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पुणे पोर्श कार हादसा: कैसे इस मामले ने सिस्टम में 'सांठगांठ' को किया उजागर
- Author, मयूरेश कोण्णूर
- पदनाम, बीबीसी मराठी
19 मई, 2024 को पुणे के कल्याणी नगर इलाके में एक तेज़ रफ़्तार पोर्श कार ने बाइक पर सवार दो लोगों को कुचल दिया.
हादसे में दोनों की मौके पर ही मौत हो गई. मरने वालों में एक लड़का था और एक लड़की. जिस कार से ये एक्सीडेंट हुआ उसका रजिस्ट्रेशन भी नहीं था.
इस हादसे के बाद जो-जो हुआ, जो-जो बातें सामने आईं, कौन-कौन सी बातें छिपाई गईं, उन सब ने सरकारी एजेंसियों के काम करने के तरीक़े पर सवालिया निशान उठा दिए.
इतने गंभीर हादसे के बावजूद अभियुक्त को कुछ ही घंटों में ज़मानत मिल गई. जिसके बाद से कोर्ट और जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के साथ-साथ पुलिस की भूमिका पर भी पहले दिन से ही सवाल उठ रहे हैं.
पुणे की सड़कों पर बिना रजिस्ट्रेशन और नंबर प्लेट के घूम रही कारों से सड़क सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं.
साथ ही पब में देर रात तक लोगों को शराब परोसना, बिना लाइसेंस वाले पब और बार ने प्रशासन पर सवाल उठाए तो वहीं जिस तरह से अभियुक्त का ख़ून सैंपल बदलने की बात सामने आ रही है, उससे स्वास्थ्य विभाग की कार्यप्रणाली भी संदेह के घेरे में आ रही है.
अभियुक्त एक प्रभावशाली और रईस परिवार से है. लोग ये भी आरोप लगा रहे है कि इसी वजह से पूरा प्रशासनिक अमला उसे बचाने में जुटा है.
इस एक हादसे ने इन सब चीज़ों को उजागर कर दिया है.
सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि कैसे 'एक बड़े बिल्डर का बेटा आपराधिक गतिविधि में शामिल होता है और सरकारी अधिकारी उसे बचाने के लिए क़ानून के बाहर जाकर काम करते हैं.'
इस मामले की राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में चर्चा हुई. इस केस में हर रोज़ नई चौंकाने वाली जानकारी सामने आ रही है जिसके कारण लोगों के मन में सिस्टम को लेकर संदेह गहराते जा रहे हैं.
अब ताज़ा जानकारी ये सामने आई कि अभियुक्त ने शराब पी थी या नहीं, ये जांचने के लिए उसके ख़ून का जो सैंपल लिया गया, उस सैंपल को सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने फेंक दिया और उसकी जगह दूसरा नमूना ले लिया.
किसी फिल्म की स्क्रिप्ट की तरह कहानी नई चौंकाने वाली जानकारी के साथ सामने आ रही है और एक-एक करके नए किरदार सामने आते जा रहे हैं.
पुलिस की भूमिका
सबसे पहले मामले के केंद्र में पुलिस थी. फिर जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड जिसने अभियुक्त को सज़ा के तौर पर 300 शब्दों का निबंध लिखने का आदेश दिया.
फिर ससून अस्पताल के डॉक्टर जिन पर ख़ून के नमूने बदलने का आरोप है. फिर अभियुक्त के पिता और दादा जिन पर सबूत नष्ट करने की और ड्राइवर के अपहरण की कोशिश का आरोप है.
फिर परिवार के सदस्य, विधायकों का रात में पुलिस स्टेशन पहुंचना, एक सरकारी डॉक्टर की नियुक्ति जिस पर ख़ून के नमूने फेंकने का आरोप लगा.
