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इसराइल के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों के लिए एकजुट होना इतना मुश्किल क्यों है?
- Author, रजनीश कुमार
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
फ़रवरी 1974 में पाकिस्तान के लाहौर में इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी के दूसरे समिट का आयोजन हुआ था.
इस समिट में सऊदी अरब के तत्कालीन किंग फ़ैसल बिन अब्दुल-अज़ीज़ अल साऊद भी मौजूद थे.
समिट को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो ने कहा था, ''हम एक ग़रीब मुल्क हैं. हमारे पास सीमित संसाधन हैं. हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि इकनॉमिक इंस्टिट्यूशन बनाने में योगदान दें. हम आर्थिक योगदान उस रूप में नहीं दे पाएंगे. लेकिन अल्लाह को साक्षी मान आप सबको आश्वस्त करता हूँ कि हम इस्लाम के लिए ख़ून का हर क़तरा देने से बाज नहीं आएंगे. यह कोई ज़ुबानी आश्वासन नहीं है. पाकिस्तान के लोग इस्लाम के सैनिक हैं और पाकिस्तान की आर्मी भी इस्लाम की आर्मी है. भविष्य में जहाँ भी ज़रूरत होगी आप पाकिस्तानियों को मदद के लिए खड़े पाएंगे.''
जब ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो इस्लाम के लिए खू़न देने का संकल्प ले रहे थे तब ईरान की इस्लामिक क्रांति नहीं हुई थी. सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला नहीं किया था. मिस्र, जॉर्डन, यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने इसराइल को मान्यता नहीं दी थी. सऊदी अरब ने यमन पर हमला नहीं किया था और क़तर के ख़िलाफ़ सऊदी, बहरीन, मिस्र, यूएई ने नाकाबंदी नहीं लगाई थी.
पाकिस्तान से बांग्लादेश ज़रूर अलग हो गया था. तब भी ज़ुल्फ़ीकार भुट्टो इस्लामिक देशों की एकजुटता को लेकर आशान्वित दिख रहे थे.
पाकिस्तान एक बार फिर से चाहता है कि इस्लामिक देश इसराइल के ख़िलाफ़ एकजुट हो जाएं. पाकिस्तान के परमाणु बम बना लेने के बावजूद एक-एक करके कई इस्लामिक देशों में पश्चिम ने अपने हिसाब से सत्ता परिवर्तन किया. मिसाल के तौर पर इराक़, लीबिया, सीरिया में पश्चिम विरोधी सरकारें नहीं रहीं और अब ईरान में भी ऐसा ही होता दिख रहा है. यहाँ तक कि ख़ुद पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैन्य अभियान की मदद कर रहा था.
मुस्लिम देशों के आपसी मतभेद
इसराइल ने 12 जून को ईरान में हमला शुरू किया था और ये हमले अब भी जारी हैं. जवाब में ईरान ने भी इसराइल पर हमला किया. दोनों देशों के टकराव का असर पूरे पश्चिम एशिया में महसूस किया जा रहा है. कई लोग इस संघर्ष को इस्लाम के ख़िलाफ़ युद्ध के रूप में भी पेश कर रहे हैं.
पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने पिछले हफ़्ते नेशनल असेंबली में इसराइल के ख़िलाफ़ सभी मुस्लिम देशों से एकजुट होने की अपील की.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस्लामिक देश एकजुट हो पाएंगे? दूसरा सवाल यह है कि पाकिस्तान बार-बार इस्लामिक देशों की एकजुटता की बात क्यों करता है? पाकिस्तान को लगता है कि इसराइल के ख़िलाफ़ दुनिया भर के इस्लामिक देशों को एकजुट होकर जवाब देना चाहिए, लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि इस्लामिक देश आपसी संघर्षों और मतभेदों में उलझे हुए हैं.
सऊदी अरब और ईरान की प्रतिद्वंद्विता अब भी ख़त्म नहीं हुई है.
यह प्रतिद्वंद्विता सुन्नी बनाम शिया से लेकर सऊदी अरब की राजशाही बनाम ईरान की इस्लामिक क्रांति भी रही है. अज़रबैजान शिया बहुल मुस्लिम देश है लेकिन उसकी क़रीबी इसराइल से है जबकि शिया बहुल ईरान से तनातनी रहती है.
इराक़ पर जब अमेरिका ने हमला किया और सद्दाम हुसैन की फांसी सुनिश्चित कराई तब ईरान अमेरिका के ख़िलाफ़ नहीं था.
