वो रेलवे स्टेशन जहाँ पाकिस्तान से जान बचाकर पहुँचे थे हिंदू-सिख

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- Author, विवेक शुक्ला
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
दिल्ली में गुजरे 75 सालों में दर्जनों फ्लाईओवर बने, मेट्रो रेल चलने लगी, जगह-जगह मॉल्स खुलते रहे, मगर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन कमोबेश जैसा 1947 में था, वह वैसा ही अब भी है.
स्टेशन के मेन गेट के ऊपर लगी घड़ी गवाह है उस दौर की जब यहाँ पर पाकिस्तान से रोज हिन्दू-सिख शरणार्थी लुट-पिटकर आ रहे थे.
दिल्ली में आपको अब भी झुकी हुई कमर वाले वे बुजुर्ग मिल जाएँगे जो बंटवारे के बाद किसी तरह से जान बचाकर इसी रेलवे स्टेशन पर उतरे थे.
जहाँ एक तरफ़ हिंदू-सिख पुरानी दिल्ली और अमृतसर स्टेशन पर उतर रहे थे, वहीं लुटे-पिटे मुसलमान लोधी कॉलोनी रेलवे स्टेशन से लाहौर रवाना किए जा रहे थे.
सिर्फ 16 साल की उम्र में उड़न सिख मिल्खा सिंह अकेले-अनाथ दिल्ली जंक्शन पर उतरे थे.

मिल्खा सिंह के परिवार के कई सदस्यों का कत्ल कर दिया गया था. मिल्खा सिंह सीधे सरहद के उस पार से दिल्ली नहीं आए थे.
वे पहले पश्चिमी पंजाब के अपने शहर कोट अद्दू से मुल्तान शहर रेल से पहुँचे थे. वहां से वे ट्रक पर फिरोजपुर आए थे .
बँटवारे को लेकर उनकी दिल दहलाने वाली यादें थीं. उनके पिता को दंगाइयों ने कत्ल कर दिया था.
उन्होंने मरते वक्त कहा था, 'भाग मिल्खा भाग.' फिरोजपुर से वे दिल्ली आए थे. दरअसल, वे अपने गाँव से जान बचाकर भागने के दौरान अपनी बहन से बिछड़ गए थे.
शरीर सुन्न होने लगता था जब मिल्खा सिंह उस दौर के दर्दनाक किस्से बयां करते थे.

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दिल्ली में शरणार्थियों के जत्थे आ रहे थे. सब तरफ़ अफरा-तफरी का आलम था. मिल्खा सिंह अपनी बिछड़ गई बहन हुंडी को खोजने के लिए दिल्ली आए थे. वे दिल्ली में अपनी बहन को तलाशने में सफल रहे थे.
सुनसान जगहों पर कत्लेआम
दिल्ली आने वाले अधिकतर शरणार्थियों का इधर कोई घर-बार नहीं था. ये सब भगवान का नाम लेकर भारत की सीमा में पहुँच जाना चाहते थे. उससे पहले खतरा था. दिल्ली की तरफ आ रही रेलों पर निर्जन स्थानों पर हमले हो रहे थे.
रेलवे बोर्ड के चेयरमेन रहे वाईपी आनंद अपने परिवार के साथ स्यालकोट से जम्मू का 21 किलोमीटर का सफर कर रहे थे. स्यालकोट में दंगे भड़कने के बाद उनके परिवार के लिए वहाँ पर रहना नामुमकिन हो चुका था.
वे तब 13 साल के थे. उन्हें याद है जब किसी अनजान स्थान पर रेल को रोक दिया गया था. देखते-देखते उसमें हथियारों के साथ दंगाई दाखिल हो गए थे. उन्होंने उस अभागी रेल में सवार दर्जनों यात्रियों का कत्ल कर दिया. आनंद जी के सामने उनके परिवार के आधे सदस्य मारे गए थे. वे उन भयावह पलों को याद करते हुए रोने लगते हैं. खून से लथपथ उनकी रेल जम्मू पहुँची. वहाँ से कुछ दिनों के बाद वे अपने परिवार के बचे-खुचे सदस्यों के साथ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आए. यहाँ पर स्टेशन के आसपास हजारों शरणार्थी तंबुओं में डेरा डाले हुए थे.
'अमृतसर आ गया है'
इस डरावने सफर को कथाकार भीष्म साहनी ने विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी अपनी अमर कहानी 'अमृतसर आ गया है' में जीवंत कर दिया है.
'अमृतसर आ गया है' में ट्रेन में बैठे एक सरदार जी सबसे पूछ रहे थे कि "पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जा कर बस जाएँगे. किसी ने जवाब दिया था बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा."

