You’re viewing a text-only version of this website that uses less data. View the main version of the website including all images and videos.
बाइडन बनाम ट्रंप: भारत, चीन, रूस, इसराइल जैसे देश कैसे देख रहे हैं अमेरिकी चुनाव को
जब भी अमेरिकी लोग अपने राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं, दुनिया भर की नज़रें उस चुनाव पर टिकी होती हैं.
अमेरिकी विदेश नीति और व्हाइट हाउस के कदम से दुनिया भर के अलग-अलग हिस्सों पर प्रभाव पड़ता है.
इसलिए गुरुवार को जब जो बाइडन और डोनाल्ड ट्रंप के बीच राष्ट्रपति चुनाव को लेकर पहली बहस हुई तब निश्चित तौर पर उसमें दुनिया भर में अमेरिकी प्रभाव की भूमिका देखने को मिली.
लेकिन इस चुनाव का केवल यूक्रेन, इसराइल और ग़ज़ा पर असर नहीं होगा.
बीबीसी के विदेश मामलों के आठ संवाददाताओं ने जो बाइडन बनाम डोनाल्ड ट्रंप के बीच होने वाले इस चुनाव को लेकर दुनिया भर में देखी जा रही हलचलों को आंकने की कोशिश की है.
भारत: कुछ ख़ास बदलाव की उम्मीद नहीं
समीरा हुसैन, दिल्ली संवाददाता
अमेरिका की नज़र में भारत की भूमिका अहम है. अमेरिका भारत को भू-राजनैतिक तौर पर चीन के विकल्प या काउंटरपार्ट के तौर पर देखता है.
भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश भी है. भारत ने 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनने का लक्ष्य भी तय किया है.
हाल ही में भारतीय आम चुनावों के बाद नरेंद्र मोदी तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री बने हैं.
हालांकि घरेलू माहौल में लोकतंत्र को खत्म किए जाने और देश की अर्थव्यवस्था को लेकर गलत जानकारी दिए जाने के आरोपों पर सरकार को काफ़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है.
लेकिन इन सब बातों का भारत और अमेरिका के रिश्तों पर कुछ खास असर देखने को नहीं मिला.
वैश्विक नज़रिए से देखें तो नवंबर में होने वाले अमेरिकी चुनावों का भारत पर बहुत असर नहीं पड़ेगा.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दोनों ही उम्मीदवार ट्रंप और बाइडन ने अपनी प्राथमिकताओं के बारे में साफ़ कर दिया है.
अगर बाइडन अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गए तो भी भारत और अमेरिका के बीच जैसे रिश्ते अभी हैं वैसे ही चलते रहेंगे.
इसका मतलब ये है कि दोनों देशों के बीच आपसी कारोबारी संबंध पटरी पर रहेंगे.
बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधिकारिक अमेरिकी दौरे के दौरान उनका रेड कार्पेट वेलकम हुआ था.
मोदी को अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करने का मौका मिला था.
वहीं अगर ट्रंप दोबारा से अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए तो भी भारत और अमेरिका के रिश्तों में बहुत बदलाव नहीं होगा.
हालांकि ऐसी संभावना है कि दोनों देशों के बीच बातचीत के स्तर पर थोड़े बहुद सुर बदले हुए सुनाई दें.
ट्रंप हाल ही में मोदी की तारीफ़ भी कर चुके हैं. साल 2020 में ट्रंप, मोदी के साथ गुजरात का दौर कर चुके हैं जहां हज़ारों लोगों ने उनका स्वागता किया था.
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि अमेरिकी चुनाव का नतीजा चाहे जो रहे, भारत के लिए हालात लगभग एक जैसे ही रहेंगे.
बाइडन या ट्रंप- किसे राष्ट्रपति बनते हुए देखना चाहता है रूस
स्टीव रोज़नबर्ग, संपादक, बीबीसी रूसी सेवा, मॉस्को
अगर कोई भी व्यक्ति खुद बतौर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तरह सोचे कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी पर किसे देखना चाहेगा?
ज़ाहिर है इसका उस शख्स को तो बिलकुल भी नहीं जिसने पुतिन को हत्यारा कहा हो और यूक्रेन का साथ देने की कसम खाई हो. यहां अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन की बात हो रही है.
वहीं, डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन को दी जाने वाली अमेरिकी सैन्य सहायता की आलोचना की थी.