जिस साल ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई, उसी साल मिस्र ने इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता देते हुए राजनयिक संबंध कायम करने का फ़ैसला किया था. जॉर्डन ने भी 1994 में इसराइल को मान्यता दे दी थी.
2020 में तो यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम कर लिए थे.
तुर्की के दोहरे मानदंड
तुर्की यूएई और बहरीन की आलोचना कर रहा था कि इन्होंने इसराइल से राजनयिक संबंध क्यों कायम किए. ऐसा तब है जब तुर्की के राजनयिक संबंध इसराइल से हैं. तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं.
तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था.
यहाँ तक कि 2005 में अर्दोआन कारोबारियों के एक बड़े समूह के साथ दो दिवसीय दौरे पर इसराइल गए थे. इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाक़ात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को बल्कि पूरी दुनिया को ख़तरा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस्लामिक देश इसराइल के ख़िलाफ़ सारे मतभेद और विरोधाभास भूल जाएंगे?
सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद से यही सवाल पूछा.
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''पाकिस्तान के ऊपर अभी बहुत दबाव है. भारत के साथ उनकी सैन्य झड़प भी हुई है और उसे अच्छी ख़ासी चोट भी लगी है. अपनी अहमियत के लिए पाकिस्तान ये सब शिगूफ़ा छोड़ता रहता है. तुर्की के साथ उन्होंने अपनी क़रीबी बहुत बढ़ाई है और यही रिश्ता ईरान के साथ भी बढ़ाना चाहेंगे. पहले पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान को अहमियत देता था और कहता था कि उसे इससे रणनीतिक फ़ायदा मिलता है. तुर्की, ईरान और पाकिस्तान की क़रीबी शीत युद्ध के ज़माने से है और पाकिस्तान इसे फिर से अहमियत दे रहा है.''
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''जब संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव बेकार हो गया है तो इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी तो पहले से ही अप्रासंगिक है. पहली बात तो यह कि ईरान और इसराइल का मुद्दा इस्लामिक नहीं है. ये दो देशों का मुद्दा है. ये एक रणनीतिक प्रतिस्पर्धा है. एक बहुत पुरानी प्रतिद्वंद्विता है, जो क्षेत्रीय नेतृत्व को भी अहमियत देती है. इसे इस्लामी कवर देने का कोई मतलब नहीं है. तुर्की के पाकिस्तान के साथ संबंध इस्लाम की वजह से नहीं है. पाकिस्तान के ईरान से संबंध इस्लाम की वजह से नहीं है. हर समय इसमें इस्लाम को घसीटना किसी को शोभा नहीं देता है.''
फ़लस्तीन का मुद्दा क्या इस्लामिक है?
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''हर अरब देश में अमेरिका की फ़ौज मौजूद है. पूरे गल्फ़ में 70 हज़ार अमेरिकी सैनिक हैं. इनके पास एक्स्ट्रा टेरिटोरियल राइट हैं. यानी इन पर वहाँ के नियम-क़ानून लागू नहीं होते हैं. अमेरिका के इन देशों में सैन्य ठिकाने हैं और इनके पास पूरा अधिकार है कि इसे कैसे हैंडल करें. इसमें कोई अरब देश अमेरिका को रोक नहीं सकता है. ज़ाहिर है कि इसराइल का ड्रोन जॉर्डन से होकर ही आ रहा है. जॉर्डन की ये ज़िम्मेदारी थी कि इन ड्रोन्स को रोकें. कई ड्रोन तो जॉर्डन में ही गिर जाते हैं. तेल अवीव और तेहरान में 2000 किलोमीटर की दूरी है लेकिन लड़ाई ड्रोन से हो रही है.''
तलमीज़ अहमद कहते हैं कि ईरान की तुलना इराक़ से नहीं कर सकते हैं क्योंकि इराक़ पूरी तरह से अमेरिका की जंग थी.
उन्होंने कहा, ''1967 से पहले फ़लस्तीन और इसराइल की समस्या अरब की समस्या थी लेकिन 1967 में अरब-इसराइल युद्ध में इसराइल की जीत के बाद से यह केवल इसराइल और फ़लस्तीन की समस्या रह गई है. अगर इसे कोई हल कर सकता है तो वे इसराइल और फ़लस्तीनी हैं.''
कहा जा रहा है कि इसराइल और ईरान में जंग से पाकिस्तान की अहमियत बढ़ गई है.
पश्चिम चाहेगा कि पाकिस्तान इस मामले में ईरान को किसी भी तरह से मदद न करे और ईरान चाहेगा कि पाकिस्तान उसके साथ रहे. पाकिस्तान शीत युद्ध में अमेरिकी खेमे में था और उसके लिए ईरान के साथ जाना इतना आसान नहीं है.
