कारार ओई लौह कपाट: काज़ी नज़रुल के इस गीत को लेकर क्यों घिर गए हैं एआर रहमान

    • Author, अमिताभ भट्टासाली
    • पदनाम, बीबीसी न्यूज़ बांग्ला, कोलकाता

बांग्लादेश के राष्ट्रकवि काज़ी नज़रुल इस्लाम के परिवार ने कवि के बेहद लोकप्रिय गीत 'कारार ओई लौह कपाट...' (जेल का वह लौह दरवाजा) के एक हिंदी फिल्म में इस्तेमाल की अनुमति दी थी.

लेकिन एआर रहमान के संगीत निर्देश में उस गीत को जिस तरह पेश किया गया है उस पर नज़रुल परिवार ने आपत्ति जताई है.

विवाद पैदा होने के बाद कवि परिवार ने उस समझौते को सार्वजनिक करने की मांग उठाई है जिसके तहत उस गीत को फिल्म में इस्तेमाल किया गया है.

'पिप्पा' नामक जिस हिंदी फिल्म में उस गीत का इस्तेमाल किया गया है वह बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध में हिस्सा लेने वाले भारतीय सेना के एक जवान पर केंद्रित एक सत्य घटना पर आधारित है.

फिल्म के संगीत निर्देशक हैं ऑस्कर विजेता संगीतकार एआर रहमान.

गीत के शब्दों को ठीक रखने के बावजूद कथित रूप से इसकी धुन बदलने के मुद्दे पर भारत और बांग्लादेश में विवाद पैदा हो गया है.

कवि के परिवार का आरोप है कि उनसे गीत के इस्तेमाल की अनुमति देने के बावजूद धुन बदलने की अनुमति नहीं दी गई थी.

परिजनों ने फिल्म से उस गीत को हटाने की भी मांग की है.

हस्तलिखित पांडुलिपि

यहां इस बात का जिक्र ज़रूरी है कि गीत में कपाट शब्द काफी प्रचलित है. लेकिन वर्ष 1949 में जब पहला रिकॉर्ड निकला था तो उसमें यह शब्द कबाट था.

नज़रुल पर शोध करने वाले एक शोधार्थी का कहना है कि यह पता लगाने का कोई उपाय नहीं है कि कवि ने आख़िर कौन सा शब्द लिखा था. इसकी वजह यह है कि इसकी हस्तलिखित पांडुलिपि संरक्षित नहीं है.

शोधार्थी अर्को देव कहते हैं, "25 वर्षों तक यह गीत लोगों की स्मृति में था. इसी वजह से कपाट और कबाट दोनों शब्द हैं. एक शब्द दूसरे का अपभ्रंश है और यह भाषा की एक सामान्य प्रचलित घटना है."

इस बेहद लोकप्रिय गीत के फिल्म में इस्तेमाल के लिए वर्ष 2021 में प्रोडक्शन कंपनी और कवि की पुत्रवधू कल्याणी काज़ी के बीच एक समझौता हुआ था. इसके एवज में उनको दो लाख रुपये की रायल्टी का भी भुगतान किया गया था.

लेकिन उनके परिवार का दावा है कि उस करार में गीत की धुन को विकृत करने का अनुमति नहीं दी गई थी. कवि की पुत्रवधू कल्याणी काज़ी का इसी साल मई में निधन हो गया.

नज़रुल परिवार की नाराजगी

कल्याणी काज़ी के पुत्र काज़ी अनिर्वाण बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, "मैं उस समझौते का गवाह था. लेकिन मेरी मां ने उसमें कहीं भी धुन या शब्दों को बदलने की इजाज़त नहीं दी थी."

उन्होंने बीबीसी को बताया, "दो साल पहले हुए उस समझौते की बात हमें याद भी नहीं थी. इस बीच, इस साल 12 मई को मेरी मां का निधन हो गया. अचानक एक दिन प्रोडक्शन कंपनी की ओर से मुझे गाने का लिंक भेज कर उसे सुनने को कहा गया. गाने की प्रस्तुति सुन कर मुझे बेहद झटका लगा कि एआर रहमान ने यह क्या किया है."