ट्रंप का कहना था कि नेटो का सदस्य देश यूक्रेन रक्षा संबंधी खर्च के प्रावधानों को नहीं मानता है. रूस को उस देश के साथ जो भी चाहे करने का अधिकार है.
हालांकि अक्सर दुनिया को हैरानी में डालने वाले पुतिन ऑन रिकॉर्ड ऐसा कह चुके हैं कि वे व्हाइट हाउस में बाइडन को देखना ज़्यादा पसंद करेंगे. क्योंकि बाइडन के फै़सलों के बारे में पहले से अनुमान लगाना ज़्यादा आसान होता है. हालांकि ज़्यादातर लोग पुतिन के बाइडन पर दिए गए इस तरह के समर्थन और बयान को तंज़ के तौर पर ही देख़ते हैं.
रूस नेटो और यूक्रेन को शक की निग़ाह से देखने वाले ट्रंप से कुछ ख़ास उम्मीद भी नहीं लगा सकता. इसकी वजह यह है कि इससे रूस का भी शायद ही कोई भला होगा. ट्रंप के पहले कार्यकाल में भी रूस को निराशा ही हाथ लगी थी.
साल 2016 में एक रूसी अधिकारी ने बीबीसी रूसी सेवा के संपादक स्टीव रोज़नबर्ग के सामने यह कु़बूल किया था कि उन्होंने ट्रंप की जीत का जश्न सिगार और शैंपेन की एक बोतल के साथ मनाया था.
लेकिन उनके जश्न की यह खु़शी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक सकी. रूसी अधिकारियों को रूस-अमेरिका संबंधों में सुधार की उम्मीद थी, हालांकि इस दिशा में कुछ ख़ास होता हुआ दिखाई नहीं दिया.
कयास लगाए जा रहे हैं कि ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में रूस को निराश नहीं करेंगे. हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में जीत चाहे जिसकी भी हो, लेकिन चुनावों के बाद रूस राजनीतिक अस्थिरता और ध्रुवीकरण के संकेतों पर बारीकी से नज़र रखते हुए इससे फ़ायदा उठाने की कोशिश ज़रूर करेगा.
अमेरिका और चीन के बीच ताइवान को लेकर बड़ी तक़रार
लौरा बिकर, चीन संवाददाता, बीजिंग
बाइडन और ट्रंप, दोनों का नज़रिया चीन को लेकर सख़्ती भरा है. चीन को लेकर दोनों ही उम्मीदवारों की आर्थिक नीतियां एक जैसी हैं. दोनों की ही नीतियों में सस्ते चीनी उत्पादों पर फीस बढ़ाना शामिल है.
लेकिन चीन के क्षेत्रीय प्रभाव को सामना करने में दोनों का तरीक़ा अलग है. बाइडन ने चीन के प्रभाव क्षेत्र में अपने रिश्तों को मज़बूत किया है, इस उम्मीद में कि एक संयुक्त फ्रंट तेज़ी से मुखर होते चीन को एक कड़ा संदेश देगा. वहीं राष्ट्रपति रहते हुए ट्रंप 'बेस्ट डील' की पॉलिसी अपना रहे थे.
उन्होंने ज़्यादा पैसे वसूलने के लिए दक्षिण कोरिया से अमेरिकी सैनिकों को हटाने की धमकी दी थी. बाइडन और ट्रंप के बीच सबसे बड़ा अंतर ताइवान को लेकर है.
कई मौकों पर बाइडन ने शी जिनपिंग के ताइवान को चीन में मिलाने की किसी भी कोशिश के मद्देनज़र ताइवान का साथ देने का भरोसा दिलाया है.
बाइडन ने यह भी कहा है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो वे इसके लिए बल प्रयोग भी करेंगे.
लेकिन दूसरी ओर ट्रंप ने ताइवान पर अमेरिकी व्यवसायों को कमज़ोर करने का आरोप लगाया है और उन्होंने ताइवान को सहायता से संबंधित अमेरिकी बिल का विरोध किया है. ट्रंप के इस कदम के बाद कई लोगों ने सवाल उठाया है कि कि क्या वे ज़रूरत पड़ने पर ताइवान की सहायता के लिए राज़ी होंगे?
