लोकसभा चुनाव में क्या ओबीसी वोटर ‘गेम चेंजर’ साबित होंगे?

    • Author, अभिनव गोयल
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा चुनावी नारा 'अबकी बार 400 पार' का है.

वहीं कांग्रेस ‘इंडिया’ गठबंधन की मदद से बीजेपी को रोकने की रणनीति पर काम कर रही है.

इन सबके बीच देश के दोनों अहम गठबंधन ओबीसी वोटरों को खींचने के लिए पुरज़ोर कोशिश में हैं.

जानकारों का कहना है कि इस चुनाव में भी ओबीसी मतदाता 'गेम चेंजर' साबित होंगे.

एक तरफ़ कांग्रेस नेता राहुल गांधी बार-बार जाति जनगणना और ओबीसी का मुद्दा उठा रहे हैं.

वे दावा करते हैं कि भारत सरकार में 90 सचिव स्तर के अधिकारी हैं, जिनमें सिर्फ़ तीन ओबीसी वर्ग से आते हैं और वे सिर्फ़ पाँच प्रतिशत बजट को नियंत्रित करते हैं.

इसके जवाब में अमित शाह दावा करते हैं, "बीजेपी के सांसदों में 29 प्रतिशत यानी 85 सांसद और 29 मंत्री ओबीसी कैटेगरी के हैं. 1358 एमएलए में से 365 ओबीसी हैं, जो 27 प्रतिशत है. ये सभी ओबीसी का राग अलापने वालों से ज़्यादा हैं."

इतना ही नहीं ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में कहा था, "कांग्रेस के हमारे साथी बहुत चिंता जताते हैं कि सरकार में ओबीसी कितने हैं, उसका हिसाब किताब करते हैं. मैं हैरान हूँ कि उन्हें सबसे बड़ा ओबीसी (नरेंद्र मोदी) नज़र नहीं आता है."

कितना प्रभावशाली है अन्य पिछड़ा वर्ग?

इस लोकसभा चुनाव में क़रीब 97 करोड़ मतदाता हिस्सा लेंगे.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जनसंख्या के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा दबदबा अन्य पिछड़ा वर्ग का है, जिसकी संख्या क़रीब 50 प्रतिशत है.

अप्रैल 2018 तक केंद्रीय ओबीसी सूची में कुल 2,479 जातियाँ शामिल थीं.

ये जातियाँ अब तक अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की समर्थक रही हैं.

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने से लेकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने तक में ओबीसी की अहम भूमिका रही है.

ओबीसी का उभार

देश आज़ाद होने के बाद एससी और एसटी को 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत का आरक्षण दिया गया.

लेकिन हज़ारों ऐसी जातियाँ थी, जो उस वक़्त पिछड़ी होने के बावजूद भी छूट गईं.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर नरेंद्र कुमार बताते हैं कि आज़ादी से पहले ही बैकवर्ड क्लास का मूवमेंट शुरू हो गया था.

वे कहते हैं,“उस वक़्त उत्तर भारत के मुक़ाबले बैकवर्ड क्लास का मूवमेंट दक्षिण भारत में कहीं ज़्यादा था. वहाँ रामास्वामी नायकर, महात्मा फुले, साहू जी महाराज की एक लेगेसी थी, जिसकी वजह से ओबीसी की अहमियत की शुरुआत हुई."

उन्होंने कहा,"जब भारत आज़ाद हुआ तो छूआछूत एक बड़ा फ़ैक्टर था, जिसे एससी-एसटी को आरक्षण देकर एड्रेस करने की कोशिश की गई, लेकिन बैकवर्ड का जो मुद्दा था, वह नीचे दब गया, क्योंकि कांग्रेस की इसमें कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं थी."

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार नवेन्दु कुमार बताते हैं कि 1970 के दशक में बिहार जैसे राज्य में सोशलिस्ट पार्टियों से जुड़े नेताओं ने पिछड़ी जातियों को राजनीतिक हाशिए से उठाकर फ़ोकस में लाना शुरू कर दिया था.