उन्होंने बताया कि मां ने सोचा था कि एआर रहमान जैसे मशहूर संगीतकार अगर इस गीत का इस्तेमाल करेंगे तो इसे पूरी दुनिया में प्रचार मिलेगा.

इसी वजह से उन पर भरोसा करते हुए मां ने उनको दादा जी के गीत के इस्तेमाल की अनुमति दी थी. मां ने उनसे यह भी कहा था कि गाना तैयार होने के बाद उनको ज़रूर सुनाया जाए. यह साफ तौर पर समझौते का उल्लंघन है.

यह विवाद शुरू होने के बाद नज़रुल के परिवार के एक और सदस्य ने समझौते को सार्वजनिक करने की मांग उठाई है.

धुन को बदलने पर विरोध

काज़ी अनिर्वाण की बहन और कवि नज़रुल की नातिन अनिंदिता काज़ी ने अमेरिका से फोन पर बीबीसी बांग्ला से कहा, "दादा जी के गीत के इस्तेमाल पर एआर रहमान के साथ ऐसा कोई समझौता हुआ है, इतनी बड़ी बात मां या मेरे भाई ने इन दो वर्षों के दौरान मुझे नहीं बताई."

"मां जिन छात्राओं के साथ तमाम बातें साझा करती थीं, उनको भी इस बारे में कुछ नहीं बताया. इससे मैं हैरान हूं. मेरे भाई उस समझौते को सार्वजनिक क्यों नहीं करते? उससे तमाम बातें साफ हो जाएंगी. इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि मेरी मां दादा जी के गीत के धुन बदलने या उसे रिक्रिएट करने की इजाजत देगी."

ढाका में रहने वाली काज़ी नज़रुल इस्लाम की नातिन खिलखिल काज़ी ने भी धुन को बदलने पर विरोध जताया है.

उन्होंने बांग्लादेश में पत्रकारों से कहा कि एआर रहमान ने जिस तरह गीत की धुन बदली है, मैं उसे कबूल नहीं कर पा रही हूं. उन्होंने इसे एक अपराध करार दिया है.

इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप

कवि के परिवार के सदस्य और नज़रुल विशेषज्ञ ऑस्कर विजेता संगीत निर्देशक एआर रहमान के इस काम को इतिहास से छेड़छाड़ बताते हैं. नज़रुल परिवार का कहना है कि कवि की कृति को बदलने का अधिकार किसी को नहीं है.

कवि के एक अन्य पौत्र काज़ी अरिंदम के मुताबिक, "मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि एआर रहमान जैसे एक संगीत निर्देशक ने ऐसा काम क्यों किया. यह सिर्फ भावनात्मक मुद्दा नहीं है. लौह कपाट तो एक आंदोलन-संग्राम है. उसके लिए मेरे दादा जी को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी. उसी इतिहास को विकृत कर दिया गया."

भारतीय कानून के मुताबिक वर्ष 2036 तक कवि की तमाम शक्तियों का कॉपीराइट उनके परिवार के पास है.

अब नज़रुल परिवार की मांग है कि फिल्म में उनके परिवार के प्रति जो विशेष कृतज्ञता जताई गई है उसे हटा दिया जाए और संभव हो तो उस गीत को ही फिल्म से हटा दिया जाए.

'पिप्पा' फिल्म की टीम का बयान

लेकिन यह साफ़ नहीं है कि अगर प्रोडक्शन कंपनी ने समझौते का उल्लंघन किया है तो वह लोग कानूनी कार्रवाई करेंगे या नहीं.

हालांकि 'पिप्पा' फिल्म बनाने वालों की टीम ने एक बयान जारी कर कहा है कि 'कारार ओय लौह कपाट' के गाने को लेकर चल रही मौजूदा बहस के मद्देनजर फिल्म 'पिप्पा' के निर्माता, निर्देशक और संगीतकार यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि गाने की हमारी प्रस्तुति एक ईमानदार कलात्मक व्याख्या है, जो इस संबंध में जरूरी अधिकार हासिल करने के बाद ही की गई थी.

