बिहार में विपक्ष के बीच सीट बंटवारे के बाद लालू यादव पर क्यों उठ रहे हैं सवाल

    • Author, चंदन कुमार जजवाड़े
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता, पटना से

बिहार में विपक्षी महागठबंधन ने भी लंबे मंथन के बाद आख़िरकार सीटों की साझेदारी कर ली है. इस साझेदारी की घोषणा शुक्रवार को की गई.

इस साझेदारी के तहत बिहार की 40 लोकसभा सीटों में 26 पर राष्ट्रीय जनता दल, नौ पर कांग्रेस जबकि तीन सीटों पर सीपीआई (एमएल) अपने उम्मीदवार खड़े करेगी.

वहीं सीपीआई और सीपीआईएम के हिस्से में एक-एक सीट आई है.

इस साझेदारी में सबसे अहम बात यह रही है कि कांग्रेस को पूर्णिया की सीट नहीं दी गई है.

यह सीट आरजेडी ने अपने पास रख ली है. इस सीट पर पप्पू यादव चुनाव लड़ना चाह रहे हैं और हाल ही में उन्होंने अपनी पार्टी जेएपी का कांग्रेस में विलय भी कर दिया था.

महागठबंधन में सीटों का बंटवारा

इसके अलावा आरजेडी ने मधेपुरा सीट भी अपने पास रख ली है, जहाँ से पप्पू यादव पहले भी सांसद रह चुके हैं.

जबकि कोसी-सीमांचल के इलाक़े की सुपौल सीट भी आरजेडी ने कांग्रेस को नहीं दी है. इस सीट पर साल 2014 में पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत चुकी हैं.

जानकार मानते हैं कि महागठबंधन में सीटों के बंटवारे में कांग्रेस को भले ही नौ सीटें मिली हों, लेकिन जिन सीटों पर कांग्रेस अच्छा मुक़ाबला कर सकती थी उनमें से कई सीटें राष्ट्रीय जनता दल ने अपने पास रख ली हैं.

सीटों की इस साझेदारी में कांग्रेस आत्मसमर्पण की मुद्रा में दिखती है.

ऐसी ही एक सीट बिहार के बेगूसराय की लोकसभा सीट है जहाँ से पिछली बार यानी साल 2019 में कन्हैया कुमार सीपीआई के टिकट पर चुनाव लड़े थे.

'लालू को पप्पू यादव की राजनीति से ख़तरा'

माना जाता है कि कांग्रेस में शामिल होने के बाद कन्हैया बेगूसराय सीट पर इस बार बीजेपी के गिरिराज सिंह को बेहतर चुनौती दे सकते थे.

बेगूसराय सीट पर भूमिहार वोटरों की तादात अच्छी ख़ासी है और कन्हैया कुमार भी भूमिहार बिरादरी से आते हैं. इसके अलावा बेगूसराय में कम्युनिस्ट वोटर भी अच्छी संख्या में हैं.

ऐसे में आरजेडी के परंपरागत मुस्लिम-यादव वोटों का साथ मिलने से बेगूसराय का चुनावी समीकरण महागठबंधन के लिए और बेहतर हो सकता था.

वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, "पप्पू यादव की राजनीति तेजस्वी यादव के भविष्य के लिए ख़तरा बन सकती है. इसलिए लालू परिवार पप्पू यादव को कोई छूट नहीं देना चाहता है. लालू का जनाधार मुस्लिम यादव वोट है और पप्पू यादव भी इसी वोट पर राजनीति करते हैं. इसके अलावा वो अन्य लोगों की भी मदद कर के भी उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहते हैं."

मणिकांत ठाकुर के मुताबिक़, लालू प्रसाद यादव के मन में यह डर भी हो सकता है कि अगर इन चुनावों में उनकी बेटियाँ हार गईं और पप्पू यादव की जीत हो गई तो इससे बिहार की सियासत में लालू की साख को धक्का लग सकता है.

मीसा भारती और रोहिणी आचार्य की उम्मीदवारी

माना जा रहा है कि लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती पाटलिपुत्र सीट से आरजेडी की उम्मीदवार होंगी.

जबकि लालू को किडनी दान करने वाली उनकी बेटी रोहिणी आचार्य सारण सीट से पार्टी की उम्मीदवार हो सकती हैं.

पाटलिपुत्र सीट से बीजेपी के रामकृपाल यादव उम्मीदवार हैं, जो कि पहले भी मीसा को चुनावों में मात दे चुके हैं.