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भीष्म साहनी अपने परिवार के साथ रावलपिंडी से रेल में दिल्ली आए थे. भीष्म साहनी जी बताते थे कि रावलपिंडी से लाहौर के बीच जगह-जगह कत्लेआम की खबरें मिलती थीं. लाहौर के पास के शहर शेखुपुरा में सैकड़ों लोग मारे गए थे. कई जगहों पर रेलों पर पथराव किया जाता था.
रेल जब अमृतसर पर पहुँचती थी तब बहुत से मुसाफिर उतर जाते थे. वहाँ पर रेल विभाग की तरफ से रेलों का मुआयना भी किया जाता था. कुछ डॉक्टर भी मौजूद रहते थे ताकि गंभीर रूप से बीमार और घायल लोगों का तुरंत इलाज हो सके.
शरणार्थियों में कुछ गर्भवती औरतें भी रहा करती थीं. कथाकार भीष्म साहनी के लिए अगस्त का महीना दो वजहों से खास था. पहला, उनका जन्म अगस्त के महीने की 8 तारीख को हुआ था. दूसरा, वे अगस्त का महीना आते ही अपने जन्मस्थान रावलपिंडी की यादों में चले जाते थे. देश के बंटवारे के कारण उन्हें अपना शहर छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था.
भीष्म साहनी देश के बंटवारे के बाद दिल्ली आए तो ईस्ट पटेल नगर में ही रहने लगे. फिर तो वे वहां ही रहे. उन्होंने लंबे समय तक दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाई.
पाकिस्तानी कौमी तराना लिखने वाले भी आए
धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना. जिन्ना ने उर्दू के शायर जगन्नाथ आज़ाद से पाकिस्तान का पहला कौमी तराना लिखवाया. जिन्ना के कहने पर जगन्नाथ आज़ाद ने बहुत कम समय में कौमी तराना लिखा- " ऐ सर ज़मीन पाक...". यह तराना मात्र 18 महीनों के लिए पाकिस्तान का राष्ट्रगान बना रहा और 11 सितंबर 1948 में जिन्ना की मौत के कुछ समय के बाद हटा दिया गया.

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चौदह महीने रेडियो पाकिस्तान पर यही तराना 'तराना-ए-पाकिस्तान'के रूप में गाया जाता रहा. जिन्ना की मृत्यु के बाद जगन्नाथ आज़ाद दिल्ली आ गए थे. वे सपरिवार दिल्ली जंक्शन पर आए थे. वे दिल्ली जंक्शन के पास पुल बंगश इलाके में रहते थे.
पुल बंगश के घर में ही फिराक गोरखपुरी और उर्दू के दूसरे नामवर शायर आजाद साहब के पास आया करते थे. आजाद साहब के दो पुत्र दिल्ली में ही रहते थे, उनमें से एक दूरदर्शन में थे. वे मालवीय नगर में रहा करते थे.
दिल्ली आने के बाद शरणार्थियों के सामने सिर छिपाने से लेकर पेट भरने की चुनौती थी. धक्के खा रहे थे शरणार्थी. स्टेशन पर उतरकर कोई अपने परिवारों के साथ-साथ सब्जी मंडी, करोल बाग, दरियागंज वगैरह की किसी कोठरी में रहने लगा. जिसका इस पराए शहर में कोई नहीं था, वे फतेहपुरी, कश्मीरी गेट, चाँदनी चौक वगैरह में दुकानों के आगे ही सोने लगे.
सुबह-शाम का भोजन गुरुद्वारा सीसगंज, गौरी शंकर मंदिर और दूसरे स्वयंसेवी संगठनों के सौजन्य से मिल जाता था. ये इधर आने के बाद कई हफ्तों तक मारे-मारे घूमते रहे छत के लिए. फिर कुछ स्कूलों में इन्हें रात को सोने के लिए छत मिली. कुछ शरणार्थी परिवार पंचकुइया रोड के वाल्मिकी मंदिर में भी रहने लगे. उनका रोज़ का एक काम था पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन जाना. वे वहाँ अपने मित्रों-रिश्तेदारों की खोज-खबर लेने जाते थे. अक्सर उनको कोई न कोई मिल जाता था जिसे वे रोते हुए गले लगा लेते थे.
कौन उतरता था सब्जी मंडी स्टेशन पर
दिल्ली आने वाले कुछ शरणार्थी सब्जी मंडी रेलवे स्टेशन पर भी उतर जाते थे. वे वहाँ से अपने ठिकाने की तलाश में इधर-उधर भटकते थे. कई शरणार्थी कई-कई दिनों तक सब्जी मंडी रेलवे स्टेशन पर ही रहे. उन्हें सब्जी मंडी रेलवे कॉलोनी में रहने वाले सुबह-शाम भोजन और नाश्ता देते थे.