इसमें कहा गया है, "मूल रचना और स्वर्गीय श्री काज़ी नज़रुल इस्लाम के प्रति हमारे मन में गहरा सम्मान है, जिनका भारतीय उपमहाद्वीप के संगीत, राजनीतिक और सामाजिक माहौल में अतुलनीय योगदान है. यह एलबम उन पुरुषों और महिलाओं को श्रद्धांजलि के तौर में बनाया गया था जिन्होंने बांग्लादेश की मुक्ति के लिए और स्वतंत्रता, शांति और न्याय के लिए उनके संघर्ष की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपना पूरा जीवन बिता दिया."

एआर रहमान ने कैसी धुन दी है

यूट्यूब पर अपलोड किए गए गाने की शुरुआत में लोक संगीत के कुछ वाद्य यंत्रों के इस्तेमाल के बाद अपरिचित धुन में 'कारार ओई लौह कपाट' गीत को गाया गया है.

सोशल मीडिया पर कई लोगों ने टिप्पणी की है कि ऑस्कर विजेता संगीतकार शायद गीत का मूल सार समझने में नाकाम रहे हैं.

कोलकाता के कलाकार बाबजी सान्याल कहते हैं, "इस गीत या रवींद्रनाथ-नज़रुल के गीतों के साथ लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं. रहमान ने जिस तरह धुन बनाई है, उसके साथ गीत का इतिहास और पृष्ठभूमि जरा भी मेल नहीं खाती. उन्होंने गीत को आधुनिक बनाने का प्रयास किया है. लेकिन आखिर इस गीत का एक विकृत रूप सामने ले आए हैं."

ढाका के लोकप्रिय संगीतकार मकसूदुल हक़ नब्बे के दशक में आधुनिक वाद्य यंत्रों के इस्तेमाल की सहायता से रवींद्र संगीत गाकर काफी विवाद में फंसे थे. लेकिन उन्होंने भी धुन बदलने का विरोध किया है.

मकसूदुल हक कहते हैं, "अगर कोई किसी लोकप्रिय गीत की धुन को बरकरार रखते हुए वाद्य यंत्रों की सहायता से प्रयोग करना चाहता है तो कर सकता है. लेकिन इस दौरान अगर मूल धुन ही नष्ट हो जाए तो लोगों के लिए यह आपत्तिजनक हो सकता है."

सोशल मीडिया में भारी विवाद

फिल्म के गाने के यूट्यूब पर अपलोड होते ही भारत और बांग्लादेश में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले लोग संगीत निर्देशक रहमान की जमकर आलोचना कर रहे हैं.

इनमें से ज्यादातर लोग धुन बदलने के लिए रहमान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. उस गीत को जिन बंगाली कलाकारों ने स्वर दिया है, उनकी भी आलोचना हो रही है.

गायिका फहमीदा नबी ने लिखा है, "एआर रहमान खुद एक बेहतरीन संगीतकार हैं. फिल्म की जरूरत के हिसाब से वे अपनी धुन पर दूसरा कोई गीत लिख सकते थे. या फिर वे सही धुन के साथ गीत का इस्तेमाल कर सकते थे. मैं राष्ट्रकवि के इस अपमान की तीव्र निंदा करती हूं."

लेखिका तमन्ना फिरदौस ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है, "एआर रहमान की ओर से तैयार धुन में लौह कपाट गीत को सुन कर लगा कि उनको इस गीत और इसके साथ बंगालियों के भावनात्मक संबंध के बारे में कोई जानकारी नहीं है. अगर उनको जानकारी है भी तो इस पर ध्यान नहीं दिया है.किसी ऑस्कर विजेता कलाकार के ऐसे अहंकारी गैर-पेशेवर आचरण को स्वीकार नहीं किया जा सकता."

लेखिका का कहना है कि ऐसे गैर-पेशेवर आचरण के लिए उनको पूरी बंगाली जाति से क्षमा कर दुख जताना चाहिए.