वे कहते हैं, “विशेष तौर पर यह काम कर्पूरी ठाकुर ने किया. उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन बनाया और उसकी सिफ़ारिशों को लागू किया, जिसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण लागू किया."

नवेन्दु कहते हैं कि यह मंडल कमीशन से पहले की बात है, जब कर्पूरी ठाकुर ने क़रीब 20 प्रतिशत आरक्षण ओबीसी को दिया, हालाँकि जनसंघ ने इसका विरोध किया और उनकी सरकार गिर गई.

मंडल आयोग से मिली पहचान

भारत की राजनीति में बड़ा उलटफेर तब आया, जब 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू किया.

दिसंबर 1980 में  मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने की सिफ़ारिश की गई थी.

सिफ़ारिशें लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी उग्र प्रदर्शन हुए, आगज़नी और कई लोगों की मौत भी हुई.

प्रोफ़ेसर नरेंद्र कुमार बताते हैं, “आज जाट समाज ओबीसी आरक्षण मांग रहा है, लेकिन एक वक़्त था जब यही समाज मंडल कमिशन का खुलकर विरोध कर रहा था. मुझे आज भी याद है हरियाणा के सोनीपत में जाटों ने कई बसें जला दी थीं. जाट अपने आप को उस वक़्त ओबीसी मानने को तैयार नहीं थे, 2000 के बाद वे आरक्षण मांगने लगे.”

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, “वीपी सिंह अक्सर कहा करते थे कि पिछड़ों को सहूलियत नहीं सत्ता में शिरकत चाहिए. मंडल का फ़ायदा उन्हें तो नहीं हुआ लेकिन बाद के क़रीब 25 साल तक ओबीसी नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में राज किया. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और कल्याण सिंह, बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, मध्य प्रदेश में उमा भारती और शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल जैसे नेता शामिल हैं.”

ओबीसी का वोटिंग पैटर्न

ओबीसी के वोटिंग पैटर्न को उसके रुझान और चुनावी सर्वे की मदद से ही समझा जा सकता है, क्योंकि चुनाव आयोग इस तरह का कोई डेटा नहीं देता है, जिससे यह पता चले कि किस जाति के व्यक्ति ने किस उम्मीदवार को वोट किया है.

चुनाव आयोग के मुताबिक़ साल 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को क़रीब 18 प्रतिशत वोट मिले थे, जो साल 2014 के चुनावों में बढ़कर क़रीब 31 प्रतिशत और 2019 में बढ़कर क़रीब 37 प्रतिशत हो गए हैं.

वहीं कांग्रेस को 2009 लोकसभा चुनाव में 28.55 प्रतिशत वोट थे, जो 2019 में घटकर 19.49 प्रतिशत रह गए.

राजनीतिक विश्लेषक सज्जन कुमार कहते हैं कि बीजेपी जितने बड़े बहुमत से जीतकर आ रही है, वह बिना ओबीसी के संभव नहीं है.

वे कहते हैं, “पिछले कुछ समय में बीजेपी को लेकर लोगों की धारणा बदली है. पहले बनिया-ब्राह्मण की पार्टी कहा जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है. वह ओबीसी को कैटर कर रही है.”

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं कि ओबीसी कभी भी कांग्रेस का कोर वोटर नहीं रहा है. पिछले दस सालों में कांग्रेस का अपर कास्ट वोट बीजेपी को शिफ्ट हुआ है.

लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक़ ओबीसी वर्ग में 'प्रभावशाली' और 'पिछड़ी' माने जाने वाली जातियों ने पिछले चुनावों में बीजेपी को बड़ी संख्या में वोट किया है.

ओबीसी मतदाताओं में सेंधमारी

आज़ाद भारत में कई दशकों तक ओबीसी अपनी पहचान और सत्ता में अपने हक़ के लिए लड़ाई लड़ता रहा.

जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर डॉ. हिमांशु प्रसाद रॉय कहते हैं कि जबसे कांग्रेस की स्थापना हुई है, तबसे अन्य पिछड़ी जातियों का उसके साथ कोई ख़ास तारतम्य नहीं रहा है.