जबकि सारण सीट पर आरजेडी के उम्मीदवार का मुक़ाबला बीजेपी के वरिष्ठ नेता और मौजूदा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी से होगा.

माना जाता है कि इसी तरह की आशंका में साल 2019 के चुनावों में आरजेडी ने बेगूसराय सीट पर अपना उम्मीदवार उतारा था और कन्हैया कुमार का समर्थन नहीं किया था.

क्या यह कांग्रेस का आत्मसमर्पण है?

कन्हैया की जीत से बिहार की राजनीति में एक नया युवा चेहरा उभरने से तेजस्वी यादव के भविष्य के लिए ख़तरा हो सकता था.

हालाँकि पूर्णिया सीट कांग्रेस को नहीं मिली ही फिर भी पप्पू यादव इस सीट से चुनाव लड़ सकते हैं.

सीटों की साझेदारी की घोषणा के बाद पप्पू यादव ने संकेत दिए हैं कि वो पूर्णिया सीट से कांग्रेस के टिकट पर 'फ्रेंडली फाइट' में मैदान में उतर सकते हैं.

पप्पू यादव इससे पहले कम से कम तीन बार अपने दम पर पूर्णिया से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं.

साल 1991 में निर्दलीय, साल 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर और साल 1999 में भी पप्पू यादव निर्दलीय ही पूर्णिया सीट से लोकसभा चुनाव जीते थे.

चुनावी राजनीति

पप्पू यादव ने अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत भी पूर्णिया से की थी, जब साल 1990 में वो यहाँ से निर्दलीय ही विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे.

पूर्णिया सीट से इस बार आरजेडी ने बीमा भारती को अपना उम्मीदवार बनाया है. पूर्णिया ज़िले की रूपौली विधानसभा सीट से विधायक बीमा भारती हाल ही में जनता दल यूनाइटेड को छोड़कर आरजेडी में शामिल हुई हैं.

वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, "कांग्रेस ने तो बहुत पहले से लालू के आगे आत्मसमर्पण कर रखा है. कांग्रेस इतना तो कह सकती थी कि यह बहुत अहम चुनाव है और इसके महत्व को देखकर साझेदारी ऐसी हो कि ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीत सकें."

महागठबंधन में सीटों की यह साझेदारी इसलिए भी उलझनों भरी मानी जा रही है क्योंकि इसमें कांग्रेस को कई ऐसी सीटें दी गई हैं, जिसपर मुक़ाबला आसान नहीं होगा.

लोकसभा चुनाव

जबकि कांग्रेस को ऐसी सीटों से दूर रखा गया है जहाँ से वह अच्छा मुक़ाबला कर सकती थी.

इस लिहाज से बिहार की वाल्मीकि नगर सीट भी काफ़ी अहम है.

इस सीट पर साल 2020 में हुए लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के प्रवेश मिश्रा महज़ क़रीब 20 हज़ार वोट से हारे थे. लेकिन इस बार यह सीट आरजेडी ने अपने पास रख ली है.

इसके अलावा बिहार में मिथिलांचल इलाक़े की मधुबनी सीट भी आरजेडी ने अपने पास रख ली है. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में यह सीट साझेदारी में वीआईपी को दे दी गई थी.

उसके बाद कांग्रेस के नेता शक़ील अहमद ने विद्रोह करते हुए इस सीट से निर्दलीय ही चुनाव लड़ा था और वो दूसरे नंबर पर रहे थे, जबकि वीआईपी प्रत्याशी को उनसे भी काफ़ी कम वोट मिला था.

यानी कांग्रेस अपने बड़े नेता शक़ील अहमद के लिए इस बार भी मधुबनी की सीट अपने हिस्से में नहीं ले पाई है.

आरजेडी का मुक़ाबला किससे?

यही हाल औरंगाबाद सीट को लेकर है.

माना जा रहा था कि कांग्रेस और आरजेडी के बीच समझौते में पूर्णिया और औरंगाबाद की सीट पर सबसे ज़्यादा मदभेद था. लेकिन दोनों में से कोई सीट कांग्रेस अपने हिस्से में नहीं ले पाई है.

इस साझेदारी में कांग्रेस को किशनगंज लोकसभा सीट मिली है, जिसपर फ़िलहाल उसका ही कब्ज़ा है. इसके अलावा उसके हिस्से में कटिहार सीट भी आई है.

