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महाराष्ट्र चुनाव: महायुति गठबंधन के आगे कैसे ढह गया महाविकास अघाड़ी?
- Author, सुमेधा पाल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ‘महायुति’ गठबंधन ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है.
इस गठबंधन में शामिल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 132 , एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 57 और अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 41 सीटें जीती हैं. यानी महायुति ने कुल 230 सीटें हासिल कर सत्ता में धमाकेदार वापसी की है.
दूसरी ओर, महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और शरद पवार की एनसीपी शामिल हैं. इन्हें कुल 46 सीटें मिली हैं और करारी हार का सामना करना पड़ा है.
नतीजे आने से पहले ज़्यादातर विश्लेषक दोनों गठबंधन के बीच ‘काँटे की टक्कर’ मान रहे थे. एग्ज़िट पोल भी ऐसा ही कुछ दिखा रहे थे इसलिए दोनों गठबंधन के नेता मतगणना से पहले फ़िक्रमंद दिख रहे थे.
इस बीच, बीबीसी की टीम ज़मीनी स्तर पर मौजूद थी. नतीजे आने से पहले हमने पार्टी दफ़्तरों में सन्नाटा भी देखा. हालाँकि, इसके बाद तो एक ख़ेमे में नज़ारा ही बदल गया.
हमने यह समझने की कोशिश की, वे निर्णायक मोड़ क्या थे जिसने महायुति की ऐसी जीत सुनिश्चित की.
‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहीण योजना’ और महिला वोटर का समर्थन
महायुति की जीत में सबसे बड़ा योगदान 'मुख्यमंत्री- माझी लाडकी बहीण योजना' (मुख्यमंत्री मेरी लाडली बहन योजना) का माना जा रहा है.
इस योजना के तहत कम आय वाले परिवारों की महिलाओं को सीधे डेढ़ हज़ार रुपये की आर्थिक मदद हर महीने दी जा रही है. चुनाव शुरू होने से पहले ही, लगभग 30 लाख से अधिक महिलाओं को इस योजना का फ़ायदा मिल गया था. उनके बैंक खातों में तीन हज़ार रुपये जमा हो चुके थे.
इसके अलावा, चुनाव के दौरान महायुति ने इस योजना के विस्तार की घोषणा की. इसने भी उसके पक्ष में एक मज़बूत लहर बनाई. गठबंधन ने वादा किया कि सरकार बनने पर इस राशि को बढ़ा कर हर महीने दो हज़ार एक सौ रुपये कर दिया जाएगा.
कई महिला समर्थकों ने बीबीसी को बताया, “महायुति काम करके दिखाती है. वहीं, महाविकास अघाड़ी सिर्फ़ घोषणाएँ करने का काम करती है.”
चुनाव आयोग के आँकड़ों के अनुसार, इस बार महिला वोटरों की संख्या में 5.95 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ. महिला वोटरों की संख्या में बढ़ोतरी को इस योजना के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है.
वरिष्ठ पत्रकार दीपक लोखंडे ने कहा, “दीपावली से पहले महिलाओं के खातों में पैसे आना, ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत बड़ी बात है. इसे विपक्ष ने गंभीरता से नहीं लिया. यह उनकी हार का एक बड़ा कारण बना.”
ज़मीनी स्तर पर संघ ने भी लगाई ताकत
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने इस बार भाजपा के लिए पूरी ताक़त झोंक दी थी. लोकसभा चुनाव में संघ की सक्रियता अपेक्षाकृत कम थी. हालाँकि, विधानसभा चुनाव में उन्होंने शहरी मतदाताओं को जोड़ने के लिए व्यापक अभियान चलाया.