वे कहते हैं, “1952 के बाद से ओबीसी वर्ग कांग्रेस से दूर होने लगा. इस वर्ग में खेतिहर जातियाँ ज्यादा हैं, वहीं कांग्रेस पर एक समय ज़मींदारों का वर्चस्व था. जिन-जिन राज्यों में पार्टियों ने ज़मींदारी ख़त्म की, भूमि सुधार किए तो ज़मीन ओबीसी के पास आने लगी, ऐसे में ये जातियाँ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जुड़ गईं, जिसके बाद पश्चिम बंगाल में सीपीएम, केरल में लेफ़्ट और धीरे-धीरे तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और बिहार से भी कांग्रेस का सफ़ाया होना शुरू हो गया.”

ओबीसी धीरे-धीरे एक साथ तो आया, लेकिन सत्ता इतने बड़े वर्ग में कुछ जातियों के पास ही थी. ऐसे में ओबीसी वर्ग में भी असंतोष की भावना पैदा हुई.

प्रोफ़ेसर नरेंद्र कुमार कहते हैं,“एक समय था ओबीसी के नाम पर यूपी में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव अपनी राजनीति कर रहे थे, लेकिन एक समय आया जब ओबीसी के अंदर ही पिछड़ी जातियों को यह लगा कि हम पीछे छूट रहे हैं और ऐसे में बीजेपी ने इस असंतोष को पहचाना और इस वर्ग में एंट्री की.”

उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने ओबीसी वर्ग में अपनी जगह बनाने के लिए यादव जैसी प्रभावशाली माने जाने वाली जाति को छोड़कर उन जातियों पर ध्यान लगाया, जो ज़्यादा 'पिछड़ी' हुई थीं.

प्रो. नरेंद्र कहते हैं, “इसका नतीजा था कि बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के ख़िलाफ़ ओबीसी चेहरे के रूप में लोधी जाति से आने वाले कल्याण सिंह को उतारा और 1991 में अपनी सरकार बनाई.”

इसके अलावा जब 1990 में राम मंदिर को लेकर बीजेपी ने आंदोलन शुरू किया, तब भी बड़े पैमाने पर ओबीसी वर्ग को साथ लेने की कोशिश की गई.

ओबीसी वर्ग में किस जाति की तरफ़ ज़्यादा ध्यान देना है और किस जाति की तरफ़ कम?

यह एक ऐसा चुनावी गणित है, जिस पर बीजेपी कई दशकों से काम कर रही है.

जानकारों का मानना है कि 2023 में कामगार समाज के लिए लॉन्च की गई पीएम विश्वकर्मा योजना भी ओबीसी की ख़ास जातियों को ध्यान में रखकर की गई थी.

बीजेपी ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री निखिल आनंद कहते हैं कि पीएम विश्वकर्मा योजना बड़ी गेम चेंजर है, जिसके लिए 13 हज़ार करोड़ रुपए दिए गए हैं.

वे कहते हैं, “ओबीसी में क़रीब 50 से 60 प्रतिशत कामगार समाज है, जो इस योजना की मदद से आर्थिक रूप से मज़बूत बनेगा. इसमें लोगों को ट्रेनिंग, टूलकिट और पहली बार में एक लाख रुपए का लोन दिया जाता है.”

कामगार समाज में ज़्यादातर वे जातियाँ आती हैं, जो ओबीसी वर्ग में कम 'प्रभावशाली' और 'पिछड़ी' मानी जाती हैं.

बिहार में ज्यादातर ये जातियां अति पिछड़ा वर्ग में आती हैं.

जाति जनगणना का सवाल

बिहार में जाति आधारित सर्वे के बाद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और कई दूसरे राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.

सवाल है कि जब ओबीसी वर्ग की हिस्सेदारी इतनी ज़्यादा है, तो बीजेपी खुलकर चुनाव में जाति सर्वे को मुद्दा क्यों नहीं बनाती है?

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि राहुल गांधी जाति को पहचान तो रह रहे हैं लेकिन जाति के कार्ड को खेल नहीं पा रहे हैं.