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सब्जी मंडी रेलवे कॉलोनी सन 1930 में बनी थी. तीस हजारी कोर्ट में वकील पदम कुमार के परिवार का इससे लगभग आधी सदी पुराना संबंध है. वे बताते हैं कि पाकिस्तान से आए शरणार्थी सब्जी मंडी के आसपास जैसे घंटाघर, सदर बाजार, चाँदनी चौक, पुल मिठाई, किशन गंज, बाड़ा हिन्दूराव, कूचा हब्श खां जैसे इलाकों में भी रहने लगे.
दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद रहे जगप्रवेश चंद्र किशन गंज के एक कमरे के छोटे-से घर में रहने लगे थे. उनके साथ उनके माता-पिता और बहन थी. उन्होंने यहां पर जल्दी ही शरणार्थियों के बीच समाज सेवा का काम करना चालू कर दिया. दिल्ली में सन 1951 में पहला विधानसभा का चुनाव हुआ. वे किशन गंज से कांग्रेस की टिकट पर लड़े और जीते, यानी दिल्ली आने के चार सालों के बाद वे यहां विधायक बन गए.
छोले कुलचे से बटर चिकन तक
दरअसल, शरणार्थी दिल्ली में आने के चंदेक दिनों के बाद सड़कों पर कंघी, रूमाल, छोले-कुल्चे बेचने लगे. आखिर कुछ करना तो था. दिल्ली में लंबे समय से रहने वाले पचास साल से अधिक उम्र के लोगों को दरियागंज में आते-जाते वक्त मोती महल रेस्तरां को देखकर गुज़रा जमाना याद जरूर आता होगा. इसे खोला था कुंदनलाल गुजराल, ठाकुर दास और कुंदन लाल जग्गी ने.

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ये सब 1947 में पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आए थे. ये तीनों पेशावर के एक रेस्तरां में काम करते थे. एक दिन दिल्ली में मिले. कड़की का जमाना था. तीनों ने योजना बनाई कि दिल्ली में कुछ काम धंधा जमाया जाए. इन्होंने दरियागंज में छोटा सी जगह किराए पर ली, वेज और नॉन वेज डिशेज बनाकर बेचने के लिए.
उस ज़माने में फ्रिज नहीं होते थे. रात को जो चिकन बच जाते तो उसे टमाटर, क्रीम और बटर की ग्रेवी बनाकर रख देते थे ताकि वे नर्म बने रहें और ख़राब न हों. उसी ग्रेवी में गरम मसाले डालकर एक नई पंजाबी डिश बन गई जिसका नाम रखा गया--बटर चिकन. आज दुनिया भर में बटर चिकन बिकता है जिसकी शुरुआत दरियागंज के 'मोती महल' से हुई थी.

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वरिष्ठ लेखक और पत्रकार त्रिलोक दीप 1947 के बँटवारे पर बात करने से बचते हैं.
वे कहते हैं, 'रहने दो. बंटवारे ने मुझे बहुत गहरे घाव दिए थे. अब उसे फिर से याद नहीं करना चाहता.' पर ज़ोर देने पर बताने लगते हैं कि मैं तब दसेक साल का था और अपने माता-पिता के साथ अगस्त, 1947 से कुछ पहले ही रावलपिंडी से लाहौर होता हुआ लखनऊ पहुँच गया था.
"रावलपिंडी के हालात लगातार खराब हो रहे थे इसलिए हमने इंतजार करना मुनासिब नहीं समझा. पर मेरे नाना अमीचंद जी और नानी भाग्यवती जी को तब मार दिया गया था जब वे अपने गाँव से लाहौर के लिए निकल रहे थे. उन्हें किसी वाहन का इंतजार था ताकि जैसे-तैसे लाहौर पहुंच जाया जाये. उन्हें वहां से दिल्ली जाना था, लेकिन कभी पहुँच नहीं पाए.
स्यालकोट का धर्मपाल गुलाटी करोल बाग में
शरणार्थियों का दिल्ली में आने का सिलसिला थम ही नहीं रहा था. अब सितंबर का महीन चल रहा था. सबसे अधिक शरणार्थी लाहौर, रावलपिंडी, स्यालकोट और मुल्तान से आ रहे थे. इन्हें जहाँ पर खाली घर मिलते तो वे उसमें रहने लगते, इनमें से ज़्यादातर घर उन मुसलमानों के थे जो दंगों के बाद पाकिस्तान जाने पर मजबूर हो गए थे.