संघ के कार्यकर्ताओं ने नागपुर और पुणे जैसे शहरी क्षेत्रों में घर-घर जाकर भाजपा के लिए प्रचार किया. उन्होंने भाजपा का नाम लिए बगैर “स्थिरता और विकास” के मुद्दे की बात की और अपने संदेश को फैलाया.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई के अनुसार, “लोकसभा चुनाव में अजित पवार के साथ गठबंधन से संघ नाराज़ था. विधानसभा चुनाव में उन्होंने यह मतभेद भुलाकर ज़मीन पर काम किया. संघ और भाजपा के संयुक्त प्रयासों ने महायुति को यह बड़ी जीत दिलाई.”
‘बँटेंगे तो कटेंगे… एक रहेंगे तो सेफ़ रहेंगे’ जैसे नारे
शनिवार को जब शुरुआती रुझान सामने आ रहे थे, उस वक़्त भाजपा के दफ़्तर में कोई हलचल नहीं थी. दोपहर होते-होते ये दफ़्तर 'राम' के नारों से गूँजने लगा. भाजपा के समर्थकों ने इस जीत को हिंदुत्व की जीत बताया.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए गए नारों ने चुनाव प्रचार के दौरान हिंदुत्व की राजनीति को मज़बूत किया. “बँटेंगे तो कटेंगे या एक रहेंगे तो सेफ़ रहेंगे” जैसे नारों ने भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे को और धार दी.
इस दौरान, कथित “वोट जिहाद” जैसा मुद्दा भी छाया रहा. भाजपा नेताओं ने इसे लोकसभा चुनावों में हार का एक बड़ा कारण बताया था. इस बार इसे रोकने की अपील की गई. इसके साथ-साथ चुनाव प्रचार में कई और भड़काऊ नारे भी सुनाई दिए.
कई वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि इस आक्रामक प्रचार ने भाजपा को अपने कट्टर समर्थकों को एकजुट करने में मदद की.
इसके अलावा भाजपा ने महाराष्ट्र के इस चुनाव में स्थानीय मुद्दों को केंद्र में रखा. दूसरी ओर, राहुल गांधी लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी “संविधान बचाने की लड़ाई” का मुद्दा उठाते रहे. ये मुद्दा विधानसभा चुनाव में प्रभावी साबित नहीं हुआ.
इसके उलट, ऐसा लग रहा है कि महायुति अपने ढाई साल के कार्यकाल में किए गए विकास कार्यों को जनता को बताने में सफल रही. ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ़्त एलपीजी सिलेंडर और “लाडकी बहीण योजना” जैसे कल्याणकारी कार्यक्रमों ने जनता को आकर्षित किया.
दूसरी ओर, एमवीए गठबंधन सीटों के बँटवारे और चुनाव प्रचार में एकजुटता दिखाने में नाकाम रहा. उनकी आपसी खींचतान और रणनीतिक चूक ने भाजपा के लिए चुनावी राह आसान बना दी.
एक तरफ कांग्रेस पार्टी के बड़े चेहरे राहुल गांधी वायनाड में ज़्यादा मेहनत करते नज़र आए, जहां से प्रियंका गांधी पहली बार चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आज़मा रही थीं, तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र तक सीमित उद्धव ठाकरे ने मतदान से 20 दिन पहले ही जनता के बीच जाना शुरू किया.
वहीं देवेंद्र फडणवीस और एकनाथ शिंदे की जोड़ी ने “स्थिरता और विकास” का नारा देकर जनता का भरोसा जीता. महायुति ने अपने चुनावी वादों को पूरा कर दिखाने पर ज़ोर दिया. इससे उनका चुनाव प्रचार अधिक प्रभावशाली रहा.
एकनाथ शिंदे ने जीत के बाद कहा, “यह जनता का हमारे विकास कार्यों पर भरोसा है. हर वर्ग ने हमारे काम को देखा और हमें वोट देकर सम्मान दिया.”