हालांकि जब भी अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव होता है तब तीन के पास ऐसा कोई विकल्प मौजूद नहीं होता कि वो किसे पसंद करेगा और किसे नहीं.
चीन के मुताबिक़, ट्रंप चीनी क्षेत्र में अमेरिकी सहयोगियों को कमज़ोर और विभाजित कर सकते हैं. लेकिन उनके फ़ैसलों से ट्रेड वॉर का ख़तरा पैदा हो सकता है.
लेकिन चीन दोबारा से बाइडन के राष्ट्रपति बनने से भी ख़ासा खुश नहीं होगा.
चीन के मुताबिक़, अगर बाइडन दोबारा जीतते हैं तो उनकी कोशिशों से एक नया कोल्ड वॉर शुरू हो सकता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों मे यूक्रेन का बहुत कुछ लगा है दांव पर
गॉर्डेन कोरेरा, सुरक्षा संवाददाता, कीएव
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का सबसे ज़्यादा असर यूक्रेन पर पड़ेगा.
हर कोई ये जानता है कि यूक्रेन के युद्ध में पैसे और हथियार के लिहाज से अमेरिकी मदद कितनी ज़रूरी और अहम है.
हालांकि कुछ लोगों का ये भी मानना है कि कोई कमी होगी तो यूरोप से भी मदद मिलेगी.
लेकिन यूक्रेन में ज़्यादातर लोगों की रुचि अमेरिकी चुनाव में नहीं दिखाई दे रही है. एक यूक्रेनी नागरिक ने इसकी वजह बताते हुए कहा था कि नवंबर अभी काफी दूर है. यूक्रेनी लोगों की बड़ी चिंता रूस के ग्लाइड बम हमले को लेकर है. यूक्रेनी इस बात को लेकर भी चिंता में हैं कि क्या यूक्रेनी सेना रूसी सेना को आगे बढ़ने से रोक सकती है?
यूक्रेनी यह जानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दौरान यूक्रेन को लेकर किस तरह की बातें हो रही हैं.
यूक्रेनी लोग और एक्सपर्ट दोनों ही ये जानते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप युद्ध को खत्म करने और यूक्रेन को दी जा रही सहायता को कम करने के पक्ष में हैं.
कुछ लोगों को यह डर भी है कि ट्रंप यूक्रेन को किसी ऐसे सौदे के लिए भी मज़बूर कर सकते हैं जो देश के लोगों को शायद पसंद ना आए.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि चाहे ट्रंप जीतें या बाइडन, यूक्रेन के लिए मायने यही रखता है कि वे युद्ध में फंसे हुए इस देश के लिए क्या फ़ैसला करते हैं?
हालांकि अगर बाइडन जीत भी गए तो भी यूक्रेन की कठिनाइयां कम नहीं होंगी.
यह बात अंतिम सहायता पैकेज को पारित करने में अमेरिकी कांग्रेस के लिए गए लंबे समय से भी ज़ाहिर होता है.
इसलिए यूक्रेन के लिए तो इस चुनाव में दांव पर बहुत कुछ लगा है. लेकिन यूक्रेन की भूमिका इस चुनाव में केवल एक दर्शक जितनी ही है. हालांकि यूक्रेनी लोगों ने अनिश्चित नतीजों के साथ जीना सीख भी लिया है.
ब्रिटेन के लिए भी कम नहीं है चिंताएं
जेम्स लैंडल, राजनयिक संवाददाता
ब्रिटिश सरकार अमेरिकी चुनाव को कुछ आशंकाओं के साथ देख रही है. एक हद तक ब्रिटेन में अमेरिका के उन संभावित फै़सलों को लेकर लेकर घबराहट है जिनका असर ब्रिटेन पर देखने को मिलेगा.
क्या ट्रंप के व्हाइट हाउस में लौटने से यूक्रेन के लिए अमेरिकी सैन्य समर्थन कमज़ोर हो जाएगा और क्या अमेरिका की व्लादिमीर पुतिन के साथ नज़दीकियां बढ़ जाएंगी? क्या वे नाटो सैन्य गठबंधन को लेकर यूरोप के साथ एक और लड़ाई शुरू करेंगे? क्या वे चीन के साथ व्यापार युद्ध छेड़ेंगे?
क्या दूसरे कार्यकाल मिलने पर राष्ट्रपति बाइडन अमेरिका में अलगाववाद और संरक्षणवाद को बढ़ाएंगे? क्या वे अगले चार सालों तक शारीरिक तौर पर इस भूमिका के लिए तैयार रहेंगे?