तो सवाल ये उठ रहे हैं कि इस मामले में अगर कुछ नेताओं और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आवाज़ न उठाई होती, अगर सोशल मीडिया के ज़रिए आम लोगों की तीखी प्रतिक्रिया सामने न आई होती तो क्या इस मामले पर जो कार्रवाई हुई, वो हो पाती? ये सवाल उठना अब लाज़िमी हो गया है.
पुलिस और न्यायपालिका
पूरे मामले पर मचे हंगामे के क़रीब एक हफ़्ते बाद येरवडा पुलिस स्टेशन के पुलिस निरीक्षक राहुल जगदाले और सहायक पुलिस निरीक्षक विश्वनाथ टोडकरी को निलंबित कर दिया गया.
पुणे पुलिस कमिश्नर ने कहा कि प्रारंभिक जांच के बाद ये कार्रवाई की गई है क्योंकि दोनों पुलिस अधिकारियों ने घटना की जानकारी मिलने पर वायरलेस पुलिस कंट्रोल रूम को समय पर सूचित नहीं किया.
अधिकारियों के ख़िलाफ़ इस कार्रवाई से यह साफ़ हो गया कि घटना वाले दिन पुलिस को लेकर जो संदेह व्यक्त किए जा रहे थे वो निराधार नहीं थे. इस मामले में पुलिस से देरी हुई थी.
'टाइम्स ऑफ इंडिया' की रिपोर्ट के मुताबिक़ , पुलिस उपायुक्त ने कहा है कि इन दोनों अधिकारियों ने घटना की सूचना देने में देरी की और अपने कर्तव्य निर्वहन में लापरवाही की.
पुलिस कमिश्नर के मुताबिक़ अभियुक्त के ब्लड सैंपल भी देर से लिए गए. घटना सुबह 3 बजे हुई, लेकिन सैंपल लेने में 7-8 घंटे की की देरी हुई. यह गलती क्यों हुई, इसके पीछे क्या मक़सद है, यह जांच का हिस्सा है.
बड़ा सवाल ये था कि शुरुआती एफआईआर में ही गैर इरादतन हत्या की धारा 304 क्यों नहीं लगाई गई.
इस मामले में शुरू से आंदोलन कर रहे कांग्रेस विधायक रवींद्र धांगेकर ने आरोप लगाया कि इस केस में गंभीर धाराएं लोगों की तीखी प्रतिक्रिया के बाद में लगाई गईं, पहले नहीं.
इन तमाम संदेहों के बीच एक और चौंकाने वाली बात सामने आई, जिसके बारे में ख़ुद पुलिस ने सार्वजनिक तौर पर बताया.
घटना के बाद परिवार के ड्राइवर ने पुलिस को ये बयान दिया था कि कार अभियुक्त नहीं बल्कि वो चला रहा था लेकिन पुलिस ने कहा कि जांच से सामने आया कि ड्राइवर का बयान ग़लत था.
पुलिस ने कहा, "अभियुक्त के परिवार ने ये दिखाने की कोशिश की कि कार अभियुक्त नहीं बल्कि ड्राइवर चला रहा था."
पुलिस कमिश्नर अमितेश कुमार ने कहा कि इसके लिए अभियुक्त के परिवार ने ड्राइवर का अपहरण कर लिया और उस पर अपराध अपने ऊपर लेने का दबाव डाला.
इस मामले में कार्रवाई जारी है और अभियुक्त के परिवार वालों को भी हिरासत में ले लिया गया है.
पुलिस की कार्रवाई से साफ़ है कि सबूत मिटाने की कोशिश की गई है. इसलिए, इसमें कौन शामिल था, क्या सिस्टम में कोई था, जिसने मदद की, यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है. इसका जवाब अभी तक नहीं दिया गया है.
सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी सुरेश खोपड़े के मुताबिक़, इस अकेले मामले में न सिर्फ़ पुलिस के स्तर पर गंभीर ग़लतियां हुई हैं बल्कि सिस्टम की ख़ामियां भी सामने आई हैं जिन्हें दुरुस्त करने की ज़रूरत है.