कांग्रेस का अति आत्मविश्वास
पाँच महीने पहले, कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर 99 सीटें जीतकर अपने फिर से उभरने के ज़ोरदार संकेत दिए थे. लेकिन शनिवार को महाराष्ट्र में पार्टी अपने सबसे ख़राब प्रदर्शन की ओर बढ़ती नज़र आई. इससे पहले हरियाणा में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था.
नतीजों के बाद कांग्रेस और महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के कई नेता ईवीएम को दोष दे रहे हैं. उनका कहना है कि यह जनता के मुद्दों की हार है. वहीं कई जानकार कांग्रेस की इस बड़ी हार को उसके अति आत्मविश्वास का नतीजा मान रहे हैं.
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता अशोक धवले कहते हैं, "महाविकास अघाड़ी को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में इसलिए हार का सामना करना पड़ा क्योंकि लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद उन्होंने अति आत्मविश्वास दिखाया."
"उन्होंने सीटों के बँटवारे में देरी की. घटक दलों के बीच अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए आपस में खींचतान हुई. वहीं दूसरी ओर, भाजपा और उसके सहयोगियों ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और धन बल का सहारा लिया."
चुनाव परिणामों पर पहली प्रतिक्रिया में, विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने महाराष्ट्र के नतीजों को “अप्रत्याशित” बताया और कहा कि पार्टी इन पर विस्तार से विश्लेषण करेगी.
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि विधानसभा चुनावों के दौरान एमवीए में समन्वय की कमी दिखी.
अति आत्मविश्वास और नेतृत्व की ग़लतियाँ
राजनीतिक विश्लेषक दीपक लोखंडे कहते हैं, "लोकसभा चुनाव के समय महायुति के लिए जो नकारात्मक माहौल था, वह ख़त्म हो चुका है. लोगों ने अपना ग़ुस्सा उस समय निकाल लिया."
"लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद एमवीए के नेता हवा में उड़ने लगे. कांग्रेस ने मान लिया कि अब राज्य उनके हाथ में है. अभी भैंस पानी में थी लेकिन एमवीए ने उसका मोल पहले ही तय कर लिया. मुख्यमंत्री की चर्चाएँ भी पहले से शुरू कर दीं."
मराठा आंदोलन का असर
मराठा आरक्षण आंदोलन भी इस चुनाव में चर्चा के केंद्र में था. मनोज जरांगे-पाटिल मराठा समुदाय के लिए ओबीसी आरक्षण की माँग के प्रमुख चेहरा बनकर उभरे थे.
उन्होंने 29 अगस्त 2023 को अंतरवाली-सराटी गाँव में अनशन शुरू किया. यह आंदोलन एक सितंबर 2023 को पुलिस लाठीचार्ज के बाद और उग्र हो गया था.
चुनाव के समय आंदोलन का प्रभाव कमज़ोर पड़ गया. जुलाई 2024 में जरांगे ने भूख हड़ताल की घोषणा की थी. हालाँकि, उन्होंने चुनाव न लड़ने का फ़ैसला किया.
महाराष्ट्र की राजनीति के विशेषज्ञ लेखक जितेंद्र दीक्षित कहते हैं, "मराठा आंदोलन अब ठंडा पड़ चुका है. लोकसभा चुनाव के समय यह आंदोलन बड़े स्तर पर चल रहा था. उस वक़्त मनोज जरांगे-पाटिल काफ़ी बयानबाज़ी कर रहे थे."
"लेकिन पिछले तीन-चार हफ़्तों में आंदोलन धीमा हो गया था. इसका कोई ख़ास असर विधानसभा चुनाव पर नहीं दिखा. इसके साथ ही विदर्भ क्षेत्र के किसानों को भी सरकारी योजनाओं से बड़ी राहत मिली है. इसने भी सरकार विरोधी लहर को कुछ कम किया."
कुल मिलाकर, महाविकास अघाड़ी की हार उनके अति आत्मविश्वास, गठबंधन की कमज़ोरियाँ और जनता के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने में विफलता का नतीजा मानी जा रही हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.