वे सवाल उठाती हैं कि जाति जनगणना कांग्रेस के समय में हुई, तो क्यों उसके आंकड़े जारी नहीं किए. हालात ऐसे हैं कि वे आंकड़े ऑफ़ रिकॉर्ड, मीडिया तक में लीक नहीं हो पाए.

प्रोफ़ेसर हिमांशु राय कहते हैं कि भले बीजेपी जाति जनगणना की बात न करती हो, लेकिन पिछले कुछ सालों में उसने पार्टी और संगठन में बड़े पैमाने पर बदलाव किए हैं और ओबीसी चेहरों को अच्छी-ख़ासी जगह दी है.

बीजेपी के ओबीसी मोर्चा के मुताबिक़ वह देश के कुल 858 ज़िलों में से 801 में सक्रिय है, जहाँ समय-समय पर वह ओबीसी वर्ग को जोड़ने के लिए बैठकें और सम्मेलन करता है.

उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान और रणनीति

ओबीसी राजनीति के लिहाज़ से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्य किसी भी राजनीतिक दल के लिए काफ़ी अहम हैं.

लेकिन बात सबसे पहले हरियाणा की, जहाँ बीजेपी ने मनोहर लाल खट्टर को बदलकर ओबीसी समाज से आने वाले नायब सैनी को सीएम बना दिया.

56 साल बाद हरियाणा में दूसरी बार कोई ओबीसी मुख्यमंत्री बना है.

अब बात उत्तर प्रदेश की, जहां लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं.

बीजेपी ने 2019 में 62, उसके सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) ने 2, बीएसपी ने 10, सपा ने 5 और कांग्रेस महज़ 1 सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई थी.

अगर वोट प्रतिशत की बात करें तो साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को क़रीब 50.76, बीएसपी को 19.26, सपा को 17.96 और कांग्रेस को 6.31 प्रतिशत लोगों ने वोट मिले थे.

साल 2001 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के समय हुकुम सिंह समिति बनाई गई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट में ओबीसी की आबादी 50 प्रतिशत से भी ज्यादा बताई थी.

हालाँकि हुकुम सिंह कमेटी के आँकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं. ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषक इसे सही नहीं मानते हैं.

सज्जन कुमार कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में यादवों की आबादी सात से आठ प्रतिशत है. 19.40 प्रतिशत का डेटा सरासर ग़लत है. यह कमेटी ओबीसी रिज़र्वेशन को इंटरनली क्लास के बेस पर बाँटना चाहती थी, जो हो नहीं पाया.”

पत्रकार हेमंत तिवारी भी राज्य में यादवों की आबादी का अनुमान सात से आठ प्रतिशत लगाते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला का कहना है कि उत्तर प्रदेश में 1985 तक ओबीसी चौधरी चरण सिंह के पीछे था, लेकिन धीरे-धीरे वह मुलायम सिंह के साथ चला गया.

वे कहते हैं, “यूपी में ओबीसी की छोटी-छोटी जातियाँ मिलकर बहुत बड़ी हो जाती हैं. जब बीजेपी ने 2014 में नरेंद्र मोदी को पीएम का चेहरा बनाया तो ओबीसी के अंदर अति पिछड़ी जातियाँ एकजुट हो गईं, जिसके दम पर बीजेपी 73 सीट ले आई.”

इसके अलावा यादवों के रूप में ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी के पास है.

राशिद किदवई कहते हैं गैर यादव ओबीसी को साथ लाने के लिए समाजवादी पार्टी ने ओम प्रकाश राजभर और स्वामी प्रासद मौर्य को साथ लाने का काम किया था, लेकिन उनके बाद भी ओबीसी वोट शिफ्ट नहीं हुआ.

बिहार में ओबीसी वोट का हिसाब

राज्य में हुए जाति सर्वे के मुताबिक़ 13 करोड़ से ज़्यादा की आबादी में 63 फ़ीसदी पिछड़े हैं.

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार नवेन्दु कुमार कहते हैं कि बिहार कभी भी बीजेपी स्टेट नहीं रहा है. बीजेपी की बिहार में भूमिका पिछड़ों (कर्पूरी ठाकुर की सरकार 1967 में गिराई) की सरकार गिराने में रही है, भले अब उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न क्यों न दे दिया हो.