अमेरिकी चुनाव और दोनों ही उम्मीदवारों से जुड़े ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनको लेकर ब्रिटेन चिंता में है. इन सावालों के अलावा और भी चिंताएं हैं.
ब्रिटेन में यह डर है कि 5 नवंबर को करीबी चुनाव परिणाम आ सकते हैं जिसे कई अमेरिकी मतदाता वैध नहीं मानेंगे, ऐसी सूरत में जनवरी 2021 में वाशिंगटन पर हमले से भी बदतर राजनीतिक हिंसा देखने को मिल सकती है.
अमेरिकी लोकतंत्र का संकट अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व वाले दबदबे को नुकसान पहुंचा सकता है और दुनिया भर में निरंकुशता को बढ़ावा दे सकता है.
यह सब ब्रिटेन के दोनों प्रमुख दलों के राजनेताओं को चिंतित कर रहा है क्योंकि वे 4 जुलाई को अपने देश में होने वाले प्रधानमंत्री चुनाव की तैयारी कर रहे हैं.
क्या वे लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन करने वाले को चुनेंगे या फिर पारपंरिक सहयोगी के करीब बने रहेंगे?
क्या उन्हें किसी बड़े मुद्दे पर अमेरिका और यूरोप के बीच चुनाव करना होगा? सबसे बढ़कर, अमेरिकी चुनाव ने तेजी से अनिश्चित होती दुनिया में ब्रिटेन के लिए और भी अनिश्चितता पैदा कर दी है.
ट्रंप को मिल रहा है यहूदियों का भरपूर साथ
योलांदे नेल, मध्य पूर्व संवाददाता
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव का बड़ा असर मध्य पूर्व में होना तय है, लिहाजा इस इलाके में दोनों उम्मीदवारों को काफी क़रीब से देखा जा रहा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने सात अक्टूबर को हुए हमले के बाद इसराइल का मज़बूती से समर्थन किया है.
सशस्त्र संघर्ष के मुखर आलोचक होने और बड़ी संख्या में फ़लीस्तीन नागरिकों के मारे जाने के बाद भी बाइडन ने इसराइल को सैन्य हथियारों की आपूर्ति को जारी रखा. हालांकि इसके बाद भी सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि ज़्यादातर यहूदी इसराइली बाइडन की तुलना में ट्रंप को इसराइल के लिए बेहतर मान रहे हैं.
ज़्यादातर इसराइली यहूदी बाइडन की युद्ध संबंधी नीति से सहमत नहीं दिखते जबकि फ़लीस्तीनियों के मुताबिक़, बाइडन ने उनकी मुश्किलों को नज़रअंदाज़ किया है.
इसराइली याद करते हैं कि ट्रंप ने किस तरह से यरूशलम को अधिकारिक तौर पर मान्यता दी थी और अरब देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत करायी थी.
ट्रंप ने ग़ज़ा में युद्ध का समर्थन किया है लेकिन साथ ही इसराइल से इस युद्ध से जल्द ही बाहर निकलने की अपील की है.
उनके मुताबिक़, इससे इसराइल की छवि को नुकसान हो रहा है.
वहीं, दूसरी ओर फ़लस्तीनी नागरिकों को बाइडन के दूसरे कार्यकाल से थोड़ी उम्मीद है. फ़लस्तीनियों के मुताबिक़, ट्रंप के आने से उनकी मुश्क़िलें बढ़ेंगी.
ट्रंप ने एलान किया है कि वे राष्ट्रपति चुने जाने के बाद फ़लस्तीनी को दी जाने वाली अमेरिकी मदद बंद कर देंगे.
भविष्य के नज़रिये से देखें तो बाइडन दो देश के फॉर्मूले का समर्थन करते हैं. यही शांति के लिए अंतरराष्ट्रीय फॉर्मूला भी है लेकिन यह हासिल कैसे होगा, इसको लेकर उन्होंने अब तक कोई ठोस योजना पेश नहीं की है. जबकि ट्रंप स्वतंत्र फ़लस्तीन के गठन के पर सवाल उठाते रहे हैं. आम तौर पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतान्याहू, व्हाइट हाउस में ट्रंप की वापसी चाहेंगे.