सुरेश खोपड़े कहते हैं, "देरी के लिए दो पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया. लेकिन केवल उसी से ज़िम्मेदारी का आकलन नहीं किया जा सकता. वरिष्ठ अधिकारियों के स्तर पर क्या किया गया है, यह भी देखा जाना चाहिए."
कानून के तहत उपलब्ध शक्तियों के मद्देनजर, वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक या पुलिस आयुक्त जैसे अधिकारियों को प्रारंभिक चरण में समग्र मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए स्थिति को अपने हाथों में लेना चाहिए था. खोपड़े कहते हैं, "सीनियर पुलिस अधिकारियों के स्तर पर भी एक्शन लेने में देरी हुई."
लेकिन खोपड़े ने उम्मीद ज़ाहिर की कि इस मामले के कारण शहर की समग्र पुलिस व्यवस्था के स्तर पर शायद कुछ बदलाव हो.
वो कहते हैं, "पुणे मामले में, पुलिस जांच बाद में हुई क्योंकि समाज की, लोगों की बेहद तीखी प्रतिक्रिया थी, दबाव था. अगर पुलिस व्यवस्था को वार्ड या मोहल्ला स्तर पर ले जाया जाए और लोगों को शामिल किया जाए, तो पुलिसिंग भी प्रभावी होगी. पुणे मामला ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि यह व्यवस्था परिवर्तन आवश्यक है."
पुलिस व्यवस्था के साथ-साथ न्यायपालिका के निर्णयों पर भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ हुईं.
अभियुक्त को तत्काल ज़मानत, 'निबंध लेखन' जैसी सज़ा और अन्य शर्तें, ज़मानत रद्द होने और अभियुक्त को सुधार गृह भेजने पर जनता का आक्रोश, इन सबने और भी सवाल खड़े कर दिए.
खुद राज्य के गृह मंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के आदेश को 'समझ से परे' बताते हुए सार्वजनिक तौर पर नाराज़गी जताई थी.
यहां मुद्दा यह है कि इस अकेले मामले में जांच और न्याय से जुड़ी एजेंसियों की कार्रवाई पर सवाल उठाए गए हैं.
स्वास्थ्य प्रणाली पर सवाल
पुलिस की कार्रवाई और देरी पर विवाद चल ही रहा था कि एक और चौंकाने वाली ख़बर सामने आई कि इस मामले में पुणे के ससून सरकारी अस्पताल के दो डॉक्टरों को गिरफ्तार किया गया है.
आरोपों के मुताबिक़ डॉक्टर ने एक्सीडेंट में शामिल अभियुक्त के ख़ून के सैंपल को फेंक दिया था और उसकी जगह किसी दूसरे शख्स के ख़ून के सैंपल को जांच के लिए भेज दिया.
पुणे के ससून अस्पताल के फॉरेंसिक विभाग के डॉक्टर अजय तावरे और डॉक्टर श्रीहरि हल्नोर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.
साथ ही यहां काम करने वाले एक कर्मचारी अतुल घटकंबले को भी गिरफ्तार किया गया है. पुलिस के मुताबिक, मक़सद साफ़ लग रहा है कि अभियुक्त के ख़ून में अल्कोहल का पता ना लगे.
पुलिस आयुक्त अमितेश कुमार ने कहा, "जब हमने नाबालिग अभियुक्त के ख़ून का ताज़ा नमूना लिया और उसे अस्पताल में भेजा, तो हमें उसकी रिपोर्ट से पता चला कि जो नमूना ससून अस्पताल से रिपोर्ट किया गया था वह आरोपी के ख़ून का नहीं था. इसके बाद, हमने डॉक्टर को हिरासत में लिया. इस साजिश में तावड़े और उसके साथी शामिल थे."
डॉक्टर अजय तावरे ससून के फोरेंसिक विभाग के प्रमुख हैं जबकि डॉक्टर हल्नोर वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं.
