभी-कभी दरारें भी देखी गई हैं जो अतीत में खुलकर सामने भी आई हैं.

उन्होंने नाम न उजागर करने की शर्त पर कहा, "फ़ौजी विशेषज्ञ उदाहरण देते हुए बताते हैं कि 12 अक्टूबर 1999 की बग़ावत, नवाज़ शरीफ़ सरकार के ख़िलाफ़ तो थी ही लेकिन यह आईएसआई के संगठन के ख़िलाफ़ भी थी."

"आईएसआई अपने महानिदेशक लेफ़्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) ज़ियाउद्दीन बट के साथ थी जिसे उस समय के प्रधानमंत्री ने चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ बना दिया था."

"दूसरी बार यह दरार उस समय नज़र आई जब जनरल मुशर्रफ़ के दौर में आईएसआई ने अपना मीडिया विंग शुरू कर दिया था जिसने स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ अपने संबंध बनाए."

एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, "आईएसआई का मीडिया विंग कभी-कभी स्वतंत्र ढंग से काम करता है और यह काम इस मक़सद से बिल्कुल अलग होता है जो आईएसपीआर कर रहा होता है."

"आईएसपीआर पाकिस्तान सेना की जनसंपर्क इकाई है. मीडिया पर इस विंग के दबाव का आईएसपीआर के दबाव के साथ समानांतर प्रभाव पड़ता है."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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