वे कहते हैं, “बिहार में पिछड़ी जातियों में यादवों की संख्या सबसे ज़्यादा है. उनका लाभ भी उन्हें मिला. यादव जाति से लालू प्रसाद यादव लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहे, लेकिन सत्ता की भूख अत्यंत पिछड़ी जातियों में भी थी, जो सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग रही थी."

नवेन्दु कुमार कहते हैं, “नीतीश कुमार ने ओबीसी, दलितों और मुसलमानों में से अत्यंत पिछड़ों को निकालकर एक वर्ग तैयार किया और ये उनकी ताक़त बन गई. साल 2005 में बीजेपी का साथ लेकर उन्होंने बिहार में पहली बार अपनी सरकार बनाई.”

वे कहते हैं कि राष्ट्रीय जनता दल के पास 70 से 80 प्रतिशत यादव वोट है. इसके अलावा कुशवाहा समाज के लिए उनके पास आलोक मेहता और जगदेव प्रसाद महतो के बेटे नागमणि हैं, लेकिन बीेजेपी ने सम्राट चौधरी को डिप्टी सीएम बना दिया है तो कुशवाहा वोट बीजेपी की तरफ झुकता हुआ दिख रहा है.

नवेन्दु कहते हैं कि बिहार का अत्यंत पिछड़ा वर्ग आरजेडी से दूर रहता है लेकिन तेजस्वी में वे संभावना देख रहे हैं. वे लगातार अपने भाषणों में अत्यंत पिछड़ों को साथ लेने की इन दिनों बात भी कर रहे हैं.

वे कहते हैं कि पिछले 10 सालों में बीजेपी ने मौन भाव से बिहार में अत्यंत पिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना की जगह धार्मिक चेतना को जगाने का काम किया है और नीतीश कुमार के अत्यंत पिछड़े वर्ग में बड़ी सेंधमारी की है.

हालांकि अब नीतीश कुमार ने बिहार में महागठबंधन का साथ छोड़कर बीजेपी का हाथ पकड़ लिया है.

राजस्थान के चुनावी रण में कहाँ हैं ओबीसी

अगर राजस्थान की बात करें तो यहाँ लोकसभा की 25 सीटें हैं, जहाँ ओबीसी जातियों का अच्छा ख़ासा दबदबा है.

2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 58.47 वोट प्रतिशत के साथ 24 सीटों पर जीत दर्ज की थी.

माना जाता है कि ओबीसी की जनसंख्या राज्य में 45 से 48 प्रतिशत है,

राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ कहते हैं कि आम तौर पर हर विधानसभा चुनावों में क़रीब 30 जाट, चार से पांच यादव, सात से आठ गुर्जर विधायक जीत कर आते हैं. यहां बड़ा हिस्सा जाटों के पास है और वे राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं.

बारेठ कहते हैं, “जाटों की नाराज़गी का एक और कारण है कि इस बार बीजेपी ने ब्राह्मण चेहरे के तौर पर भजन लाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया है, जबकि कांग्रेस सरकार का नेतृत्व राज्य में माली जाति (पिछड़ी जाति) से आने वाले अशोक गहलोत कर रहे थे.”

वे कहते हैं, “न सिर्फ़ जाट बल्कि कांग्रेस में गुर्जरों को लग रहा था कि सचिन पायलट के रूप में वे डिप्टी सीएम तक गए लेकिन बीजेपी में उन्हें कुछ नहीं मिला. उनके मन भी नाराज़गी है.”

बारेठ कहते हैं कि ओबीसी वर्ग की इस नाराज़गी को दूर करने के लिए बीजेपी ने अलवर से भूपेंद्र यादव और नागौर से ज्योति मिर्धा को टिकट दिया है.

महाराष्ट्र में ओबीसी की लड़ाई

राजस्थान के अलावा ओबीसी राजनीति सबसे अधिक महाराष्ट्र में गरमाई हुई है.

राज्य में कई दिनों चले हिंसक प्रदर्शनों के बाद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने मराठों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाले बिल को विधानसभा से पास करवा लिया है.