अभियुक्त के खून के नमूने फेंकना और इसमें न केवल पुणे ज़िले बल्कि राज्य के एक महत्वपूर्ण सरकारी अस्पताल के वरिष्ठ अधिकारी का शामिल होना, बताता है कि मामला कितना गंभीर हैं. अभियुक्त को बचाने के लिए कितनी प्लानिंग की जा रही थी.
इस जांच से जुड़े पुलिस अधिकारी की जानकारी के मुताबिक, 19 मई की सुबह अभियुक्त का ब्लड सैंपल लिए जाने से पहले उसके पिता और डॉक्टर तावरे के बीच फोन पर दस से ज्यादा बार बातचीत हुई थी. ये बातचीत फेसटाइम और वॉट्सऐप के ज़रिए की गई है. कुछ चैट भी किए गए.
पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि क्या इसके लिए किसी पैसे का लेन-देन हुआ था?
इस मामले में राज्य सरकार ने ससून अस्पताल की जांच के आदेश दिए हैं.
ससून अस्पताल में इन गड़बड़ियों का घालमेल कोई नई बात नहीं है. हाल ही में हुई कुछ घटनाओं से अस्पताल और स्वास्थ्य विभाग हिल गया है.
सबसे चर्चित 2023 का ललित पाटिल केस है.
इस ड्रग तस्करी मामले का अभियुक्त ससून अस्पताल से भाग गया था. फिर ये जानकारी सामने आई कि उसका अस्पताल से ही नेटवर्क चल रहा था.
इसके बाद गठित जांच कमेटी ने तत्कालीन अधीक्षक डॉक्टर संजीव ठाकुर को दोषी पाया. फिलहाल उन्हें पद से हटा दिया गया है और विभाग के भीतर जांच चल रही है.
इस घटना के साथ ही ये अस्पताल हाल के दिनों में डॉक्टरों की शराब पार्टी और रैगिंग की शिकायतों को लेकर भी सुर्खियों में रहा है.
लेकिन पहले ललित पाटिल और अब डॉक्टर तावड़े के कारण अस्पताल गंभीर सवालों के घेरे में आ गया है.
पुणे के एक्सीडेंट मामले पर शुरू से नज़र रखने वाली और इसके लिए विरोध प्रदर्शन करने वाली फ्रीलांस पत्रकार विनीता देशमुख का मानना है कि ससून अस्पताल में जो हुआ वह पुलिस व्यवस्था में देरी से भी ज्यादा गंभीर है.
विनीता देशमुख कहती हैं, "जब इस तरह की चीजें होती हैं तो हमें पुलिस पर शक होता है. फोकस पुलिस पर ही रहता है. लेकिन इस बार जो ज्यादा गंभीर है वो है डॉक्टरों की हरकतें. ससून इतना बड़ा अस्पताल है. वहां बड़े डॉक्टर हैं. उनमें से कुछ ने बताया मुझे इस बात पर शर्म आ रही है कि ये क्या हुआ. ये सिर्फ पैसे के लिए इस स्तर तक चले गए? जिनके पास पैसा है उनके लिए ये कोई रिपोर्ट दे सकते हैं. तो अब जो हुआ है वो कितना गहरा है ये कोई नहीं समझ सकता."
राजनीतिक एंगल
पुणे पोर्श दुर्घटना मामले में अभियुक्त के परिवार के कथित राजनीतिक संबंधों पर पहले दिन से ही चर्चा हो रही है. नई बातें सामने आ रही हैं.
सबसे पहले इस मामले में एनसीपी (अजित पवार गुट) के वडगांव शेरी के विधायक सुनील टिंगरे का नाम सामने आया. हादसे के बाद टिंगरे तुरंत घटनास्थल और पुलिस स्टेशन भी गए.
अगले दिन जब अभियुक्त को ज़मानत मिली और पुलिस जांच में देरी की बात सामने आई तो मामला टिंगरे की ओर मुड़ गया.
उन पर अभियुक्त के परिवार से संबंध रखने और राजनीतिक हस्तक्षेप का आरोप लगा. हलांकि टिंगरे ने कहा कि उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया था.