कटिहार सीट पर साल 2014 में तारीक़ अनवर ने एनसीपी के टिकट पर जीत दर्ज़ की थी.

साल 2019 के चुनावो में कांग्रेस के टिकट पर तारीक़ अनवर जेडीयू के उम्मीदवार से इस सीट से हार गए थे हालाँकि वो क़रीब 44% वोट पाने में सफल रहे थे.

नचिकेता नारायण के मुताबिक़, "महागठबंधन में जिस तरह से सीटों की साझेदारी हुई है उसकी शुरुआत आरजेडी ने ही की थी. लालू यादव चुनाव जीतने के लिए लड़ रहे हैं या नहीं, यह समझना मुश्किल है. जिस तरह से सीटों का बंटवारा हुआ है उसने एनडीए के लिए ही रास्ता आसान किया है."

बिहार में सीटों की इस साझेदारी में कांग्रेस को किशनगंज, कटिहार, समस्तीपुर, सासाराम, पटना साहिब, पश्चिमी चंपारण, मुज़फ़्फ़रपुर, भागलपुर और महाराजगंज की सीटें दी गई हैं.

नचिकेता नारायण कहते हैं, "सासाराम की सीट से अगर कांग्रेस की मीरा कुमार चुनाव नहीं लड़ती हैं तो यह सीट भी कांग्रेस के लिए मुश्किल हो जाएगी. इसके अलावा नालंदा सीट सीपीआई (एमएल) के लिए आसान नहीं है. उसे इसकी जगह पर सिवान की सीट मिलती तो संभावनाएँ बेतहर होतीं."

बिहार की 40 लोकसभा सीटों में के केवल एक किशनगंज की सीट को छोड़कर बाक़ी सभी 39 सीटों पर एनडीए का कब्ज़ा है.

लेकिन बिहार में जिस तरह से महागठबंधन में सीटों की साझेदारी हुई है, उसमें लोकसभा चुनावों से ज़्यादा साल 2020 में हुए विधानसभा चुनावों की छाप दिखती है.

वाम दलों क्या मिला

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनावों चुनावों में आरजेडी को 75, जबकि कांग्रेस को 19, सीपीआई (एमएल) को 12, सीपीआईएम को 2 और सीपीआई को 2 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी.

सीपीआई (एमएल) को साल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए आरा, काराकाट और नालंदा की सीट मिली है. वहीं सीपीआई को बेगूसराय और सीपीएम को खगड़िया की सीट दी गई है.

लोकसभा चुनावों के लिहाज से बात करें तो साल 2004 में हुए लोकसभा चुनावों में बिहार की महज़ 5 सीटों पर बीजेपी जबकि 6 सीटों पर जेडीयू की जीत हुई थी.

उस साल कांग्रेस को 3 और एलजेपी को 3 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि लालू प्रसाद यादव की आरजेडी को 22 सीटों पर जीत मिली थी.

यूपीए-1 की सरकार का हिस्सा होने के बाद भी साल 2009 के लोकसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान कांग्रेस के लिए ज़्यादा सीट छोड़ने को तैयार नहीं थे.

इससे बिहार में बीजेपी विरोधी दलों के लिए चुनाव नतीजे भी पूरी तरह पलट गए थे.

साल 2009 के लोकसभा चुनावों में आरजेडी को महज़ 4 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस 2 सीटों पर सिमट गई थी, जबकि रामविलास पासवान ख़ुद अपनी हाजीपुर सीट से जेडीयू से श्याम सुंदर दास से चुनाव हार गए थे.

उस वक़्त जेडीयू को 20 जबकि बीजेपी को 12 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. उस दौर के बाद लोकसभा चुनावों में आरजेडी का ग्राफ़ लगातार गिरता रहा है.

साल 2014 के चुनावों में भी आरजेडी को महज़ 4 सीटों पर जीत मिली थी.

हालाँकि इस साल हो रहे चुनावों में महागठबंधन के पक्ष में केंद्र और राज्य सरकार के ख़िलाफ़ एंटी इंकम्बेंसी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. इसके अलावा विपक्ष ने रोज़गार के मुद्दे को जनता के सामने उठाया है.

विपक्ष एनडीए को कितनी बड़ी चुनौती दे पाएगा, यह बहुत कुछ उसके उम्मीदवारों पर भी निर्भर करेगा.

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