पाकिस्तान के फील्ड मार्शल 18 जून को व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ लंच पर मिले हैं और इसे ईरान-इसराइल जंग से ही जोड़कर देखा जा रहा है.
भारत के पूर्व डिप्लोमैट केसी सिंह ने एक्स पर लिखा है, ''इसके दो मायने हो सकते हैं. या तो ट्रंप यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर अमेरिका ईरान के ख़िलाफ़ जंग में शामिल होता है तो पाकिस्तानी सेना की प्रतिक्रिया क्या होगी या फिर ट्रंप पहले ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने का फ़ैसला कर चुके हैं और पाकिस्तान की मदद चाहते हैं."
दक्षिण एशिया की जियोपॉलिटिक्स पर गहरी नज़र रखने वाले माइकल कुगलमैन ने लिखा है, ''अगर ईरान की मौजूदा सरकार भविष्य में भी रहती है तो आने वाले सालों में पाकिस्तान की क़रीबी ईरान से मज़बूत होगी. सऊदी अरब और ईरान के बीच संबंध सुधारने के लिए सकारात्मक माहौल बनेगा क्योंकि पूरा समीकरण बदलता दिख रहा है.''
इस्लामिक देशों की ठंडी प्रतिक्रिया
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र में असोसिएट प्रोफ़ेसर मोहम्मद मुदस्सिर क़मर कहते हैं कि शब्दों में साथ होना और वाक़ई साथ होने में फ़र्क़ होता है.
मोहम्मद मुदस्सिर क़मर कहते हैं, ''ईरान और सऊदी अरब में रंजिश की मुख्य वजह शिया बनाम सुन्नी नहीं थी. जियोपॉलिटिकल कारण ज़्यादा अहम थे. क़तर में अमेरिका का एयर बेस है और इसराइल इस एयर बेस का इस्तेमाल करेगा तो उसे कोई रोक नहीं पाएगा. क़तर इस हालत में है भी नहीं. चीन की पहल पर ईरान और सऊदी अरब में दूरी कम हुई है लेकिन इस इलाक़े में ईरान का डर अभी कम नहीं हुआ है.''
मोहम्मद मुदस्सिर क़मर कहते हैं, ''अरब के इस्लामिक देशों में इसराइल और ईरान दोनों का डर है. गल्फ़ के इस्लामिक देश न तो ईरान को बहुत मज़बूत होते देखना चाहेंगे और न ही इसराइल को. इनके लिए दोनों ही स्थिति में मुश्किलें हैं. गल्फ़ के इस्लामिक देश अमेरिका के स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं. ऐसे में अमेरिका पर इनका भरोसा अब भी है. लेकिन ईरान पर ये भरोसा नहीं कर सकते हैं. ज़ाहिर है कि 1979 के बाद ईरान की स्थिति 2025 आते-आते बहुत कमज़ोर हो गई है. लेकिन ईरान अब भी इस इलाक़े में ताक़तवर है. सऊदी अरब अब भी ईरान के साथ सीधे नहीं लड़ सकता है.''
अमेरिका ने मार्च 2003 में इराक़ पर हमला किया था और तब ईरान ने इस हमले का विरोध नहीं किया था. सद्दाम हुसैन से ईरान की बनती नहीं थी और जब अमेरिका ने हुसैन को फांसी दिलवाई, तब भी ईरान ने विरोध नहीं किया था.
मोहम्मद मुदस्सिर क़मर कहते हैं, ''ईरान ने हमेशा से सद्दाम हुसैन को एक ख़तरे के रूप में देखा था. लेकिन अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को इसलिए फांसी नहीं दिलवाई थी कि वह ईरान के लिए ख़तरा थे. अमेरिका की अपनी वजहें थीं. इराक़ में शिया आबादी के समर्थन में ईरान हमेशा से रहा है. फिलहाल ईरान पूरी तरह अलग-थलग पड़ चुका है. संभव है कि अब ईरान को अमेरिका से सीधी भिड़ंत करनी पड़े. अगर ऐसा होता है तो यह टकराव बहुत निर्णायक साबित हो सकता है.''
मोहम्मद मुदस्सिर क़मर कहते हैं, ''इस्लामिक देशों के आपसी मतभेद इतने गहरे हैं कि वे अब तक उनसे बाहर नहीं निकल पाए हैं. ओआईसी और अरब लीग़ जैसे संगठन ज़रूर हैं, लेकिन ये नाम भर रह गए हैं.''