नज़रुल संगीत कलाकार फिरदौस ने टीवी चैनल 'आई' को एक इंटरव्यू में कहा है, "नए लोगों का काम कुछ नया ही होगा. यह अगर एक तरह का फ्यूजन भी होता तो मुझे आपत्ति नहीं थी. लेकिन इसकी धुन इतनी अलग है कि अचानक सुनने पर पता ही नहीं चलेगा कि यह कौन सा गीत है. लेकिन पहचानने में दिक्कत होने पर सवाल पैदा होता है. वे नज़रुल के गीत पर काम करें, इससे बेहतर कोई बात नहीं हो सकती. लेकिन समस्या यह है कि गीत के बोल तो नज़रुल के हैं, लेकिन धुन अलग हो गई है."

थोड़ी पड़ताल करने पर भिन्न विचार भी देखने को मिल रहे हैं. इस समूह में किसी को रहमान की ओर से तैयार धुन खराब नहीं लगी है. कुछ की दलील है कि कलाकार को किसी भी गीत पर प्रयोग करने की आजादी है.

कोलकाता में फेसबुक पर सक्रिय पत्रकार जयंत चौधरी ने एक मिसाल देते हुए कहते हैं, "दिनेर शेषे घूमेर देशे नामक रवींद्र संगीत की धुन तो पंकज कुमार मल्लिक ने बनाई थी."

उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा है, "दिक्कत कहां है? एक धुन अच्छी लगी है और एक नहीं. बस. खराब लगी है तो मत सुनें. अगर किसी ने नज़रुल की लिखी कविता पर नई धुन का इस्तेमाल किया है तो इस पर इतना हल्ला क्यों मचा है? निजी हमले क्यों किए जा रहे हैं? पसंद नहीं है तो साफ कहें. आलोचना करें. रहमान को धुन और संगीत पर सलाह दें. लेकिन इस हाहाकार और बंगाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उदय का कारण क्या है?"

बांग्लादेश की तानिया नबर ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है, "हमें चूंकि अपनी क्षमता पर संदेह है. इसी वजह से कोई अगर किसी गीत को खराब तरीके से गाता है तो हम मातम मनाने लगते हैं. अगर कोई सोचता है कि किसी और देश में दूसरी भाषा के किसी संगीतकार के नई धुन बनाने से नज़रुल का अपमान होता है तो मुझे नहीं लगता कि ऐसे लोग नज़रुल की महत्ता को भी समझ पाए हैं. नज़रुल की कृतियों का संरक्षण कर उनको वैश्विक पटल पर पहुंचाना ही उनके प्रति सही सम्मान होता."

हालांकि इसके साथ ही तानिया ने यह भी लिखा है कि एआर रहमान की धुन के साथ वह गीत उनको बिल्कुल पसंद नहीं आया है.

बांग्लादेश के कवि और साहित्यकार ब्रात्य राईसू कहते हैं, "इस गीत की उम्र 102 वर्ष हो गई है. ऐसे में अब इसे कोई किसी भी धुन, यहां तक कि रवींद्र संगीत की धुन में भी, में गा सकता है. इसे रोकने की मांग सही नहीं है."

ब्रात्य ने फेसबुक पर लिखा है, ''आप लोग एआर रहमान की ओर से यार लौह कपाट को सुन कर बैठे क्यों हैं. आप नजरुल की धुन में असली गीत को शेयर कर सकते हैं. उन्होंने यह भी लिखा है कि उनको कभी रहमान के गीत पसंद नहीं आते.''

बांग्लादेश में रंगमंच कलाकार रौनक हसन को पहली बार गीत को सुनकर भले अच्छा नहीं लगा था. लेकिन कई बार सुनने के बाद इतना खराब भी नहीं लग रहा है.

उन्होंने फेसबुक पर लिखा है, "यह ध्यान रखना होगा कि फिल्म में किस पृष्ठभूमि में इसका इस्तेमाल किया गया है. इतनी नाराजगी जताने की बजाय हम इसकी अनदेखी कर सकते हैं. लेकिन इस कदर विवाद होने की स्थिति में भविष्य में कोई प्रयोग करने का साहस ही नहीं करेगा."

ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन का गीत

अर्को देब ने खासकर वर्ष 1920 से 130 के दशक के दौरान काज़ी नज़रुल इस्लाम के जीवन पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोध किया है. 'कारा लौह कपाट' उसी समय की रचना है.

देव ने बीबीसी बांग्ला से कहा, "उस समय कवि सेना से लौट कर कलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट इलाके में रहते थे. कम्युनिस्ट नेता मुज़फ़्फ़र अहमद भी उनके साथ रहते थे. मुझे उस दौर के इतिहास से पता चला कि काज़ी नज़रुल ने देशबंधु चित्तरंजन दास की पत्नी बासंती दास के अनुरोध पर कारार ओई लौह कपाट गीत की रचना की थी. उसकी पृष्ठभूमि यह थी—ब्रिटिश पुलिस ने 10 दिसंबर 1921 को देशबंधु को गिरफ्तार कर लिया था.''

आगे उन्हें लगा, ''उनकी ओर से संचालित बांग्लार कथा पत्रिका का जिम्मा पत्नी बासंती देवी ने संभाल लिया. कवि नज़रुल चित्तरंजन दास के बेहद करीबी थे. इसके बाद बासंती देवी ने तय किया कि अगले अंक में देशबंधु के करीबी लोगों की रचनाएं छापेंगी. इसी सिलसिले में उन्होंने काज़ी नज़रुल से भी एक लेखा देने का अनुरोध किया. उन्होंने कागज़ के एक टुकड़े पर वह कविता लिख कर सुकुमार रंजन दास नामक एक व्यक्ति के हाथों बासंती देवी तक भिजवा दिया."

देब बताते हैं कि वह गीत पत्रिका के 20 जनवरी, 1922 के अंक में छपा था. इसका मतलब यह हुआ वह कविता दिसंबर, 1921 के आखिर से जनवरी के पहले दो सप्ताह के दौरान ही लिखी गई थी.

तब कवि की उम्र साढ़े बाइस साल थी. इस कविता को वर्ष 1922 में भांगार गान नामक पुस्तक में संकलित किया गया था. अगर आप ध्यान दें तो कवि ने इसमें 'ट' के एक अनुप्रास का इस्तेमाल किया था. आमतौर पर रैप संगीत में ऐसा देखने में आता है.

पहली बार 'भांगार गान' में संकलित

देब बताते हैं, "रैप हमेशा विरोध की धुन रहा है. नज़रुल ने भी तो ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन में उसी विरोधी छंद का इस्तेमाल आम लोगों के मन को आंदोलित करने के लिए किया था. वे हाल में सेना से लौटे थे. इसलिए हमें उस गीत की धुन में एक मार्चिंग सॉन्ग की लय भी मिलती है. गाने की धुन में तेज़ गति वाले दादरा का इस्तेमाल किया गया था. 'भांगार गान' नामक जिस पुस्तक में पहली बार इस गीत को संकलित किया गया था उसे ब्रिटिश सरकार ने बैन कर दिया था."

उन्होंने बताया, "यही वजह है कि भारत की आजादी से पहले तक यह गीत किसी लिखित संकलन में नहीं था."

अर्को कहते हैं कि "करीब 25 वर्षों तक इस गीत की धुन लोगों के मन में बस गई थी. नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर कई स्वाधीनता सेनानी जेल में रहने के दौरान नियमित रूप से इस गीत को गाते थे."

देश की आजादी के बाद वर्ष 1949 में पहली बार इस गीत को रिकॉर्ड किया गया. गिरीन चक्रवर्ती की आवाज़ में कोलंबिया रिकॉर्ड कंपनी की ओर से तैयार वह रिकॉर्ड जून 1949 में बाजार में आया.

उसी साल चट्टोग्राम अस्त्रागार लुंठन फिल्म में पहली बार गिरीन चक्रवर्ती की आवाज़ में ही उस गीत का इस्तेमाल किया गया था.