अभी भी मेक्सिको वासियों को चुभते हैं ट्रंप के भड़काऊ बयान
विल ग्रांट, मेक्सिको संवाददाता
मेक्सिको के लोगों ने हाल ही में इतिहास बनाते हुए किसी महिला को पहली बार राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठाया है.
क्लाउडिया शीनबाम को देश की पहली महिला राष्ट्रपति चुना गया है.
उनके करीबी सहयोगी और पिछले राष्ट्रपति एंड्रेस मैनुअल लोपेज़ ओब्रेडोर ने डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान अप्रत्याशित साझेदारी निभायी थी.
वहीं, बाइडन के साथ मेक्सिको के संबंध कई बार तनावपूर्ण रहे हैं, लेकिन दोनों पड़ोसी देशों ने इमिग्रेशन सीमा पार व्यापार जैसे अहम क्षेत्रों में लगातार एक पहलू पर काम किया है.
एक बार सत्ता में आने के बाद शीनबाम को यह साबित करना होगा कि वे केवल पिछली सरकार की उत्तराधिकारी नहीं है, बल्कि वे अमेरिका के साथ संबंधों को कैसे बेहतर कर सकती हैं?
शीनबाम के पास बाइडन या ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में के दौरान, अमेरिका के साथ संबंधों पर पिछली सरकारों से अलग हटकर सोचने का विकल्प है.
चुनाव अभियान के दौरान क्लाउडिया शीनबाम ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि वह व्हाइट हाउस में किसी भी व्यक्ति के चुने जाने को लेकर बेफिक्र हैं.
उन्होंने कहा, "मैं मेक्सिको के नागरिकों के लिए लड़ूंगी."
हालांकि, मेक्सिको के नागरिक ट्रंप को उदासीनता के साथ याद करते हैं. दरअसल, ट्रंप ने 2016 में अपने चुनावी अभियान की शुरुआत करते हुए मेक्सिको के प्रवासियों के लिए, "ड्रग डीलर, अपराधी और बलात्कारी" जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया था. ये बात यहां कई लोगों को आज भी परेशान करती है.
कनाडा के लिए अरबों डॉलर का व्यापार दांव पर
जेसिका मर्फ़ी, बीबीसी न्यूज़, टोरंटो
अमेरिका के उत्तरी पड़ोसी यानी कनाडा को डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने को लेकर कुछ चिंताएं हैं. ट्रंप कभी भी कनाडा में फेमस नहीं रहे हैं.
इस साल की शुरुआत में एक सर्वेक्षण के दौरान यह बात भी उभरी कि ट्रंप के अगले चार साल के दौरान अमेरिकी लोकतंत्र टिक नहीं पाएगा.
जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने थे उस वक्त भी अमेरिका और कनाडा के संबंधों पर काफी दबाव देखने को मिला था.
हालांकि उत्तरी अमेरिकी व्यापार समझौते सहित कुछ मुद्दे कनाडा के पक्ष में रहे थे.
नवंबर के अमेरिकी चुनाव तेजी से नज़दीक आ रहे हैं, कनाडा का राजनीतिक और व्यापारिक वर्ग पहले से ही अधिक व्यापारिक उथल-पुथल के लिए तैयार हो रहा है.
यह कहना मुश्किल है कि ख़सतौर पर आर्थिक रूप से दोनों देश कितने करीब से जुड़े हुए हैं.
साल 2023 में दोनों देशों के बीच हर दिन लगभग 2.6 बिलियन डॉलर का व्यापार होता था.
इसलिए व्यापार सौदे की योजनाबद्ध औपचारिक समीक्षा और आयातित वस्तुओं पर दुनिया भर में टैरिफ लगाने संबंधित ट्रंप का अभियान ये दोनों ही मुद्दे कानाडा के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं.
प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक "टीम कनाडा" परियोजना शुरू की है, जिसके तहत राजनेताओं, दूतों और व्यापारिक नेताओं को निजी और सार्वजनिक रूप से कनाडा के मूल्य को बढ़ावा देने के लिए पूरे अमेरिका में भेजा जा रहा है.
ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान ऐसी एक योजना कामयाब रही थी. ट्रूडो ने कहा कि उनका देश अमेरिकी चुनाव के जो भी परिणाम होंगे, उसका सामना करने लिए तैयार रहेगा.