2003 में जब अर्दोआन तुर्की के प्रधानमंत्री बने, उसी समय अमेरिका इराक़ पर हमले की तैयारी कर रहा था. अर्दोआन की सद्दाम हुसैन से नज़दीकी नहीं थी. यहाँ तक कि उन्होंने अमेरिका को इराक़ के ख़िलाफ़ युद्ध में तुर्की की ज़मीन का इस्तेमाल करने देने का मन बना लिया था.
हालाँकि अर्दोआन का यह इरादा पूरा नहीं हो पाया क्योंकि तुर्की की संसद में यह प्रस्ताव महज़ तीन वोट से गिर गया था. यह तब हुआ जब उनकी पार्टी को संसद में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त था. इस फ़ैसले से अमेरिका का तत्कालीन बुश प्रशासन बहुत नाराज़ हुआ था.
फिर भी, अर्दोआन ने अमेरिका को तुर्की के हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल की अनुमति दे रखी थी.
एक तरफ़ अर्दोआन का मुस्लिम स्वाभिमान और उसके हितों की बात करना, और दूसरी तरफ़ इराक़ पर अमेरिकी हमले का समर्थन, ये दोनों चीज़ें आपस में पूरी तरह विरोधाभासी थीं.
ईरान हारा तो क्या होगा?
अब जब इसराइल ने ईरान पर हमला किया है, तो एक बार फिर अर्दोआन मुखर नज़र आ रहे हैं.
लेकिन कुछ महीने पहले ही तुर्की की मदद से सीरिया में ईरान-समर्थक सरकार को बेदख़ल किया गया था.
एक तरह से सीरिया में ईरान को तुर्की के हाथों हार का सामना करना पड़ा है.
अर्दोआन ने एक्स (पूर्व ट्विटर) पर एक लंबी पोस्ट में इसराइल को लेकर लिखा है,
''इसराइल ने पश्चिम के व्यापक सहयोग से ईरान पर हमला किया है. इसराइल ने ग़ज़ा को नष्ट कर दिया है और इस इलाक़े के हर देश को डराकर रखा है. दरअसल, इसराइल को इस बात का इल्म नहीं है कि वह वास्तव में कर क्या रहा है.''
''संभव है कि उसे भविष्य में अपनी ग़लती का अहसास हो, लेकिन हमें इस बात का डर है कि तब तक बहुत देर न हो जाए. इसराइल को यह भूलना नहीं चाहिए कि प्राचीन समय में किसी भी देश की अपनी सरहद नहीं थी और न ही प्रशासन. इसराइल का फ़लस्तीन के लोगों और उनकी ज़मीन पर हमला महज़ कुछ लाखों तक सीमित नहीं है. अब इसराइल ने ईरान और वहाँ के लोगों पर हमला किया है और यह हमला केवल ईरान के लिए चिंता का विषय नहीं है. जब बात तुर्की तक आएगी तो इसका दायरा और बढ़ जाएगा.''
अर्दोआन ने लिखा है, ''सच्चाइयों को बिना समझे इस इलाक़े में लिया गया हर फ़ैसला भविष्य के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है. इसराइल जितनी क्रूरता दिखाएगा, जितना ख़ून बहाएगा, मानवता के ख़िलाफ़ जितने अपराध करेगा; अपने अस्तित्व को संकट में डालेगा. इन अत्याचारों का अंत उसके गहरे मलाल से होगा.''
पश्चिम एशिया में तुर्की और ईरान के हित लंबे समय से टकराते रहे हैं. इसी तरह गल्फ़ के अन्य इस्लामिक देशों के आपसी मतभेद भी गहरे हैं. ऐसे में इसराइल के ख़िलाफ़ सिर्फ़ धर्म के आधार पर लामबंद होना और वह भी तब जब अमेरिका इसराइल के साथ खड़ा है, शायद ही मुमकिन है.
अगर ईरान यह जंग हार जाता है तो क्या होगा?
अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिन्दू' के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ''अगर ईरान इस युद्ध में हार जाता है तो इसराइल का पश्चिम एशिया में प्रभाव और बढ़ जाएगा. सीरिया से बशर अल असद पहले ही बाहर हो चुके हैं. ईरान समर्थित हथियारबंद समूह पहले ही कमज़ोर हो चुके हैं. ग़ज़ा को इसराइल पहले ही तबाह कर चुका है. वेस्ट बैंक में उसका जो मन होगा, वह करेगा. अगर ईरान कमज़ोर होता है तो पश्चिम एशिया में रूस का बचा-खुचा प्रभाव भी सिमट जाएगा. चीन गल्फ़ में अमेरिकी सहयोगियों के तेल पर और अधिक आश्रित हो जाएगा.''
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