वह कहते हैं कि इस गीत के साथ जुड़े इतिहास को ही विकृत कर दिया गया है. रहमान के गीत का जैसा प्रचार होता है उससे यह गीत पूरी दुनिया में फैल जाएगा. यानी अगली पीढ़ी काज़ी नज़रुल के इस कालजयी गीत को सुनेगी और शायद इसे ही असली धुन मानती रहेगी.

प्रोडक्शन कंपनी की टिप्पणी नहीं

काज़ी नज़रुल रहमान के गीत की धुन बदलने के लिए ज्यादातर लोग रहमान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.

लेकिन कवि के पौत्र काज़ी अनिर्वाण से लेकर नज़रुल पर शोध करने वाले अर्को देब जैसे कई लोगों का कहना है कि रहमान तो बांग्ला जानते ही नहीं, ऐसे में वे गीत के सही कार को समझने में गलती कर ही सकते हैं.

काजी अनिर्वाण का सवाल है, "लेकिन जिन लोगों ने इस गीत को स्वर दिया है वे तो बंगाली हैं. वे लोग तो इस गीत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में बता सकते थे कि असली धुन कौन सी है. क्या उनको यह बात कहने का साहस नहीं हुआ?"

71 की गरीबपुर के युद्ध की घटना पर बनी फिल्म

हाल में रिलीज होने वाली जिस फिल्म में इस गीत के धुन बदलने पर विवाद हो रहा है. वह 1971 के मुक्ति युद्ध की एक सच्ची घटना पर आधारित है.

यह भारतीय सेना के रिटायर्ड ब्रिगेडियर बलराम सिंह मेहता के संस्मरण 'द बर्निंग चैफ़ीज़' पर आधारित है.

अमेरिका में बने एम 24 चैफीज टैंक का इस्तेमाल उस समय पाकिस्तानी सेना करती थी.

गरीबपुर युद्ध के नाम से मशहूर भारत और पाकिस्तानी सेना के दो टैंक स्क्वाड्रन के बीच हुए उस भयावह युद्ध का ब्योरा ब्रिगेडियर मेहता की पुस्तक के अलावा प्रोफेसर मुंतसिर मामून के संपादन में छपी मुक्ति युद्ध कोष के छठे खंड में भी छपा है. मुक्ति युद्ध कोष में लिखा है, "गुमनाम गांव गरीबपुर जसोर बैंक से 11 किमी और भारत की सीमा से करीब छह किमी पूर्व में स्थित है.

21 नवंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने जब मित्र देश की रक्षा चौकियों पर हमला किया तो दोनों पक्षों के बीच भयावह युद्ध हुआ. इसमें रूस में बने पीटी-76 टैंक स्क्वाड्रन के प्रमुख मेजर दलजीत सिंह नारंग के शहीद होने के बाद सेना की टुकड़ी का जिम्मा कैप्टन बलराम सिंह मेहता को मिला.

भारतीय सेना ने आमने-सामने की लड़ाई में पाकिस्तानी स्क्वाड्रन के 14 टैंकों को नष्ट कर दिया. पाकिस्तानी सेना के कई जवान भी मारे गए या घायल हो गए. भारतीय सेना 19 जवान शहीद हुए और 44 घायल हुए. उसके दो टैंक नष्ट हो गए."

गरीबपुर युद्ध में भारतीय सेना के प्रमुख और बाद में ब्रिगेडियर पद पर पहुंचने वाले बलराम सिंह मेहता ने भारतीय मीडिया को दिए गए इंटरव्यू में बताया है कि उन्होंने लड़ाई के मैदान में अपने सहयोद्धाओं से वादा किया था कि वे इस युद्ध में उनके असीम साहस की कहानी को कलमबंद करेंगे.

इस युद्ध के बहुत साल बाद वर्ष 2015 में अपना यूनिट के 50 साल पूरे होने के मौके पर उन्होंने द बर्निंग चैफीज शीर्षक संस्मरणात्मक पुस्तक लिखी. पिप्पा फिल्म उसी पुस्तक के आधार पर बनी है.

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