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करोल बाग से हजारों मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. पाकिस्तान के पूर्व टेस्ट क्रिकेटर सिकंदर बख्त का परिवार भी आजादी से पहले करोल बाग में ही रहता था. करोल बाग से जाने वाले अपने घरों पर ताला लगा रहे थे. एक उम्मीद थी कि उनका अपने यहाँ के घरों कब्ज़ा रहेगा, पर उन ताले लगे घरों को तोड़कर लोग उनमें घुस गए थे.
सरहद के दोनों तरफ़ यही हुआ, हिंदुओं और सिखों के ख़ाली मकानों पर वहाँ मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया जबकि दिल्ली और अमृतसर जैसे शहरों में मुसलमानों के ख़ाली मकान शरणार्थी हिंदु-सिखों की रिहाइश बन गए.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में इक्नोमिक्स के प्रोफेसर रहे वीरेन्द्र लाल वाधवा बताते हैं कि करोल बाग में फैज रोड और आर्य समाज रोड में लगातार शरणार्थी पहुँच रहे थे. उनमें स्यालकोट के चुन्नीलाल गुलाटी का परिवार भी था. वे लोग स्यालकोट में मसाले बेचते थे.
उस परिवार का एक नौजवान धर्मपाल गुलाटी आगे चलकर महाशय धर्मपाल गुलाटी बना और उसने एमडीएच मसाले नाम से मसाले की एक बड़ी कंपनी स्थापित की. महाशय धर्मपाल गुलाटी करोल बाग में कभी चप्पल-जूते पहन कर नहीं घूमते थे. कहते थे, 'करोल बाग की धरती मेरे लिए मंदिर समान है. इसने मुझे सब कुछ दिया है. मैं यहां पर चप्पल-जूते नहीं पहन सकता.'
दरअसल, लाहौर और रावलपिंडी से लगातार रेलें दिल्ली आ रही थीं. इनमें कुछ सुरक्षाकर्मी भी होते थे. इन पर पाकिस्तान की सरहद तक खतरा बना रहता था. लेखक और दिल्ली सरकार के मंत्री रहे रमाकांत गोस्वामी दो साल के थे जब वे अपने पिता और सनातन धर्म सभा के गोस्वामी गिरधारी लाल के साथ पुरानी दिल्ली आए थे.
गोस्वामी गिरधारी लाल लाहौर में बच्चों को हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते भी थे. वे काम के सिलसिले में साइकिल से ही हर दूसरे-तीसरे दिन लाहौर से अमृतसर आते-जाते थे. रमाकांत गोस्वामी ने अपने परिवार के बुजुर्गों से सुना था कि दिल्ली में लगातार शरणार्थियों की आमद से स्थानीय लोग खुश नहीं थे. उन्हें लगता था कि इनके यहाँ आने से दिल्ली की आबादी का चरित्र पूरी तरह से बदल जाएगा. गोस्वामी गिरधारी लाल लंबे समय तक बिड़ला मंदिर के मुख्य पुजारी रहे. उनकी ही देखरेख में पंडित नेहरु की अंत्येष्टि हुई थी.
गांधी और इंतज़ार करते शरणार्थी
स्थिति बहुत विकट थी. उस समय बहुत से परिवारों के सदस्य एक-दूसरे से बिछड़ गए थे, जिन्हें अपना रिश्तेदार मिल जाता था वह तो भगवान का लाख-लाख शुक्रिया करता था, जिसे नहीं मिलता वह दुआ करता कि उसे उसका संबंधी मिल जाए. वे फिर अगले दिन स्टेशन जाते थे.

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एक बात ध्यान रहे कि दिल्ली आने वाले सब रेलों से ही नहीं आ रहे थे. लाहौर के पंजाब हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू किए बहुत समय नहीं हुआ था खुशवंत सिंह को. विभाजन के कारण उनको भी अपने प्यारे शहर लाहौर को छोड़ना पड़ा था, पर वे लाहौर से दिल्ली अपनी कार को चला कर आये थे.
वे कहते हैं, "मुझे लाहौर से दिल्ली के सफ़र के दौरान परिंदा भी मुश्किल से दिखाई दे रहा था. दिल्ली करीब आई तो इन्सान दिखाई देने लगे."
खुशवंत सिंह के एक संबंधी भाई मोहन सिंह भी अपने परिवार को रावलपिंडी से कारों में दिल्ली लाए थे.
भाई मोहन सिंह का रावलपिंडी में कंस्ट्रक्शन का सफल बिजनेस था. दिल्ली में आकर उन्होंने लाइन चेंज की. वे फार्मा सेक्टर में आए और रैनबैक्सी फार्मा के चेयरमेन बने और अरबपति बन गए. तो बात ये है कि जो धनी थे वे अपनी कारों से दिल्ली सुरक्षित पहुँच रहे थे.
(ये स्टोरी पहली बार 12 अगस्त 2022 को बीबीसी हिन्दी पर प्रकाशित की गई थी.)
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