लेकिन ससून अस्पताल के डॉक्टर अजय तावरे की गिरफ्तारी के बाद एक पत्र सामने आया कि सुनील टिंगरे ने उन्हें इस अस्पताल के अधीक्षक पद पर नियुक्त करने के लिए इस विभाग के मंत्री हसन मुशरिफ़ से सिफ़ारिश की थी.
विवाद इसलिए शुरू हुआ क्योंकि मुशरिफ़ ने उस पत्र पर मंजूरी के तौर पर एक टिप्पणी भी लिखी थी. मामला राज्य कैबिनेट तक पहुंच गया.
ससून अस्पताल के अधिकारियों की जांच की जा रही है. लेकिन यह सब चल ही रहा था कि फिलहाल यहां अधीक्षक पद का कार्यभार संभाल रहे डॉक्टर विनायक काले को आनन-फानन में जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया है. उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी मंत्री हसन मुशरिफ के नाम का भी ज़िक्र था.
बुधवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब डॉक्टर काले से गिरफ्तार डॉक्टर तावरे की नियुक्ति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मंत्री मुशरिफ की ओर इशारा करते हुए कहा कि 'मुख्यमंत्री के आदेश से नियुक्ति का आदेश दिया गया था.'
जब इस मामले की जांच चल रही थी तो चर्चा थी कि पुणे के एक बड़े नेता ने पुलिस को फोन किया था. लेकिन अब शिवसेना (उद्धव ठाकरे) की उपनेता सुषमा अंधारे ने आरोप लगाया है कि डॉक्टर अजय तावरे की जान को खतरा है और उनका सीधा संबंध मंत्रालय से है. उन्होंने ये भी एलान किया है कि वो 4 जून के बाद और भी चौंकाने वाली बातें सामने रखेंगी.
आरटीओ, स्थानीय निकाय और आबकारी महकमा
पुणे पोर्श कार हादसा मामले में कई विभागों की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं.
उदाहरण के लिए, रोड ट्रांसपोर्ट विभाग. जिस पोर्शे कार ने दोनों युवकों को कुचला, वह कुछ महीनों से पुणे में बिना रजिस्ट्रेशन और नंबर प्लेट के चल रही थी लेकिन किसी ने उसे नहीं रोका.
इस पर आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस का भी ध्यान नहीं गया. लोग ये सवाल पूछ रहे हैं कि इतनी शानदार कार सिस्टम की नज़रों से कैसे बच सकती है?
पुलिस ने इस नाबालिग अभियुक्त को शराब परोसने वाले बार के ख़िलाफ़ कार्रवाई की. ऐसे में यहां लाइसेंस देने वाले उत्पाद शुल्क विभाग पर भी सवालिया निशान खड़ा हो गया है.
पुणे और अन्य शहरों में भी बिना लाइसेंस के पब और बार चलने की समस्या नई नहीं है.
इनका 'नेक्सस' कैसे काम करता है, इसकी भी ख़बरें आती रहती हैं और सामाजिक कार्यकर्ता आरोप भी लगाते रहते हैं. इस केस के चलते वह एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है.
पुणे का यह मामला सामने आया और फिर पुणे नगर निगम ने ऐसे पब और बार के अनधिकृत निर्माणों को खोजना और उन्हें बंद कराना शुरू कर दिया.
आबकारी विभाग ने आठ दिनों में 50 से ज्यादा बार और पब पर कार्रवाई की है. यातायात पुलिस ने देर रात तक महत्वपूर्ण सड़कों पर अधिक चौकियां बनाई हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी व्यक्ति शराब पीकर गाड़ी नहीं चला रहा हो.
सवाल सिर्फ ये है कि हादसे और दो लोगों की मौत और इतने हंगामे, शोर-शराबे और विवाद के बाद ये सब क्यों हुआ? इन महकमों ने इसे पहले क्यों नहीं देखा? या इसे नजरअंदाज कर दिया गया?
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