माना जाता है कि यहाँ क़रीब 40 प्रतिशत ओबीसी आबादी है और उन्हें 19 फ़ीसदी आरक्षण हासिल है.

असल में मराठा, कुनबी जाति के तहत आरक्षण की मांग कर रहे हैं, लेकिन ओबीसी समुदाय के संगठन मराठों को कुनबी समुदाय में शामिल करने का विरोध कर रहे हैं.

जानकारों के अनुसार राज्य में क़रीब 28 फ़ीसदी का मराठा वोट परंपरागत रूप से कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी के साथ रहा है.

दक्षिण भारत का चुनावी गणित

दक्षिण भारत के पाँच प्रमुख राज्यों- तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल में ओबीसी वोटर निर्णायक हैं.

कर्नाटक में कांग्रेस के पास सिद्धारमैया के रूप में ओबीसी मुख्यमंत्री हैं.

वहीं आंध्र प्रदेश में वाई एस जगनमोहन रेड्डी की सरकार ने ओबीसी को लामबंद किया हुआ है.

इन पाँच राज्यों से 128 लोकसभा सांसद चुने जाते हैं.

वर्ष 2019 में बीजेपी ने इन पाँच राज्यों में 29, कांग्रेस ने 27 और बाक़ी की सीटें पर क्षेत्रीय दलों ने जीत दर्ज की थी.

कर्नाटक और तेलंगाना को छोड़कर किसी भी दक्षिणी राज्य में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा.

कर्नाटक में बीजेपी को 28 में से 25 लोकसभा की सीटें आई और वोट प्रतिशत 51.38 रहा, वहीं तेलंगाना की कुल 17 सीटों में से पार्टी को कुल 19.45 प्रतिशत वोट के साथ 4 सीटें ही मिल पाईं.

दक्षिण भारत में इस कमज़ोर स्थिति से निपटने के लिए बीजेपी ने इस बार आंध्र प्रदेश में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) से गठबंधन किया है.

वरिष्ठ पत्रकार अजय शुक्ला कहते हैं, “तेलंगाना में ओबीसी आबादी 50 प्रतिशत से ज़्यादा है. पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के बड़े ओबीसी नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व से अपने समाज के लिए 34 सीटों की मांग की थी, जिसमें पूर्व सांसद वी हनुमंत राव, बोम्मा महेश कुमार गौड़ और पूनम प्रभाकर शामिल थे.”

शुक्ला कहते हैं, “बीजेपी ने राज्य में ओबीसी समाज से आने वाले डॉ. के लक्ष्मण को पार्टी अध्यक्ष बनाया था. फ़िलहाल वे बीजेपी राष्ट्रीय ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष हैं. पार्टी ने उन्हें उत्तर प्रदेश से राज्यसभा भेजकर एक साथ दो राज्यों को साधने की कोशिश की है."

वरिष्ठ पत्रकार एमजी राधा कृष्णन कहते हैं कि बीजेपी की उत्तर भारत वाली सोशल इंजीनियरिंग दक्षिण भारत में काम नहीं कर पाई.

वे कहते हैं, “दक्षिण भारत की द्रविड़ियन राजनीति मूल रूप से उत्तर भारत में चल रही हिंदुत्व राजनीति का विरोध करती है. तमिलनाडु जैसे राज्य में आज भी एंटी हिंदी मूवमेंट मज़बूत है.”

केरल के बारे में राधाकृष्णन कहते हैं, “यहां ओबीसी की आबादी क़रीब 20 प्रतिशत है, जो मौटे तौर पर कांग्रेस के साथ है. प्रधानमंत्री बनने से पहले, 2013 में नरेंद्र मोदी कई बार केरल आए. उन्होंने पिछड़ा समाज के कई कार्यक्रमों में शिरकत की. बीजेपी ने यहाँ 2018 तक सोच समझकर ओबीसी में सेंधमारी की कोशिश की, इसके लिए भारत धर्म जन सेवा के साथ गठबंधन भी किया, लेकिन उसके बाद कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया और पिछड़ों को अपनी तरफ़ लाने की कोशिशें यहाँ बंद हो गईं.”

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